वारां गिआन रतनावली भाई गुरुदासजी | Varan Giyan Ratnavali PDF In Hindi
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वारां ग्यान रतनावली भाई गुरुदासजी – Varan Gyan Ratnavali Hindi Book PDF Free Download

लेखक | भाई गुरदास जी / Bhai Gurdas Ji |
भाषा | हिन्दी |
कुल पृष्ठ | 709 |
Pdf साइज़ | 72.5 MB |
Category | धार्मिक/ Religious |
Source | archive.org |
वारां गिआन रतनावली भाई गुरुदासजी / Varan Giyan Ratnavali Bhai Gurdas Ji Hindi PDF
वार १ पड़ी १ (III)
नमसकार गुरदेव को सतिनामु जितु गुणाइआ । अदल विचों कहि के मुकति पदारथि माहि समाइआ ।
जनम भरण भउ कटिआ संसा रोग वियोग मिटाइआ । संसा इडु संसार है जनम भरन विधि दुखु सवाइआ ।
पड़ी १ (चरण) गुरुदेव ( गुरु नानकदेव ) को मैं नमस्कार करता हूँ जिसने सतनामु मंत्र (संसार को सुनाया है जीवों को ) संसार सागर से पार कराकर मोल पदार्थ में समाहित] ( लीन) करा दिया है। आवामन के भय को { छिमिर रोग और वियोग के संम को भी मिटा दिया है। यह संसार मात्र भ्रम है और इसमें जन्म, मरण और दुःख अत्यधिक है
जम दंडु सिरौं न उत्तरे साकति दुरजन जन गवाआ चरन गहे गुरदेव दे सति सब दे मुकति कराड़आ ।
भाउ भगति गुरपुरचि करि नाम दान नेहा बीउ तेहा फलु पाइआ ॥ १ ।।
पठडी २ (ज) इसानु विाइआ ।
सानिमा सनि अंध धुंध कछु खबरि न पाई । कति विद की देहि रचि पंचि त की जड़ित जड़ाई ।
पण पाणी वैतरोची धरती संग मिलाई पंच विधि आकासु करि करता छ अदि समाई । पंच तत पंचीसि गुनि सत्रु मित्र मिलि देहि बनाई।
दंड (का भए) सिर पर से उतरता नहीं और शक्ति (वामाचारी) दुर्जनों ने अपना जन्म में ही गवा लिया है। जिन्होंने गुरुदेव के चरण पकड़ लिये उन्हें उसने “सत्य शब्द के माध्यम से मुफ करा दिया है। वे मुका व्यक्ति अब प्रेम-भक्ति दान एवं करों को भी इस ओर प्रेरित करते हैं। जैसा बीज कोई बोता है सही फल पाता है 11.१ ।। पड़ी () सर्वप्रथम जब श्वास और मानसिंह का शरीर नहीं था तब घोर अंधकार में कुछ भी सुझाई नहीं पड़ता था माता के रक्त और पिता के ) संयुक्त किया गया । धरती को बिंदु से देहरचना कर पाँचों को पवन पानी अग्नि और तत्त्व आकाश (गुल्या) बीच में रखा रूप से उसमें व्याप्त हो गया पाँचवाँ गया और छठा वह स्वयं दृष्ट पाँच तत्व और पीस परस्पर विरोधी ( शत्रु-मित्र) गुणों को मिलाकर (मानव) देह की रचना की गयी ।
खाणी वाणी चलितु करि आवागन्नु चरित दिखाई चरासी लख जोनि उपाई ॥ २ ॥
(चरासी लख जोनि विचि उतमु जनमु सु माणसि देही । अखी खणु करनि सुणि मुखि सुधि बोलण वचन सनेही हवी कार कमावणी पैरी बलि सतिसंग मिलेड़ी किरति विरति करि धरम दी खटि खवालणु कारि करेही । गुरमुखि जनमु सकारया गुरबाणी पछि समझि सुणेही गुरभाई संतुसति करि चरणाधि ले मुखि पिवेही । पैरी पवन छोडी कली कालि रहरासि करेगी। आप तो गुर सिख तोही ॥ ३ ॥ चारों उत्पत्तिरा (न, रन वन उदभिद), चारों पश्यन्ति मध्यमा वैखरी) का अन्तर्भुक्त कर आवागमन का प्रपंच बना दिया। इस प्रकार चौरासी लाख योनिज प्राणियों की उत्पत्ति हो गयी ।। २ ।। है,
उड़ी ३ (मनुष्य)
रानियों में मानव योनि में जन्म लेना उत्तम है देखती कानते है और बोलते हैं। हाथों से की जाती है और पाँव से चलकर सत्संगति को प्राप्त हुआ जाता है। मानव-वन् ही धर्म की कमाई करके अर्जित (धन-धान्य में से (अन्यों को खिलाया जाता है। मानवगुरु बनकर जन्म को सार्थक बनाता है पता है एवं सम दूसरों को भी सुनता है गुरुमयों को कर उनका चरणामृतपान करता है अर्थात् विनम्रता धारण करता है। विनम्र चरण-वन्दना करत्याग नहीं कर चाहिए, क्योंकि कलियुग में (व्यक्तित्व को यही पूँजी है। इस प्रकार के (आचरण वाले ही पार होंगे और गुरु के अन्य शिष्यों को भी पार करा देंगे ।। ३।।
उप ओलंकार आकारु करि एक कवाउ पसाउ पसारा पंजरा परवाणु करि पटि पटि अदरि विभव सारा । कादरु किनेन लखि बुदति साजि कौआ अवतारा । इक दू कुदरत लख करि लख विअंत असंख अपारा। रोम रोम विधि रखिओनि करि ब्रहमंहि करोड़ सुमारा इकसि इकसि ब्रहमंडि विच दसि दसि करि अवतार उतारा। केले वेदिवस करि कई कतेब मुहमद पारा कुदरत इकु एता पासारा ॥ ४ ॥
पड़ी ५ (द)
चारि जुगि करि थापना सतिजुगु लेता दुआपर सा चया कलिजुगु चारा चारि वरन चारों के राजे उड़ी
रूपमा उकार ने एक ही शब्द से सारी सृष्टि रचना का प्रसार कर दिया। पांचों तत्वों के तीनों लोकों के सार रूप में घट-पट में हो या उसको कोई भी ना जिसने प्रकृति का सृजन कर उससे (अनन्त विस्तार के लिए अतरित किया। उसने एक प्रकृति के ताल अनेकों रूप बनाए। अपने एक-एक रोम में उसने करोड़ों को समेट रखा है और फिर एक-एक ब्रह्मरूपों में अनेक प्रकृति और उसका इतना विशाल प्रसार किया गया
पछड़ी ५ (द)
अवतरित होता है। उसने की रचना की एक चारो को स्वर र ताद्वासर नाम से उन्हें विभूषित किया।
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