सुन्दरकाण्ड PDF : गोस्वामी तुलसीदास द्वारा मुफ्त हिंदी पीडीऍफ़ पुस्तक | Sundar Kand PDF : by Goswami Tulsidas Free Hindi PDF Book

सुन्दरकाण्ड PDF | Sundar Kand In Hindi PDF Book Free Download
सुन्दरकाण्ड PDF | Sundar Kand PDF in Hindi PDF डाउनलोड लिंक लेख में उपलब्ध है, download PDF of सुन्दरकाण्ड
पुस्तक का नाम / Name of Book | सुन्दरकाण्ड PDF / Sundar Kand PDF |
लेखक / Writer | गोस्वामी तुलसीदास / Goswami Tulsidas |
पुस्तक की भाषा / Book by Language | हिंदी / Hindi |
पुस्तक का साइज़ / Book by Size | 4.5 MB |
कुल पृष्ठ / Total Pages | 154 |
पीडीऍफ़ श्रेणी / PDF Category | धार्मिक / Religious , हिंदू / Hinduism , पौराणिक / Mythological |
डाउनलोड / Download | Click Here |
आप सभी पाठकगण को बधाई हो, आप जो पुस्तक सर्च कर रहे हो आज आपको प्राप्त हो जायेगी हम ऐसी आशा करते है आप सुन्दरकाण्ड PDF मुफ्त हिंदी पीडीऍफ़ पुस्तक डाउनलोड करें | डाउनलोड लिंक निचे दिया गया है , PDF डाउनलोड करने के बाद उसे आप अपने कंप्यूटर या मोबाईल में सेव कर सकते है , और सम्पूर्ण अध्ययन कर सकते है | हम आपके लिए आशा करते है कि आप अपने ज्ञान के सागर में बढ़ोतरी करते रहे , आपको हमारा यह प्रयास कैसा लगा हमें जरूर साझा कीजिये |
आप यह पुस्तक pdfbank.in पर निःशुल्क पढ़ें अथवा डाउनलोड करें
नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके आप Sundar Kand PDF / सुन्दरकाण्ड PDF डाउनलोड कर सकते हैं।
यहाँ क्लिक करें – सुन्दरकाण्ड PDF मुफ्त हिंदी पीडीऍफ़ पुस्तक डाउनलोड करें
सुन्दरकाण्ड PDF | Sundar Kand PDF in Hindi
सुन्दरकाण्ड PDF पुस्तक का एक मशीनी अंश
यह अंश मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियाँ संभव हैं, इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये |
सुन्दर काणड
शार्सा शारयत्रमग्रमेषमन्थ निर्धाणशान्तिग्रई
पष्ाशस्भुफणोस्द्रसेग्पमनिश येदास्तवेय विमुम ।
रामाश्य बगदोरुपर सुस्गुरा सायाप्रजुष्यं हरि
पन्दे5४्‘ फदगाढर रघुवर भूपालचूनामणिम् ॥
नित्य, शान्त, अपार, पापरह्टित, मोत्त तथा शान्ति के देने वाले, भ्रद्मा मंद्ादेव जी और शेपताग से सेवित्त, वेदान्त द्वारा जानने योग्य; व्यापक, रामनाम बाले संसार के खामी, जो देवताओं के भी प्ृत्य हैं और अपनी माया द्वारा मनुष्य रूप धारण फरने वाले सालान भगवान हे; जो रघुकुल में शेष, करुणा के करने वाले और राजाओं के शिरोमृपण हैं, उनको में प्रणाम करता हूँ!
मास्या स्पुद्ा रघुपते एयेड्स्मदोये सम्यंबदामिच भवानसिन्ञान्तराष्मा ।
भक्ति प्रयष्ट् रघुएंगव मिर्भरा से फामादिदोपरद्दित कुरु सानसे च॥
हे खुकल के स्वामी; मेरे हृदय में कोई दूसरी इच्छा नहीं है, यद में सत्य कहता हँ-“और आपतो सब के अन्त्यासी है–अुे अपनी केवल पूर्ण भक्ति दीजिए और मेरे मन को काम आदि दोषों से रहित कीजिए । ( बस, यही मेरी इच्छा है | )
भतुल्ितबलघारम स्वर्णशैक्ञाभदेहं दसुजवनकृशाशु शानिनामग्रगशयम्।
सकलगुणनिधान वानराणमधीश‘ रघुपतिवरदूत चातजात॑ नमामि ॥
जो अपार बल के आगार हैं, जिनके शरीर की कान्ति सुवर्ण के पे ( सुमेरु ) की कान्ति के समान है; जो राज्षसरूपी वन के लिए अग्नि के समान है, ज्ञानियों में जो अग्रणी हैं, तमाम गुणों
की जो निधि हैं, उन बानरों के अधीश्वर तथा श्रीरामचन्द्र जी के औष्ठ दूत पवनपुत्र ( हनुमान् जी ) को में प्रणाम करता हूँ ।
जामवन््त के बचन सुध्दाये । सुनि हनुमन्त हृदय भ्रति भागे |
श्रीहनुमान् जी तथा अन्य वानरगण समुद्रतट पर वैठकर श्री सीता जी की खोज के लिये तरह तरह के उपाय सोच रहे हैं। उस समय जाम्बवान् ने श्रीहुमान् जी से कहा कि तुम्हारे समान बल-चुद्धि में कोई नहीं है । तुम्ही समुद्र लांघकर जाओ और सीता जी का पता लगाकर श्रीरामचन्द्र जी को समाचार दो । फिर श्री रामचन्द्र जी अपने वाहुबल से रावण का वधकर सोता जी को ‘हे आएँगे। उसके बाद का प्रसंग सुन्दर काण्ड में आरम्म होता है।
सुहयये–शोमित, अच्छे लगने बाले, मनोहर ।
जास्ववान् के सुन्दर वचन सुनकर हनुमान जी को हृदय में
जेवनिधि रघु-पति-दूत विचारी | ते मैंनाक ऐोएि श्रमदांरी ।
जलनिधि–जल की निधि या खजाना, ( तल्युरुप समास )
समुद्र । अंमहारी–अम, अथात्त थकान का हरेने वाला ( तसुं5 )
तैं–तू, कहीं कहीं इसके खान में कह पाठ है. ।
समुद्र ने हनुमान जी को रामचन्द्र जी का दंत समम कर ( मैनाक पर्वत से कहा कि ) “हे मैनाक, तू हनुमान जी की थकान को दूर कर |”
इनूमान तेद्दि परसा, कर पुनि कीन्द प्रनाम ।
शमकाञ फीन््हे धिता, मोट़ि कहाँ विसाम ॥
तेहि–उसकों | परसा-रपर्श किया; छूआ। कर–हाथ ।
पुनि–पुनः, फिर । रामकाज–रामकार्य (त्त्पु० ) मोहि-मुमकों।
विस्लाम–विश्रास ।
( समुद्र के कहने से मैनाक ऊपर को उठगया लिससे हनुमान जी उसपर बैठकर थोड़ीदेर आराम कर सकें । तब हनुमान जी ने ) उसे अपने हाथ से छूआ ओर फिर उसे प्रणाम क्रिया। ( तदनन्तर उन्होंने कहा कि ) “रामचन्द्र जी का काम जब तक पूरा न कर लूँ तव तक मुझे आराम करने का कहो अवसर है ?!
जात पवनसुत देवन्द देखा। जानरइ कफहुँ बल-बुद्धि-विसेशा |
सुरसा चाम श्रह्चिन कै माता । पठ़नि काट कहा तेटि खाता !
कक अधिक ( ता )। जानइ कहुँ–जानने के
अहिन “सपे को। पठइन्हि–अस्थापिता, भेजा।
बाता–चबाता ।
देवताओं ने वायुपुत्र हनुमान जी को कक विश देखा। उन्होंने हनुमान् जी की बल-बुद्धि की विशेषता जानमे बल क के लिए सर्पी की साता को, जिसका नाम सुरसा था; भेजा | उसने ( हनुमान जी के पास पहुँच फर यह ) बात कही–
भाव सुरन मोदि दीनद अह्रारा। सुनते यचन कह पयनकुमार।।
अठदारा–मआदार भोजन |
#आज देवताओं ने मुके भोजन दिया है. ।” यह वात सुनकर गनुमानजी घोले– रामकांश हरि
फिरि में भायठों । सोता के सुधि प्रभुष्ठि सुनावठं ।
तथ तते यदन पैडिहरडं धाई । सर्व फट मोद्दि जान दे माई ।
फिरि आव् –लौीट आऊँ। सुधि–शोध, ख़बर, समाचार |
तब–तेरा। बदने–वदन, मुख । पेठिह्ड—
अवेश कर लगा, बैठ जाऊँगा ।
“रामचन्द्रजी का कार्य करके जौट आऊँ और सीता जी का समाचार अपने खामी ( रामचन्द्र जी ) को दे आऊँ। उसके बाद में तेरे मुख में ( स्वयंद्दी ) आ चैठगा । में सच कहता हूं, माता,
मुझ जान दे ।
कानेह उनमे देश नहिं जाना। ग्रससि ने मोदि कहेठ हलुमाता ।
फवनेट–फिसी भी । जतन–यत्र, युक्ति | प्रससि–( ग्रस
धात का वर्तमान में मध्यम पुरुष एक वचन का रूप ) निगलना ।
( हनुमान, जी की तरह तरह की युक्तियां देने पर भी ) किसी भी प्रकार वह उसको नहीं जाने देंती ( थी ) | हतुमाव जी ने कहा
/जुके न् क्यों नहीं खाती ? ( अथवा, मुर्क मत खा 97
झोजन भरि तेहि बदलु पारा | फाँप तनु कौन्द्र हु-मुनन-विस्वारा॥
सोरह जोगन सुख सेदि ठयठ । तुरत प्रनसुत बत्तिस भय ॥
क्षस रस सुरसा यदनु यदावा । तासु दून कपि रूप देखाबा॥
सत जोनन तेदि धानन कीसा । शति-जपु-हुप पयन्सुत झीन््हा ॥
ब्रदुन पहढि पुनि छाहेर श्रावा। संसा विदा साहि सिद नाथा के
जोजन–योजन, चारकोस । पसारा-प्रसार, प्रैलाया ।
हुगुन-ध्िगुण,दोगुना | विस्तारा–फलावा | ठबऊ–खिन, किया।
जस–बथा। बृन–व्युण । सत-ह्वत, लो। आनन–मुख
पइठि–प्रविष्ट, प्रवेश करके। पुनि-युनः । बआादिस्–्यहिः ।
ताहि–इसको । नावा–नामित; भूकाया ।
उसने ( तब ) चार कोस तक अपना मुँर फैदाया। बानर ( दनुमानर्जी ) ने अपने शरीर को उससे दुगुना (आठ कोस का) फैला लिया। सुरसा से सोलह ब्ोज़न अपने मुख का विस्तार
किया। हनुमानजी उसी दंग वत्तीम बोजन के हो गए। पैसे जेंस सुरसा अपना मुख बढ़ाती गई ( देसे हां। बैसे ) ।मुमान जी ने अपना उससे ठुगुना रूप बनाकर दिखा टिया। (जब) उसने
अपना सी योजन का मुख किया (तो) एमुमान जी ने बहत छोटा सा रूप धांरण कर लिया और बह उसके मुख में अब्रेश करके फिर बाहर आगए। उन्होंने जाने के लिए उससे आधा मोगी
ओर सिर नवा कर प्रणाम किया।
साहि सुरूद जेहि लागि पद्मवा । घुधि-पल्-मर्मु तोर में पाया ॥
राम-राछु सथ फरिएटहु, तुम बढ-पुद्धि-निधान |
भ्रासिष देह गई सो, दरपि घ्छेड एनुमान ॥
जहि लागि–जिस लिए । पठावा-अल्थापित, भेजा !
बुधि–बुद्धि । मरमु–मर्भ, रहस्य, असलियत | तोर–मुर्द्यारा ।
पावा-आप्त किया । निवान-खजाना। आखिप–आरि
आशीवाद | हरसि–हप॑, प्रसन्न होकर । हि
(छुरसा ने फह्ा) ‘मुके जिस लिए देवताओं ने भेजा था; सो मैने तुम्दारे बल ओर बुद्धि की असलियत माहछूम कर ली । तुम रामचन्द्र जी फे सब्र कायो फो पूरा करोंगे। तुम वल ओर बुद्धि
का सज्षाना हो |! यह आशीवाद देकर बह गई और हनुमान जी प्रसन्न होफर ( वहाँ से ) चले ।
निहियारि पुछम्िस्शु सह्५यँ रदई। फरि साथा नभके खग गएद॥
जीव जनतु थे गगन उद्ादी। जल विज्ञोकि तिन््द के परिद्ठा्टी ॥
गहद एुहि सफ सो ने उड़ाई एट्रि विधि सदा गंगनचर खाई ॥|
निश्चिचर–निश्चिचर, रात में फिरन वाला, रात्स | माया–
झादू | नमभ–झ्ाकाश | ख़ग-पत्नी । गहई–(परह धातु से बना)
पकड़ लेता था। गगन–आफाश | विज्ञोकि–देंखकर | परि
छाद्ी–परिन्छाया, प्रतिच्छाया, द्ोट्ट, साया।
एंट्रि विधि – इस प्रफार । गगनचर–आकाश में चलने वाले, पत्ती । खाई— खादति; सा लेता था | समुद्र में एफ राज्ञल झता था वह अपने जादू द्वारा आकाश के पत्तियों को पकड़ लेता था | जो कोई भी जीव जन्तु आकाश में घड़ते थ, जल फे ऊपर उनकी परछाई‘ को देखकर वह उस परदाई को पकड़ लता जिससे पत्ती उड़ नहीं पाता था। इस भाँति वह हमेशा आकाश के पत्तियों फो खालिया करता था |
सोद एल एनूमान फट्ट‘ कीन्द्रा । तासु फाद कपि तुरतदि चीन्हा ॥
ताहि सारि सास्मसुन बीरा | बारिधि-पार गयठ मविधोरा ॥
छल–क्रपट । चीन्हा–पद्चान लिया। मारुतसुत–वायु
का पुत्र (तत्पु० समास) इलुमान् जी | वारिधि–वारिध, समुद्र ।
मति-धीरा–मति में धीर (तत्यु०), धीर बुद्धि वाले। वृद्दी छल उसने दुमाव् जी से किया। हलुमाच्जी नेउसकी चालाकी फ़ौरन पहचान ली। वीर हनुमान जी उसे मार कर धीर
मति से समुद्र के पार पहुँचें।…
शो जाइ देखी वन सोभा। गुंजत चघंचरीक सहु-क्कोभा ॥
नाना तरु फल फूल सुद्दाये | खग-स्ग-इन्द देखि मन आये ॥
सोभा–शोभा | गुजत–गुँजार करते थे | चंचरीक–
भौरे | मद-लोभा–पुष्पएस अथोत् शहद के लोभ से (तत्पु०)।
नाना–बहुत से | तरु–ध्ृक्ष। बूंद–समृह | खगनसूग-बूंद–
पत्तियों और मगों (इन) के समूह (पत्यु०) | भाये–अच्छे मालूम
हुए, पसन्द आये ।
:वहाँ पहुँच कर उन्होंने वत की शोभा को देखा। यहाँ मधु के लालच से भोरे गुआार कर रहे थे और तरह तरह के वृत्त, फल, फूल आदि शोभायसान थे । वहाँ पक्तियों और झृगों के मुँड बड़े अच्छे मालूम होते थे।
सैल विसाल देखि एक आगे | तापर घाट चढ़ेड भय रयागे ॥
उमा न कछु कपि के अधिकाई । प्रशु-अताप जो कात्दि खाई ॥
सैल-रौल, पहाड़ | विसाल–विशाल, बड़ा । धाइ–दौड़
कर। अथ त्यागे–डर छोड़ कर | उमा–पावेती | अधिकाई–
बड़ाई, विशेषता । प्रभु-अताप–प्रभु ( रामचन्द्र जी ) का प्रताप
: ( हनुमान जी ) सामने एक बढ़ा पेत देखकर और भय त्याग कर, दौड़कर, उस पर चढ़ गए।( शिव जी पार्वती जी से कहते हैं कि ) “हे उम्रा, इसमें हलुमान् जी का कोई बढ़प्पन नहीं है। यह सब भगवान का प्रताप है ( अथात् यह सय उन्होंने भगवान् फे प्रतांप से किया ) जो सृत्यु तक को खा जाता है।
गिरि पर नि ज्ंका तेहि देखी | फट्टि न जाद प्रति दुर्ग विसेखी ॥
फ्ति उत्तम जरा: पिष प्रासा | फनककार फर परम प्रकांसो ॥
सेहि–उसने । अति–बहुत, बड़ा । दुगं–अगम्य, किला |
डतम–उत्तुझ्ु, ऊ था। पासा–पाएव, समीप में । कलककोट–
साने फा कोट ( नत्पयु०) या हुगे अथवा चहारदीवारी |
पहाए पर चढ़े कर इनुसान जी ने लंका को देखा। वह विशेष रूप से अति अगम्य थी ( अथवा उसका किला बहुत बड़ा था ) जिसका बसन नहीं किया ज्ञा सकता । कोट बहुत ऊँचा था शरीर उसके आस-पास (अथांत चारों ओर ) समुद्र था। इस सोने के बने हुए फेट का बहुत प्रकाश हो रहा था (अथोत्त् बह खूब चमक रदा था)!
फ्मक फॉट पिधिश्न सनिज्षत सुन्दरायतना घना।
चटाट् हट सुपट्ट भी चाद पुर पहुँ्रिधि बनाता
शासयासि सध्घर निफर पदचर रधयरूबनिह को गनहू ।
शहमप निम्िधान्यूय प्रतिबन सेन यरनत नि बनह ॥
मनि-मणि | आयतन–मकान, भवन । चउहट्न—चतु-
प्पथ, चौराह्य | हटू–द्वाद, बाज़ार। सुब्रद्न–सड़के | वीथी–
बीधि, गली । चार–सुन्दर। पुर-तगर।| वहुविधि–तरह
तरह का । गज–हाथी | बाजि–घोड़े। निकर–समूह । पद-
चर–पैदल । बसूथ–समृह । फोगनइ–कान गिने। जूथ–
यूथ, समृह | सेन–सेना |
सोने का बना हथा वह कोट तरह तरह की मणियों से जड़ा हुआ था | उसमें सुन्दर सुन्दर भवन थे। अनेक म्रकार से सुन्दरतासे वना हुआ वह नगर सुन्दर चौराहे, वाजार, सड़कों और गलियों से युक्त था। वहाँ के हाथी; घोड़े, खच्चरों तथा पेंदल सैनिक व रथों के समूहों की कोन गणना कर सकता हैं. ! ओर न वहाँ के तरह तरह के रूप आकृति वाले राज्षसों के समुदाय तथा वलशाली सेना का ही वर्णन किया जा सकता है ।
बन बाय उपबन बाटिका सर कूप वापी सोधहीं।
सानजाग-सुरनान्धवं-क्या-छुप मुनि-मन मोहदी ॥
पहुँ मश्ठ देह विम्ताल सेल-समान ध्तियक्ष गजडीं ॥
नाना अखारेन्दर भिरहि‘ बहुदिधि एफ एकर्द तजंदीं ॥
उपवन-वर्गीचा । वाटिका–अगीचियोँ । सर–तालाव |
बापी–वाबड़ी | विसाल–विशाल, बढ़ा। अखारेन्द–अखाड़ों
में । तजेहीं-ललकारते थे, डाठतें थे । नरनागसुरगंवव
( इन्द )–कन्या (तत्पु०)–हूप (तत्युरुप)।
उस नगर में वन, बाग, उपवन, वाटिका; तालाब, कुण और वावड़ियाँ शोभायमान थीं। वहाँ पर मनुष्य, नाग, देवता तथा गंध जाति की कन्याओं के रूप मुनियों के सन को मोहने वाले थे। कहीं कहीं पर पवत के समान विशाल शरीर घाले और बड़े बलशाली महयोद्धा गरज रहे थे और अनेक अखाड़ों में एक दूसरे से बहुत कार (के दावपेच) से भिड़ कर एक दूसरे को ललकार रहे थे।
करिमतन भटकोटिन्द विकटतन नगर घहुँदिसि रच्दहों |
कि मद्दिप माजुष घेचु खर झत खल निम्ताचर भष्डदी ॥
एूहि लागि तुलसीदास इन्दको कथा कछुयक है कही ।
रघुपीर-सर-तारय सरीरन्द्रि ्थागि गति पहहुदि सही ॥
जतन–चज्न, उपाय । विकेटतनु–विकट है. शरीर जिनका
(वहु०), भयंकर शरीर वाले । घहुँदिसि–चतुर्दिक, चारों ओर ।
रूछही-रक्ता कर रो हैं। महिष–भैंसा। मानुप–सनुप्य ।
धेनु–भाय । खर-ञाथा | अज–ब्रकरा । खल निसाचर–टुष्ट
राक्षम्त | भच्छी-खारो हैं । एहि लागि–इस लिए।
फछुयछ–मुछ, थोड़ा बहुत । सर–तालाव, अथवा शर, बाण ।
ऐ–ठीक, अन््छी ।
करोड़ो विकट आऊहृतिवाले योद्धा नगर की चारों ओर से रज़ा फर रहें थ। कहीं पर दुष्ट निशाचर भेंसा आदिका भोजन फर रहे थे | नुगसीदाल ने यहा पर इनका धोड़ा-चहुत वणुन
इस लिये कर दिया हू कि ये सब श्रीरामचन्द्र जी के वाणरूपी तालाब के तीथ पर अपने अपने शरीर त्याग कर झुभ गति पाने बाले है
अलेकार– रुबीर-सर-तीरथ‘ में श्लप और रूपक |
पुर रखपारे देशि यहु, फपि सन फीर्द विचार ।
अति कघु रूप घरठ‘ निसि, नगर फरउ‘ पइसार ॥
पुररखवारें–नगर के रक्तक (तत्पु)) | लघु–छोटा ।
निसि–रात में । पहसार–असार, प्रतरेश |
बहत से नगर-रक्षकों फो (अथवा, नगर से बहुत से रक्तको को ) देख कर इतुमान जी ने मन में सोचा कि, “रात के समय बहुत छोटा रूप धारण करके नगर में अवेश करूँगा ।?
मप्तक सझोन रूप कपि धरी। लंकद्दि चलेठ सुमिरि नरहरी॥
नाम जंकिनी एक निश्चिचरी । सो फट्ट घलेसि भोहि निन््दरी ॥
जानेदि नहीं मरम सठ मारा। भोर भद्दार जर्था लगि चोरा ॥
मसक-सशक, मच्छर। नरूरि-नस्लपी भगवान श्रीरास-
चन्द्र जी । निन्द्री–निरादर कर के। सठ-शठ। आहार–
भोजन | जहाँ लगि–जहाँ तक, जितने | ४
(रात्रि में) हसुमार् जी मच्छुर के समान अति छोटा रूप धारण करके और श्रीरामचन्द्र जी का स्मरण करके लंका के भीतर चले | (नगर के द्वार पर) लंकिनी नाम की एक रा्तसी ने उन
से कहा, “तू मेरा निरादर करके चला जा रहा है ! है धूते, तू मेरा मम नहीं जानता (अथोन्त् यह नहीं जानता कि में कोन हूँ और मेरी कैसी शक्ति है)। जिनमे भी चोर हैं वे सब मेरे भोजन हैं। (तू चोरी से जा रहा है, अतण्व में तुके भी खा लगी
झुठिका एक सहाकपि 8नों । रुघिर बमत घेरनी ठन सनी ॥
पुनि संभार उठी सो लंका।जोरि पानि कर घिनव स्का ॥
मुठिका–मुप्ठिका, घूँसा। हनी–मारा। चमत–उगलती
हुई । धरणी–प्रथ्यी । ठतमनी–छुदक गई। संभार–सैंमल
कर | पाति–पाणि, हाथ | सशंका–डरती हुई |
देलुमान् जी ने उसको एक भारी घूं सा मारा ( जिससे ) वह मुँह से खून उगलती हुई प्रथ्वी पर छुड़क पड़ी । फिर लंका पुनः सँभाल कर उठी और भयभीत होकर हाथ जोड़ कर विनती
करने लगी |
जब रावनहि महा चर दीन्हा | चलत विरंचि कहा सोहि चीन्हा ॥
विकल होसि तें कपि के सारे। तव जानेसु निस्चिचर संघारे ५
तात सोर पति पुन्य वहूता। देखेऊँ नयन राम कर इता |
‘अ्य, विरंचि–अह्या । चीन्हा-चिन्ह। तैं–तू। पुन्य–
पुएय । वहूता–बहुत | कर–का। तात–प्रिय, बन्धु।
(लंका बोली), “जब प्र्मा ने रावंश को बर दिया था तब चलते समय उन्होंने मुझे यह चिन्ह बताया था कि जब तू बन्दर के सारने से विकल हो जार तब तू राक्षसों का संहार हुआ सममभना। सा हैँ तात, मरा बड़ा पुएय हैं. कि मेने राम के दत का (अथात् तुस्दारा) अपनी आँखों से दशन किया ।
तात स्वग-प्रपपंश-सुज्ता, भारत चुज्लां पक झड़ ।
युल् न माह्ि समझा मिल्लि, जो सुख जय सतसद्गा ॥
अपवर्ग–मोक्ष | ठुला–ततराजू । तूल न–तुलना नहीं कर
सकता, बराबरी नहीं कर सकंता। लव–क्षणभर, ज़रा सा।
सतसंग–सत्संग, सज्जन का साथ (तत्पुरुष)।
“कै बन््धु, यदि स्वर्ग और सोज्ष दोनों के सुखों को एक साथ मिला कर तराज़ के एक पह्े में रक्खा जाए तो भी सब मित्र कर उस सुख की बराबरी नहीं कर सकते जो ज़रा से भी सत्संग
से प्राप्त होता है [-
प्रधिेश्ति नगर छीगे सथ काया । दृदूुय राखि. फोसलपुरराजा ॥
गरक् सुधा रिपु करद मिताई । गोपद सिन्धु ‘धनल सितलाई ॥
शरुभ्र सुमेर रेसुसम ताही। राम कृपा करि चितवा जाहदी ॥
अत्ति क्धुरुप धरेठ इलुमाना। पैदा नगर सुसिरि भगवाना ॥
प्रतिसि–प्रवेश करके । फोसलंपुरं-राजा–रामंचन्द्र जी
(तत्पु०) गरल–विप | सुधा–असृत । रिपु–शत्रु। सिताई–
मित्रता | गोपद–गाय का खुर। अनल–अग्नि | सितलाई–
शीतलता । ग़रुअ–शुरु, भारी । रेलु-रेणु, रज, घूल ।
चितवा–देखा । पेठा–प्रविप्ट | सुमिरि–स्सरण करके ।
“आप अपने हृदय में अयोध्या के. स्वामी श्री . रामचन्द्र जी का ध्यान करते हुए नगंर में प्रवेश करके सब कांये सिद्ध कीजिये ।(रामचन्द्र जी के प्रताप से) विष अमृत हो जाता है और शत्ब
मिन्नता करने लगता है। समुद्र गाय के खुर के समान (लॉबा जा सकता है) और अग्नि में शीतलता (पेदा हो सकती है )। रामजी कृपादृष्टि से जिसकी ओर देख लेते हैं उसके लिए विशाल सुमेर भवत भी रेणु के समान हो जाता है ।” (लंका के वचन सुनमे और उसके चले जाने के बाद) हनुमान जी ने ब्रहुत छोटा रूप धारण कर लिया और रामचन्द्र जी का स्मरण करके नगर में अवेश किया ।
मन्दिर सन्दिर भ्रत्ति कर सोधा | देखे जहँ तहँ अगनित जोधा ॥
गयठ दसानन भन्दिर माहीं। अति विचित्र कि ज्ञात सो नाहीं॥
सथन किये देखा कपि तेही | मन्दिर मोह ने दीस वैदेदी ॥
मंदिर–मकान, भवन, कक्ष । सोध–शोध, खोज । अग-
‘नितजोधा–अगरित योद्धा । दूसानन–दशआनन (मुख )
हें जिसके (बहु०); रावण | सयन–शयतन |
हनुमांन् जी ने एक एक भंवन में हँ ढ डाला। जगह जगह उन्हें ने अनगिनती योद्धा देखे। फिर वह रावण के भवन फे भीतर गए । (वह भवन) बड़ा विचित्र था जिसका वर्णन नहीं
किया जा सकता । वहाँ हनुमाच् जी ने उसे (रावण को) सोता हुआ देखा । परन्तु सकान में सीता जी नहीं दिखाई दीं।
भवन एक पुनि दीख सुद्दावा। हरिसन्दिर तहाँ पित्त यनावा ॥|
रामाथुध भरह्ठित शहद, सोभा चरनि न जाए ।
नव तुलसीऊा इन्द तह, देखि हरप कविराह ॥
नजर हरिमन्दिर–भगवान् का सन्दिर । भिन्न– ५५
‘रांमचन्द्रजी के शस्रात् । अंकित–चिन्हित । 803 कप
तदनन्तर (हनुमान जी को) एक सुन्दर मकान दिखाई दिया। उसमें अलग भगवान् का एक मन्दिर बना हुआ था। उस भवन की शोभा का वशन नहीं हो सकता । रामचन्द्र जी के शज्नात्रों के चिन्ह उसमें बने हुए थे और तुलसी वृक्षों के कुण्ड के भुएड वहाँ ‘लग रहे थे । उसे देखकर दनुमान् जी को बड़ा हप हुआ ।
ज्ंका निप्तिन्चर-निकर-निधवासा । हुए फहाँ सज्नन फर चासा ॥
मन मं तरफ फरह फपि लागा। तेही समय विभीपनु जागा।॥।
तलिकर–समृह | कर–का । तरक–तक, विचार |
हनुमान जी मन में तक करने लगे कि लिंका में तो राक्षसों के ‘समृद्द रहते है। यहाँ सजन का वास कहाँ से हुआ ९! उसी समय *विभीपषण जागा।
राम शाभ तेदि सुमिरन फीन्हा | दृदय एरप फपि सम्जन चीन्हा ॥
एृद्दि सचु हडि फरिष्टिठ पहिचानी । सा तें होह ने फारण्त हानी ॥
सुमिर्न–स्मरण । एट्टिसनु–इससे । हठि–हठपूर्वक, जब-
:ईस्ती | पहिचान–अत्यभिक्षान ।
( विभीपण ने जागकर ) ‘रास, राम” कहकर भगवान् को स्मरण किया । हनुमान जी ने हृदय में प्रसन्न होकर पहचान लिया कि यह कोई सजन हैँ. । इससे में हृठपूवंक जान-पहचान करूँगा, – क्योंकि सजन (की जान-पहचान से ) काम नहीं विगड़ सकता ।
थिप्र रूप घरि बचन सुनाये। सुनत विभीपन ठडि तहँ आये ॥
करि प्रभाम पृद्ठी कुसजाई। विप्र कहहु निजर कथा बुसाई ॥
कुसलाई–कुशलता । घुकाई–सममाकर, खुलासा करके ।
( मन में इस प्रकार सोचकर हलुमान् जी ने ) ज्राह्मण का रूप धारण कर कुछ घचन कह्दे जिन्हे सुनते ही विभीषण उठकर वहाँ आओं गए। विभीषण ने प्रणाम कंर उनसे कुशल प्रश्न पूला और कहां हे विभ्र अपना पूरा हाल-चाल सममाकर सुनाओं
की तुम्ह दरिदासन म्ँँ कोई । मोरे हृदय प्रीत्ति अति होई॥|
की तुरह राम दीन-प्रनुरागी। आयहु सोहि, करन बड़ भांगों॥)
की–किम, क्या ! दीन-अलनु रागी–दीनोंपर स्नेह रखनेबाढे।
मेरे हृदय में ( तुम्द्ारे मति ) बढ़ी श्रीति हो रही है क्या तुम भगवान् के सेवकों में से कोई हो, अथवा तुस दीनों पर अनुम्रह करने वाले ( स्वयं ) रामचन्द्र (ही) दो जो मुझे बड़भागी करने के लिए आए हो ९”
तब हनुमन्त कही सब, रामफपा निमनाम ।
सुनत जुगलतन पुल्तक मन, मगन सुमिरि गुनग्राम ॥
जुगल–युगल, दोनों | तबु–शरीर। पुलक–रोमांच।
शुनप्राम-गुणों का समूह (तत्पु०)। न्]
तदन्तर हलुमाव् जी ने रामचन्द्र जी का पूरा वृंत्तान्त और: अपना नाम सुनाया। उस समय दोनों के शरीर में रोमा हो. जे और दोनों के मन भगवान् के गुणसमूह के ध्यान में सर्ग्स गए।
सुनहु पंवनसुत रद्दनि इमारी। जिमि दसनन्दि महुँ लीस विचारी ॥
लात कवहँ मोहि जानि अनाथा । करिदृ्िं‘ कृपा भावु-कुज्ष-नाया॥|
रहनि–रंहना, रहने का ढ्ढ। दसनन्हि–दशन; दोँत।
गहूँ–में । विचारी–गरीव, असहाय। अनाथ–आश्रयंहीन
अंसहाय । भानु-कुल-ताथं–श्री रामचन्द्रजी (तत्पु०)। ।
विभीषण बोले ) है हलुसानू जी, हमारे रहन॑-सहंने सुनो। (हम यहाँ पर इसे अकार रहते है) जिस प्रक्षेर दोतों के बीच में चेचारी जीभ ( अर्थात् सदा संकट में रहते हैं )। है बन्धु, सूयेवश के स्वामी भगवान् रामचन्द्र जी मुझे निःसहाय जानकर कभी मेरे ऊपर कृपा भी करेंगे ?
तामलतनु फछु साधन नाहीं । प्रीति न पद सरोज मन सा ॥
चय मोद्दि भा भरोत्त एनुमन्ता । बत्रितु हरि कृपा मिज्षह्दि नदि‘ संता ॥
जा रघुवीर झनुआद् फीन्हा। तो मुर्ः मोदि दरसु इि दीन्हा ॥
तामस–तमोगुण से भरा हुआ, सोह आदि से युक्त।
साधन–उपाय । पद्सरोज–चरणुरूपी कमल (रूपक)। भा–
हुआ | भरोस–विश्वास । अनुभ्रह–कृपा | दरस–दर्शन ।
मरा शरीर तमोगुणसे भरा हुआ है ओर भगवान् के चरण- कमलों में मेरी भक्ति भी नहीं है, न (भगवान् के प्राप्त करने का ) कोई उपाय ( ही मेरे पास है । इसीसे ऐसा प्रश्न पूछता हूं. कि भगवान कभी कृपा भी करेंगे। परन्तु ) है हुलुसान् जी, अब मुझे विश्वास दोता है (क्रि भगवान की कृपा होगी क्योंकि आप जसे सज्जन से भेंट होना इस बात का शुभ लक्षण है) सज्जनों का समागम भी भगवान् की कृपा के बिता नहीं होता है । रामचन्द्र जी मे क्पा की है तसी तो तुमने भी मुझे हठपूवेक । (अनायास) दर्शन दिया है, ।
सुनहु विभीषन प्रमु के रीतो। करदि” सदा सेवक पर भीती॥
फहहु फवन में परम कुजीना। फषि चंचल सत्रही व्रिधि हीना ॥
प्रात छेद. » नाम हमारा; तेद्ति दिन ताहि न मिल अहारा ॥
रीति–खसाव | कवन–कोन । सवही विधि–सव.प्रकार
स | कुलीन–अच्छे चंश का |
(हनुमान जी ने कहा), हि विभोीषण, सुनो । अभ्रु रासचन्द्र जी का यह स्वभाव है कि वह अपने सेवक पर सदा प्रीति है रखते हैं। (मुझे ही देखो) कहो, में कौन से बड़े ऊँचे वंश का हूँ। जाति का बन्द्र हूं, चंचल स्वभाव है, सभी प्रकार से हीन हूं (यहाँ तक कि) जो कोई सुबह के समय हमारा नाम लेले तो. उस दिन उसे भोजन भी न मिले |–
शस में श्रथम सखा सुलु, सोहँ पर रघुबीर |
कीन्ददी कृपा सुमिरि गुन, भरे विलोचन नीर ॥
अधम–नीच । विलोचन–नेत्र । नीर–जल ।
“मुत्तो सखा ! में ऐसा अधम हूं, परन्तु मुमपर भी श्री राम- चन्द्रे जी ने कृपा की ।” (यह कहकर) श्रीरामचन्द्र जी के शुरणों का स्मरण कर उसके नेन्नों में जल सर आया।
जानतहूँ अस स्वामि विसारी | फ़िरहि‘ ते काहे नहोद्दि‘ दुखारी ॥
एहि विधि कहृदत राम-गुन-आमा । पावा भनिर्षाच्य विज्ञामा ॥
विसारी–विस्मृत करके, भूलकर । फिरहि‘–भटकते फिरते
हैं। अनिर्वाच्य–जो कहा न जा सके, अनिर्वचनीय | विसाम–
“विश्राम, शांति ।
हनुमान् जी फिर कहने लेंगे, अथवा तुलसीदास जी कहंते है कि ) “जब ऐसे (पाल) प्रमु को जानते हुए भी इसे भूलकर लोग भठकते फिरते है तो फिर बे दुखी क्यों न हों।” इस माँति रामचन्द्र जी के गुणों के समूह का स्मरण करके हनुमान् जी को ऐसी शांति आ्प्त हुई जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता।
घुनि सब कथा विभीषन कही । जेहि विधि जनकसुत्ता तहँ‘ रही |
तब हुसन्त कहा झुन्रु श्राता । देखा चहठ” ज्ञानकी माता ।
फिर जिस, प्रकार जानकी जी वहाँ रहती थीं सो सव हाल
विभीषण ने कह सुनाया । तब हनुमान जी तप कल ने कहा, “मुन्नों भाई, मैं माता जानकी जी के देखना चाहता हूं |” उब। भाई
ज़गुत्ति विभीषन सकष्े सुनाईं। चछेठ पवनसुत्र सिवा फराई ॥
करि सोड़ रूप गयठ पुनि तहर्यों । घन भसोक सीता रद जद्दवाँ ह
जुगुति–युक्ति, उपाय । सकल–सब । तहवाँ–तहाँ।
जहवाँ–जहाँ ।
विभीषण रे सीता जी से मिलने का सब उपाय सुनाया ओर हनुमान् जी विभीषण से त्रिदा छेकर चले। हनुमान् जी फिर वही (छोटासा) रूप बना छर वहाँ गये जहाँ अशोक वन में सीता जी रहती थीं ।
देखि मनहिं मई कोन प्रनामा । बैठेदि वीति जात निसि जामा॥
कुस सन्ु सीस जता एफ बेनी। जपति हृदय रघु-पति-गुन-स्रोनी ॥
मनहि महँ–मनही मन में । बेठेहि–चैठे ही बैठे । निसि
जामा–रात्रि के (चारो) याम अथांत् सारी रात । झृस–क्ृश,
दुबला | तबु-शरीर । सीस–शाप, सिर। वेनी–बेणी
चोटी । रघु-पति-गुन-भ्रेणी–रामचन्द्र जी के गुणों की श्रेणी,
रामचंद्र जी की गुणावली (तत्पु०),
हनुमान जी ने सीता जी के देख कर मनहीं मन प्रणाम किया | सीता जी के बेठे ही चेठे सारी रात बीत जाती थी। उनका शरीर दुबला हो गया था और उनके सिर पर जटा और एक चेणी थी, हृदय में रामचन्द्र जी की गशुणावली का जप करती रहती थीं |
निज पद नेन दिये मन, रामचरन भहं ज्ञीन ।
परम दुस्ली भा पवन सुत, देखि जानकी दीन ||
निज पद–अपने चरणा. में | लान-मग्न, लगा हुआ।
भा–हुआ। दीन–गरणाच, असहाय |
सीता जी अपने चरणों पर दृष्टि लगाए हुई थीं और उन्तका मन रामचन्द्र जी (के ध्यान) में मग्न था । हलुमान् जी जानकी जी के इस दीन दशा में देखकर बढ़े दुखी हुए।
स्पत्तव महँ रहा लुकाई। करद विचार फरड का भाई॥
तेहि अवसर रावन तह‘ थशआावा। संग नारि यहु किये चनावा ॥
तर पहलव महुँ–बृक्त के पत्तों में । रहा छुकाई–छिप गया।
तेहि अवसर–उसी समय | नारि–ख्लियां ।
किये वनावा– अंगार किये हुई ।
हलनुमान् जी ने अपने को वृत्त के पत्तों में छिपा लिया और सोचने लगे कि भाई, अब क्या करूँ । उसी समय रावण वहां आया | उसके साथ में वहुत सी ख्तियां थीं जो शंगार किए हुई थीं।
वहुविधि खत सोतद्दि ससुझावा | साम दाम भय भेद देखाबा ॥
कह रावन सुनु सुसुखि सयानी । सत्दोदरी श्रादि सब रानी ॥
तव अल्ुचरी करठो पन मोरा | एक बार विज्ञोकु सम ओरा॥
वहुविधि–चहुत तरह से । खल–हुप्ट ने । साम–शमनः
सममा-बुका कर शान्त करना । दाम–दसन, दवाव डालना।
भेद–चोड़ना, दो मित्रों के आपस में लड़ा देना । सामदामदरड
भेद–इन चारों उपायों का राजनीति में प्रयोग किया जाता है। कभी तो शत्रु को वश में करने के लिये उसे सममावुमा कर शांत करते हैं, कभी किसी अकार का दबाव डालते हैं, कमी उसे दृरड देते हें अथवा कभी उसके सहायकों का उससे ऋगड़ा कर!
देते ह। सुमुखी–छुन्दर मुखवाली (वहु०) | अनुचरी-पीछे
चलने वाली; दासी। पन–अण, प्रतिज्ञा | विलोकु-देखो ‘
सम ओरा–मेरी तरक् |
दुष्ट रावण ने तरह तरह से सीताजी के सममायां | उनके ः बस में करने के लिए उसने साम, दाम, भय ओर भेद, चारों उपायों का प्रयोग किया। (रावण कहने लगा), “हे सुमुखी, । सुनो, मन््दोंदरी आदि जितनी भी मेरी रानियां हैं उन सब को में ठुम्हारी दासी चना दे गा, यह भेरी प्रतित्षा &। तुम केवल एक , बार (स्नह्द दृष्टि से) मेरी ओर देख लो ।”
तून धरि भोर क्मति चैंदेही। सुमिरि भ्रवधपति परम सनेष्ठी ।
सुन दसमुत्र सयोत-प्रकासा। कपड़े कि लल्तिनो करह पिकाला॥
पसम्तमन समुक फटति जानकी ) खजल सुधि नहि रघुवीर-वान की ॥
सत्र गूने ऐरि शानेद्टि मोही। सघम निल्नज्ज जाब नहि तोही ||
दहृन–#ण, तिनका | ओट–आड़ । अवधपति–अवध के
स्वामी (तत्पु०); श्रीरामचन्द्र जी। सनेहों–स्नेही । खब्योत–
जुगुन। प्रकासा-प्रकाश, चमक | नलिनी–कमलिनी । फरइ
विद्राज्ा–त्रिकास करती £, खिलती हैं । सुधि–खबर | सूने–
शुन्य, अकेल मे | हरि आनेद्टि–चुरा लाया | मोहि–सुभका ।
निलेज्न–निलब्न, वेशम । लाज–लज्जा, शर्म । तोही–
छुझक |
सीता जी तिनके की ओट के ओर अपने अति स्नेही श्रीरामचन्द्र जी की याद करके कहती है, “रावण, सुन, कहीं जुगुन के प्रकाश से भी कमलिनी का फूल खिलता है ? (बह तो सूर्य के प्रकाश से # खिल सकता है। कहने का अभिप्राय यह हैं कि रावण जुगुन के समान है और सीतारूपी कमलिनी केवल रामरूपी स्य के श्रकाश से ही प्रफुल्लित हो सकती है)। तू अपने सन में इस बात को समझ रख | दुष्ट, तुमे रामचन्द्र जी के वाणों की खबर नहीं दे? धूते, मुके अकेले में पाकर चुरा लाया ! नीच, निलेज्ज, तुमे शर्म नहीं आती
श्रापुदि सुनि ख़बोत सम, रामदि भानु समान |
परुप बचन सुनि फादि असि, योला श्रति खिसियान ॥
भातु–सू्य । परुप–कठोर । काढ़ि–निकाल कर।
असि–तलवार | खिसियान–खिसिया कर ।|
अपने आपके जुगुनू के समान और श्रीरामचन्द जी के सूर्य के समान-ऐसे कठोर बचनों के–सुनकर रावण खिसिया गया और तलवार निकाल कर वोला–
सीता हें सत्र कृत भपसाना | फरिएड तव सिर कठिन कृपाना ॥
नाहि त सपदि माजु मम घानी | सुम्ुत्ति होत न ते जीवन हानी ॥
तें-तूने । अपमान–वेहज्ज़ती | कटिहउ –कार्टूगा । कठिन-
कठोर । छृपाना–कपाण, तलवार । त–तु, तो। सपदि-फौरन,
अभी | वाणी–बात ।
“सीता, तूने मेरा अपमान किया है| में अपनी कठोर तलवार से तेरा सिर काट छूँगा। नहीं तो, फौरन मेरी बात मान छे। अन्यथा तुझे अपने आणों से हाथ धोना पड़ेगा [”
स्वाम-सरोज-वाम-सम सुन्दर । प्रभु-मुज फरि-कर-सम दसफंघर ॥॥
सो झुज्ञ करठ कि तव असि घोरा । सुन्रु स& झस प्रमान मन भोरा ॥
स्थास–श्याम, काला या नीला | सरोज–कमल । दाम–
साला, पंक्ति। झुज–झुजा, वाहु । स्थामसरोज ( कमैधारय )
की माला ( तसु०) के समान ( तत्पु०) करि–हाथी। कर–
सूंड । करिकर–हाथी की सूंड ( तत्पु० )। दसकंधर–रावण ।
तव–सेरी। प्रमान-अ्रमाए, प्रतिज्ञा ।
सीता जी ने उत्तर दिया “है रावण, नील कमल की साला के समान सुन्दर और हाथी की सूंड के समान ( पुष्ट तथा बलवान जे ) रामचन्द्र जी की भुजाएँ हैं वे ही मेरे कण्ठ में लग सकती है या तेरी तलवार। ( अथोत मेरी गर्दन का स्पर्श रामचन्द्र जी की ही भुजाएँ कर सकती हैं, तेरी भुजाएँ नहीं। तेरी तो केवल तलवार ही मेरे कण्ठ पर लग सकती है–मुमे तेरी तलवार से ग्देन कटवाना खोकार है परन्तु तेरी भुजाओं का आलिंगन नहीं, यह मेरे मन की ( हृढ़ ) प्रतिज्ला हैं ।
चन्वरह्याम हुरु मम परिताप॑ । रघुपति-विरद-धनक्ष-पंज्ञातं ॥
सीतज निम्चित बहसि बरधारा ) कट्ट सीता हरु मर हुखभारा ॥
चन्द्रह्यत–चन्द्रमा की हँसी अथान फान्ति के समान कान्ति
8 जिसकी ( बहु) रावण की तलवार ।हरु–दूर कर । परितापं–
दुःख का। विरह–वियोग । अनल–अप्नि | संजात॑ं–उत्पन्न हुआ।
रुपति. .. संजातं–रामचन्द्रजी के विरहरूपी अप्निसे उत्पन्न हुआ
(तत्यु० ) | सीतल-शीतल, ठंडा । निसित-निशित, तेज । वहसि-
( संम्कृतवद धातु का वर्तमात काल का रूप ) धारण करता है.
बर–श्रेष्ठ मम–मेरा। हुखभारा–दुःख का भार था वोक (तु ०) । ५हे चन्द्रहास, श्रीरामचन्द्र जी की वियोगाप्रि से पैदा हुए मेरे दुख के दर कर। तेरी श्रेष्ट धार ठडी ( अथात् कठोर या निरदेय ) और तेज है. ( इसलिए तेरे लिए यह् क्राम कठिन नहीं )।” सीताजी कहती हैं कि “(हे चन्द्रह्मस, में दुःख के बोझ स दब रही हैँ ), तू मेरे इस दुःख के बोस के दूर कर !”
सुनत चचन घुनि मारत धावा। सयतनया कहि नीति छुझावा ॥
कद्देसि सकक्ष निसिचरिन्ह बोजाई | सीचद्दि चहुविधि आसहु जाईं॥
मास दिवलस महँ कहा नमाना। तौ मैं सारव काढ़ि कृपाना॥
पुनि–फिर ।धावा–दौड़ा। सयतनया–सयनासक राक्षस की
पुत्री ( त्पु० ) मन्दोदरी । बुकावा–सममाया | सकेल-सव।
निसिचरिन्ह–राज्षसियों को | त्रासहु-डराओ। जाई–जाकर।
मास-दिवस महँ-एक महीने के दिनों में | मारव-सारूँगा |
सीताजी की वात सुनकर रावण उन्हें सारने के दौड़ा। (इस पर ) मन्दोदरी ने नीति की वातें कह कर उसे समझाया। ( मन्दोदरी के समझाने पर रावण वहाँ से चला गया ओर ) वमास राज्सियों को बुलाकर उनसे बोला, “ठुम लोग जाकर सीता के तरह तरह से डराओ-धमकाओ । यदि सीता ने एक महीने के भीतर भेरा कहना न माना तो में तलवार निकाल कर उसे मार दूंगा”
भवन गयड दुसकंधर, इहाँ पिलायिन्दन्बन्द ।
सीतहि‘ न्ञास देखावहि‘, धरहि‘ रूपबहु मनन््द् ॥
भवन-सकान | पिशाचिन्हबुन्द-राज्षसियों का समूह (तत्पु०) |
नत्रास–भय । सद–हीच ।
( यह कह कर ) राबण अपने घर चला गया और इधर राक्षसियाँ तरह तरह के नीच रूप धारण करके सीताजी के भय दिखाने लगीं ।
ज्िजट नास राक्षसी एका । राम-चरन-रति-निपुन विधेका |
सबन्होी बोलि सुनायेसि सपना । सीतहि‘ लेइ करहु हित अपना |
रति–ओेम | निपुन–निषुण, चतुर ।रामचरन रति लिपुन–
राम के चरणों की रति सें /निपुण (तत्यु०) बिवेक–ज्ञान
विचार शीलता | सबन्हो–सवको । सेइ–सेवा करके *
कण ( सेव् धातु का पूवकालिक रूप ) हित-भलाई । सपना-सखप्त ।
(उन राक्षसियों में) एक त्रिजटा नाम की राक्गसी थी जिसका ‘ रामचन्द्र जी के चरणों में वड़ा प्रेम था और जो बड़ी ज्ञानमती थी। उसने सब राक्षसियों को बुलाकर अपना सुपना सुनाया / और कहा, “सीता जी की सेवा करके अपनी सलाई करो”।
रूपने बानर लड्ढा जारी। जातुधान-सेना सब सारी ॥
खर-आरूढ़ नमन दससीसा । सुंढित-सिर खंडित-भुज-बीसा ॥
‘. जातुधान–थातुधान, राक्षस । खर-गधा। आरूढ्र–चढ़ा
, हुआ | खरआरूढ़ ( तछछु० ) नगन–नप्त, नंगा । दससीस–द्श
‘ शीर्ष ( सिर ) हैं जिसके ( वहु० ) मुंडित सिए-जिसका सिर मुँडा
‘ हुआ है ( बहु० )। खंडित सुजबीसा–कटी हुई हैं वीसों झुजाएँ
जिसंकी (वहु० ) | “मुपने में ( मैने देखा है. कि )
एक बन्द्र में तमाम लंका के जला दिया है ओर तमाम राक्षसों की सेना भारी गई है; रावण नंगा गधे के ऊपर चढ़ा हुआ है, उसके सिर मुडे हुए हैं और उसकी दीसों भुजाएँ कटी हुई हैं ।
एएि बिधि से दच्छिन दिसि जाई | लक्ढा मनहुँ विभीषन पाई ॥
. नयरफिरी रघुवीर-दोहाई । तथ प्रभु सीता बोलि पढाई ॥
यह सपना में कह पुकारी | होहृददि लत्य गये दिन चारी॥।
सो-सः वह । दच्छिन-दक्षिण | दिसि (संस्कृत दिक् शब्द
का अधिकरण कारक में रूप )दिशा में । मनहु–मानों ।
बोलि पठाई–घुला भेजी । होइहि–होगा । गये–बीतने पर ।
इस रूप में रावण दक्षिण दिशा की ओर जारहा है और लंका मानो विभीषण को मिल गई है। नगर में रामचन्द्र जी की दुह्ई फिर गई हैऔर उसके बाद प्रभु रामचन्द्रजी नेसीता को बुला भेजा झुन्दर का है। चार दिन बीतते ही यह सपना सत्य हो जाएगा) इस व को मैं पुकार कर ( अर्थात् जोर देकर ) कहे देती हैं ।”
तासु अचन सुनि ते सब ढरों । जनकन्सुता के चरनन्हि परों॥
तामु–उसका ! तै–वे । चरनन्हि–चरणों में। हे
त्रिजठा की वात सुन कर वे सब भयभीत हो गई श्ौ
(त्ञमा के लिए) श्री सीता जी के चरणों में गिर पड़ी |
जहँ तहँ गई सकल तब,सीता फर मन सोच ।
मासदिवस बीते मोहि, मारिह्टि निसिचर प्रोच ॥|
कर–के । पोचु–हुए, नीच ।
तदनन्तर सब पिशाचिनियाँ जहाँ-तहाँ चली गई और सीत जी के मन में सोच होने लगा कि, “महीने के (तीस) दिन बीठः पर दुष्ट राक्तस मुझे मार डालेगा ।”
ब्रिजटा सन बोज्ी कर जोरी। सातु विपति-संग्रेनि लें भोरी ॥
दम् देह कह वेगि उपाई । दुस॒द विरह अब नहि‘ सहि जाईं॥
थ्रानि काठ रचु चिता बनाई । सातु अनत्न एुनि देहि लगाई।॥
सत्य करद्दि मम श्रीति सयानी । सुनहू के सवन सूलसस बानी ॥
सन-से। कर जोरी-हाथ जोड़ कर | विपति-संगिन्ति–
दुःख की सांधिनि (तलु०। तैं–तू | देह–शरीर। वेगि–
शीघ्रता करके, जल्दी से | हुसह–कठितता से सहने योग्य; जो
मुश्किल से सहा जा सके | आनि–आनीय, लाकर । काठ–का?8
लकड़ी । रचु–वंना । सयानी–सल्ञान (स्री०), चतुर | सवन–
श्रवण, कानों से | सूल–शूल
सीता जी हाथ जोड़ कर त्रिजटा से बोलीं, “हे | जी हा माता; त मेरी ‘विपत्ति की साथिन है। में अब अपना शरीर ्ती हैं छोड़ना चाहती हूँ क्योंकि रामचन्द्र जी का यह दुःसह वियोग मुझसे नहीं सहा जाता। (अतः) तुम अब जल्दी से उपाय करो और लकड़ी लाकर मेरे लिए चिता वना दो, तदनन्तर उसमें अग्नि लगा देना । हे चतुर, तुम मेरे प्रति अपनी प्रीति को (इस प्रकार) सत्य (प्रमाशित) करो । रावण के इन शूल के समान (कष्ट देने वाले) शब्दों की कौन सुना करे (अथोत् मुमसे अब ये शब्द नहीं सुने जाते) |”
सुनन बचन पद गष्टि समुकायेसि | प्रभु-प्रताप-यल-सुनस सुनायेसि ॥
निम्ति नश्चनल मिलु सुन सुकमारी | धस कहि सो निजरभवन सिधौरी ॥
पद गहि-पैर पकड़ कर। सुजस–सुयश | प्रताप बल
सुजस (द्न्द्) । प्रभु (का) अत्ाप वल सुजस (तत्पु०)। निसि–
रात में | अनल–अग्नि ।
(सीता जी के ये बचन सुन कर त्रिजटा ने) उनके चरण पकड़ कर उन्हें सममाया और (थैय चँंधाने के लिए) रामचन्द्रजी के प्रताप, चल और उनकी कीति को सुनाया। उसने कहा, धमुत्रि में अग्ति नहीं मिलेगी” और यह कह कर वह अपने घर चली गई ।
कह सीता विधि भा प्रतिकूला । मिक्तिद्दि न परावक मिटिहि न सू्ा ||
देखियत प्रगट गगन भरद्भारा। भ्वनि न आवत एकउठ तारा॥
पावकर्मय ससि सूचत न झ्रागी | सानहु सोहि जानि हतभागी ॥
सुनहि विनय म्रस विदप असोका । सत्य नाम करु इरु मम्र सोका ॥
नूतन किसलय भनक्ष समाना। देहि अगिनि जनि करहि निदाना ॥
विधि–तह्या । भा–हुआ। अतिकूल–विरोधी, शत्रु ।
अगट–अकट | गगन–आकाश (में) । अवनि–प्र थ्वी (पर) पावक-
सय–अग्नि से भरा हुआ | ससि–शशि, चन्द्रमा। खवति–
गिराता है। आगी–अग्नि। विटप–बक्ष । नूतत–नए |
फिसलय–कोंपल । देहि–संस्क्ृत दा धातु का आज्ञा, मध्यम
पुरुष, एक वचन का झूप। निदान–अन्त ! हे
सीता जी (अपने मन में) कहने लगीं, “त्रह्मा ही प्रतिकूल हो गया है। न तो आग ही मिलेगी, न कप्ट ही दूर होगा | आकाश में (अनेक तारारूपी) अंगारे प्रकट दिखलाई दे रहे हैँ, परन्तु प्रथ्वी पर एक भी तारा नहीं आता (जो मुझे अग्नि दे सक्रे) | अग्नि से भरा हुआ चन्द्रमा (भी) मानों झुमे भाग्यद्ीन समझे कर अग्नि नहीं गिराता | है अशोक (नाम वाले) वृक्ष, तुम्ही मेरी विनय सुनो और अपने नाम को सच्चा करके मेरेशोक को दूर करो । (अथात, अशोक–जिसस शोक न हो–ऐसा तुम्हारा सलाम हैं। अतः मेरे शोक को हरण करने से मेरे लिए तुम ‘यथा नाम तथा गुण‘ वाले सच्चे अ-शोक हो जाओगे) तुम्हारे नए नए कोंपल अग्नि के समान हैं, अतएव तुम्हीं मुझे अग्नि देकर मेरा अन्त क्यों महीं कर देते १” अलक्षार–वारों ओर चन्द्रमा में जो तेज्ञ चमक हैं सीता जी की दृष्टि में वह आग्नि के समात है और सीता जी इन दोनों पदार्थों को अग्निमय समक कर उनसे अग्नि की कामना करती हैं । अशकि इंच के नए नए लाल कॉपल भी लाल लाल आँगारों के समान दिखाई देते हैं, अतएव सीता जी उससे भी इसी हेतु प्रार्थना करती है। दिखियत.. अंगारा‘ में अतिशयोक्ति अलंकार है और पूरी पंक्ति में अतिशयोक्ति तथा रूपक का संका। ‘पावक, «आगी‘ में भी अतिशयोक्ति है और पूरी पंक्ति सें अतिशयोक्ति गमित हेतूओेक्षा । इसके आगे की पक्ति में काव्यालिंग है। ‘नूतन माना‘ में उपमा है । ५
देखि परम विरहाकुलल सीता। सो छून कपिद्दि कलप सम बीच
कपि करि हृदय विचार, दीन्हि सुद्विका डारि तब।
जनु भ्रशोक भ्रंगार, दीन्ह एरखि उठि फर रहैउ ॥
विरहाकुल–विरह् से आकुल (तत्पु०) | छुन–छण, लहमा |
‘कलप–कल्प, युग । मुद्रिका–अँगूठी । गहेउ–लिया ।
हनुमान जी के लिए, सीता जी को इस अ्रकार रामवियोग से व्यथित देख कर, वह क्षण एक युग के समान बीता (अथात् काटला कठिन होगया) । तब (इक्ष पर बैठे हुए) हलुमाव् जी ने ‘हृदय में विचार करके श्रीरामचन्द्र जो की अँगूठी ऊपर से गिरा दी । (सीता जी में समझा कि सानों उनकी प्रार्थना सुन्र कर) अशोक वृत्त ने अंगारा दिया है ओर उन्होंने हपित होकर उठकर
उसे अपने हाथ में ले लिया ।
तथ देखी सुद्विका मनोहर । राम-नाम-अंकित अश्रतति सुन्दर ॥
चकित चितव ऊुँदरी पद्चिचानी। हरप विपाद हृदय अकुलानी ॥
रामतास-अंकित–रामचन्द्र जी के नाम से अद्वित (तत्पु०)।
चक्रित–आश्रय में हो कर। चितव–देखा । हरघ–हषे।
घिपाद–शोक । अकुलानी–व्याकुल हुई ।
तब श्री सीता जी ने उस आँगूठी को देखा । उस मनोहर ओर सुन्दर अँगूठी पर रामचन्द्र जी का नाम खुदा हुआ था। उन्होंने : आश्चर्य से उस अँगूठी को देखा और पहचान लिया । उनके हृदय में हप और विपाद के भाव ( उत्पन्न ) हुए और वह ( इन भावों _ के वशीभूत हो ) अकुलाने लगीं । ु
. ज्ञीति को सकह श्रजय रघुराई | माया ते श्रस रच नहि‘ जाई ॥
सीता सन विचार फर नाना । सधुर बचन बोलेड हलुसाना॥
अजय–जिसको न जीता जा सके ।
(सीता जी को इस प्रकार भगवान् की अँगूठी पाकर आशय . हुआ कि कहीं राज्षसों ने चालाकी करके धोखा देने के लिए जादू से नकली अँगूठी तो नहीं वना ली है; परन्तु फिर उन्होंने सोचा कि), “श्रीरामचन्द्र जी तो अजेयहै, उन्हें कौन जीत सकता है (अथवा उनके साथ कौन छुल कर सकता हैं) १ ऐसी अंगूठी माया द्वारा नहीं बनाई जा सकती । ( यह वास्तव में रामचन्द्र जी
की ही अँगूठी हैं) ।” सीता जी (इस प्रकार) मन में तरह तरह के पिचार करने लगीं। उसी समय हनुमान जी मधुर वाणी में बोले ।
रामचन्द-गुन वरनह कागा.। सुनतद्वि सीता कर दुख भागा॥
ज्ञागी सुनह सवन मन लाई। श्रादिहुँ ते सब कथा सुनाई॥
रामचन्द्र-गुन–रामचन्द्र जी के गुण (तत्पु०)। बरनइ लागा
(ः न ० –सुनतेही डे
–धर्णन करने लगे। सुनतहि | सन लाई–मन लगा
कर, ध्यान से | आदिहुँ ते–आरम्भ से ही ।
हलुमान् जी न जी के शुणों का बणन करने लगे जिन्हें सुनतेही जीताजी का दुःख दूर हो गया। सीता जी (अमर की उस गुणावली को) ध्यान से कान लगा कर सुनने लगी। हलुमान् जी ने आरंभ से सब हाल कह कर सुनाया।
सवनासत जेहि कथा सुद्दाई | कही सो प्रगट होत किन भाई ॥
हु एम शिल चलि गयऊ । फिरि बैडों मन ब्रिसमय सयड ॥
.. सपनासत–अ्रवण या कानों का अमृत (तत्यु०), जो कानों
को अमृत को तरह सुख देने बाला है। जेहि–जिसने। सुदाई–
मनोहर । किउ–क्यों नहीं | निकट–पास । फिरि बैठी–मुड़ कर
बैठ गई‘ | बिसमय–विस्मय, आश्चर्य ।
(रामचन्द्र जी का हाल छुन कर सीता जी ने कहा), “जिस किसी ने यह कार्नो के असृत के समान सुख देने वाली कथा छुनाई £ वह. भाई) सामने क्यों नहीं आता। तथ हनुमान जी
उसके पास गए | (बन्द्रर हनुसान जी को देख कर) सीता जी को आमख्रय हुआ और वह मुड़ कर (दूसरी ओर को मुँह करके) बैठ गई
राम दूत में मातु जानकी। सत्य सपथ फहना निधोन फी॥
यह मुद्रिका मातु में आनी। दीन्िदि राम तुम फहँ सद्दिवानी ॥
संपथ–शपथ । तुम्ह कऑॉ–तुम्दारें लिए । सहिदानी–पहि-
चान फे लिए चिह्ठ स्वरूप |
हनुमान जी ने कहा, “हे माता जानकी जी, में दयासागर श्री रामचन्द्र जी की सथी शपथ खाता हूँ कि में उनका दूत हूँ। हैं माता, यह अँग्रूठों में लाया हूँ।रामचन्द्र जी ने इसे बतौर चिन्ह के तुम्हारे लिए दिया है. ।‘
नर बानरह्वि संग कहु फेसे | कही कथा भइ सम्तति जैसे॥
कवि के घचन सप्रेस सुनि, उपना सन विश्वास ।
जाना मन क्रम बचन यह, कृपासिन्धु कर दास ॥
नर बानरहि–नर ओर वानर का | संगति–भेट, मुलाकात,
विस्वास–विश्वास, यक्रीन। मत क्रम बचन–मन, कस और
वाणी से (लन्ड) | कृपासिन्धु–#पा के सिंधु (तत्पु०), दयासागर
जानकी जी ने पूछा; “(ठुम तो वन्दर हो और रामचन्द्र जी मनप्य । यह तो) कहो कि वन्दर और मलुप्य का संग कैसे हआ 7” तब्र हनुमान जी ने, जिस प्रकार उनका रामचन्द्र जी
के साथ समागम हुआ; सो सव कथा कह सुनाई । कपि के प्रेम पर्ण बचनों को सुन कर (या कपि के वचनों को प्रेम के साथ सुन आई कर) सीता जी को विश्वास हो गया। उन्होंने‘ जान, लिया किए: हतुमाव् जी मन, कर्म और बच से रामचन्द्र जी के सेवक हैं।ह२७
हरि-जन ज्ञानि प्रीति भ्रति बादी | सजल नयन पुक्षकावक्षि ठोढ़ी |
घुंदत विर६-बजधि. इसुमाना । भवेहु तात मोकहँ करते! ः ।
हरिजन–भगवान् का सेवक (तस्पु०) । पुलकालिं-2५
रोमाच्व। वृड़त-हृवती हुई। विरदजलधि–बिरद को सु:
(हूपक) | जलजाचा–जलयान, नौका | से 53830
हनुमान जी को रामचन्द्र जी का सेवक जान कर सीता जी. के उनके भ्रति बहुत प्रेम हुआ, उनके नयनों में जल भरं-आया: और शरीर में रोमांच हो आया (रोंगटे खड़े होगए)। वह बोली, “है तात हनुमान, विरद् के सागर में डूबती हुई मेरे लिए तुम नौका-स्वरूप हो गए (अथोत् झुके तुम्हारे आने से बड़ा सहारा,
अलंकार –दूसरो पंक्ति में रूपक है ।
अब कहु कुसल जाएं वलिद्वारी | धनुज सहित सुख-भवन खरारी ॥ *;
फोसल चित हपालु रघुराई ! कपि केहि हेतु घरी निहुरोई॥ 5
कुसल–कुशल | अनुज–छोटा भाई । सुखभवन–सुख्ी
स्थान (तत्पु०) खरारि–खर नामक राक्षस के अरि अथौत शत्रु/
(तत्पु०)। केमलचित–केमल है चित्त जिनका (बहु०) केदि
हेतु–किस कारण से | निठुराई–निष्ठुसता, कठोरता। :
“कं तुम्हारी बलिहारी जाती हूं । तुम अब छोटे भाई लक्ष्मण:
जी के सहित श्री रामचन्द्र जी का, जो सुख के धाम तथा खर.
हक शत्न् हैं, डर कहे। हे कपि, रघुनाथजी
‘तो बढ़े दयारु हृदय वाले किस से उन्होंने (मेरी
ओर से) निठुरता धारण करली १ 05७०४
सइज यानि सेयक-सुस-्दायफ। कपह़ुँ फ सरति कश्त रघुनायफ |।
कबहु नयन सम सोतल् ताता | ऐडदृष्टि निरख्धि स्थाम-मदुनगाता ॥
सहज–ल्वाभाविक | बानि–आदत । कवहुँक–कर्मी ।
सुरति-न्याद, स्मृति । स्थाम-्मदुन्गाता–श्याम और महु
गान्र १ जिनका (वहु०) स्थाम-श्याम, साँवला | मदु–कोमल ।
गात–गात्र, शरीर ।
सम्चन्द्र जी फी यह स्वाभाविक बान हैं कि वह अपने सेवक को सुख देने वाले दे । वह कभी मेरी याद भी करते हैं ! है तात; फोमल, साँवल शरीर वाले रामचन्द्र जी को देख कर कभी भेर नेत्र शीतल भी।होंगे
गच्चन मं थाय नयन भरि बारी । धहद्द नाथ हों निपट विसारी॥
देंखि परम विःहाकुछ सीता। योज्ञा फपि मुदुयचन विनीता॥
बारि–जल | नयन भरि वारी–तंत्रों मे ऑसू भर कर |
हों–में । निपट–विलकुल । बिसारी–विस्त्ृत, भुला दी गई।
विनीत–नत्र |
यह कहते कहते सीता जी से (आगे) नहीं वोला गया ओर उनके नेत्रों में जल भर आया (वह विलाप करने लगी); हा नाथ, तमने तो मुझे विलकुल भुला दिया,, | हतुमान् जी सीता जी को
इस तरह विरद्र से व्याकुल.देख कर मधुर और नम्र वाणी में कहने लगें–
सात कसल प्रभु॒भ्नुजन्समेता ।. तव दुख दुखी सुन्क्ृपा-निकेता ॥
ने जननी मानहु जिय उना | तुम्ह ते प्रेम राम के दूना॥
सु-सुल्द्र | निकेत–घर, आगार। सुन्कृपा निकेता–
कृपाके सुन्दर आगार (कमे० और तत्पु० जनि–नहीं, मत ।
माता | ऊता–कम, छोटा । जिय–जीव, दिल |
दून्ता–प्विंगुण । वर
“माता, कृपा के. आगार रुनाथ जी अपने भाई सहित
सकुशल हैं, ओर तुम्हारे दुःख से दुखी हैं। माता, तुम अपना
जी छोटा मत करो (श्रीरामचन्द्र जी के लिए) जितना तुम्हाग
प्रेम है, उससे दूना रामचन्द्र जी को (तुम्हारे लिए) है–
रघुपति कर सन्देस भव, सुन जननी धरि धीर ।
अस कट्टि कपि गद्गद भयठ, भरें विजोचन नीर ॥
रघुपतिकर-रखघुनाथ जी का । संदेश–समाचार !
धीर–बैय, धीरज । विलोचन–नेत्र ।
अब हृदय में धीरज धर कर रामचन्द्र जी का संदेश सुनो ।” ऐसा कहते कहते हनुमान् जी गदगद हो गये और उनके नेत्रों में जल भर आया ।
फहेड राम वियोग तब सीता | सो कहँ सकतत भये विपरीता॥
नव-तरुकिसलय मनहुँ कृसानू । फाल-निसा-सस निसि ससि भानू ॥
वियोग–विरह (में) विपरीत–उलटा । धक |
तरु–बुक्ष । कुसानू–कशानु, अग्नि । भान्ु ।
मनहु-सानो । निसा–रात्रि |
हनुमान् जी रामचन्द्र जी का सन्देश इस श्रकार सुनार लगे कि), “रामचन्द्र जी ने कहा है कि–(दे सीता, तुमसे अलग हो कर मेरे लिए सब ( पदार्थ के शुण ) विपरीत होगए वृत्तों के नये नये किसलय मातों अग्नि हैं। रात्रि कालराशि के समान और चन्द्रमा सूर्य के समा है, ( अथौत् चन्द्रम की शीतल चाँदनी भी मेरे लिये जलन उत्पन्न करती है )।
अलझार–उपमामूल विरोधाभास ।
कुबब्यविपिन कुस-वम-सरिसा | यारिद तपत तेक्ष जतु बरिसा ॥
जेह्ित रहे करत तेह पोरा। उरग-स्याप्त-पसम तिधिध समीरा ॥
कुबलयतिपित–कमलचन (तत्पु०) कुन्त–भाला । सरिस–
, सहश। समान । वारिद-मेंघ। तपत–तप्त, खौलता हुआ।
वरिसा–चरसाते है। हित–हितकारी, सुखदांयंक । पीरा–
पीढ़ा। कष्ट । उरग–सर्प । खास–श्रास, साँस । त्रिविध–‘
तीन तरह की अथात शीतल मन्द और सुग़न्धयुक्त | समीर–
बायु ।
“कमलों का तन (जो हमेशा हपदायक होता है अब ) भालों के घन फे समान ( दुखदायक ) मालूम होता है। बादल ( जब बरसते है तो ) मानों जलता हुआ तेल बरसाते हैं।जों ( पदार्थ पहले ) सुख देने वाले थे वे अब कष्ट देते हैं । तीन प्रकार की पवन साँप की फुंकार के समान ( जहरीली और आशणहर ) प्रतीत द्ोती हैं. ।
अलझ्टार–पूव बत् !
फहेंहु ते कछु दुश्म घटि होई। छादि कहठोँ यद्ध जान न कोई ॥
तत्व प्रेम मम शभ्ररु तोरा। जानत प्रिया एक” मन सोरा ॥
|. कहेहुते–कहने से भी। घटि दोई-कम्र हो जाता है।
काहि–किससे | तल–ममे, असलियत । एकु–एक, केवल |
“कहने से भी दुःख कुछ कम हो जाता है। परन्तु में कहूँ किससे, मेरे इस दुख को कोई समझ नहीं सकता । मेरे और तुम्हारे प्रेम के मर्म को, हे प्रिये, केवल मेरा मन ही जानता ह।
सेसन सदा रएत तोहि पाहीं | जाबु प्रीतिरस एतनेहि साह्दी ॥
प्रभु॒संदेस खुनत बैदेही ।समगन प्रेमं तन सुधि नहिं तेंहीं ॥
तोहिपाहीं–तुम्हारंपास । जानु–जानलों | एतनेहि माही–
इसनेह्दी में। तन–तञु, शरसीर। तन सुधि–शरीर की ख़बर
( तत्पु० ) | तेहि–उसके । ।
वह मन सदा तुम्हारे पास रहता है| वस इतने ही से – ( अथोत, मेरा मन हुम्हारे पास ही रहता है–इतने ही से ) तुम मेरे प्रेस्स के! सममलो” स्वामी रामचन्द्र जी का यह सन्देश सुन कर सीता जी प्रेम में मम्न हो गई‘ और उन्हें अपने शरीर की भी खबर नहीं रही ।
माह कपि हृदय भीर घर माता | सुमिरि राम सेवक-सुख-दाता ॥
उर आनहु रघु-पतिन्प्रभुताई | सुनि मम बचन तज्हु कदराई॥
सेवक सुखदाता–सेवक के सुख देने वाले (तत्यु०)। उर– हृदय । ( में )। उर आनहु–हृदय में ध्यान कीजिए । कदराई– कायरता, हृदय की कमजोरी | हनुमानजी बोले, “हे माता, हृदय में धीरज धरों और अपने सेवकों के सुख देनंवाले रामजी की याद करो। हृदय में रघुनाथ जी को महिमा का ध्यान करो ओर मेरे वचन सुनकर हृदय की . हुबंलता दूर करो | |
निसि-चर-निकर पतंगसस, रघु-पति-वानकझसानु | *
जननी हृदय घीर घर, जरे निसाचर जाजु ॥
पतंग–पतिंगा, जो दीपक शिखा के चारों ओर मँडराकर अपने प्राण दे देता है मूह पतिंगे के समान और रामचन्द्र जी के वाण अप्नि के समान हैं। माता आप हृदय में धारण कीजिए ओर रामचन्द्र जी के बाण रूपी अग्नि भें निशाचर रूपी पतिंगों के जला हुआ सममो । ( अथोत्त् जिस अकार पतिडा स्वयं ह्ठी दीपशिखा के पास पहुँच कर अपने प्राण गँवाता है, दीपक के उसके लिए फोाई प्रयत्न नहीं फरना पड़ता उसी प्रकार रामचन्द्र जी फे बाणों द्वारा अब राक्तस शीघ्र शोर अनायास ही मारे जाएँगे )—
अलझ्ार–उपम्ता और रूपक |
जौ रघुदीर प्ोति सुधि पाई। फरते नहिं यिज्ञम्यु रघुराई॥
रामग्रान रयि उसे ज्ञातफी। तम बरूधथ कहाँ जातुधान फकी।।
जौं–थदि । होति पाई–पाई होती । विलम्ध–देर । रास
पान (तत्पु५)-रवि–रामचन्द्र जी फे वाण रूपी सू्ये (रूपक) |
उये–उदित. उदय होने पर। तमवरूथ–अन्यकार का समूह
(तत्यु)–जातुधान की (का) तमवरूथ–यातुधान रूपी तम-
घरूध (रूपक) !
धयदि रामचन्द्र जी के तुम्हारी खबर मिली होती तो वह (ठम्दे छुड़ाने में) देर नहीं करते, (क्योंकि) रामचन्द्र जी के बाणरूपी सू्थ के उदय होने पर राक्षूसरूपी अन्धकार समूह फैस रह सकता है. ? (अथोन् जैसे सूथे के निकलने पर अंधकार नहीं रह सकता उसी प्रकार रामचन्द्र जी के बाखणों के सामने राक्षस नहीं रह सकते )–
छयद्दि भातु में जाठों लेवाई। प्रश्ु भायसु नहिं रामदोदाई ॥
फछुफ दिवस जननी घर घीरा । फपिन सहित भ्रद्दृइृह्दि रघुवीरा ॥
निम्चिचर मारि तोदि लेह जइ॒द॒एि । तिहुं पुर नारदादि जस गइइ॒द्वि ॥
जाई लेवाई–छे जाएँ । आयसु–आज्ञा | अइह॒हिं, जइहहिं,
गदद॒दिं–आएँगे, जाएँगे, गाएँगे। तिहँपुर–तीनोलोक ( अथोत
स्व॒गे, मत्य और पाताल ) में |
हे माता, रामचन्द्र जी की शपथ ( खाकर कहता हूँ कि ), मेँ तो तुम्दे अभी लिवाजाउ परन्तु मुझे रामचन्द्र जीने शाज्ा नहीं दी हैं। तम कुछ दिन धीरज रबलो, तन शीरामचन्द्र जे – बानरों सहित यहाँ आकर ओर रात्त्सो का मार कर तुमसे हे जाएँगे। नारद आदि मुनि तीनोलोकों में ( उनका ओर तुन्हारा ) यश गाएँग ।”
हैं सुत कपि सब तुग्गहिं समाना । जानुधान भर शत्ति मक्षवाना ॥
मेरे हृदय परम सन्देंहा ।सुनि कपि प्रगह फोस्द निमदेशा॥
भट-नयोद्धा । निज–अपना | देह–शरीर ।
श्रीसीता जी ने कहा–है पत्र, सब वन्दर तम्हारें ही समान हैं क्या मुझे तो बड़ा सन्दद् होंता हें क्योंकि रात्स लोग बढ़ योंड़ा और वलशाली हैं। यह सुनकर हनुमान जी ने अपना
( असली ) शरीर प्रकट किया ।
फरक-भूधरानफार-ःसरीरा । समर भयद्र प्रनिशल-चीरा ॥
सीता मन भरोस त्य भयऊ। पूनि लघुरूप पवनसुत लबक॥
कनक–सुवण । भूधर–पवत । कनकभ्ृघराकार–सुत्रण
पवत ( अथात् सुमेर ) के समान आकार वाला (वबहु८ )।
समर भयकर–युद्ध में भयानक । भरोसा–विश्वास | लवऊ–
धारण करलिया ।
( हनुमानजी का वह ) शरीर सुमेरु पव॑त के समान विशाल) युद्ध में भय पैदा करने वाला और बड़ा चलशाली था | उसे देख- कर सीता जी के मन में विश्वास हुआ । तव हनुमान जी ने फिर छोटा सा रूप धारण कर लिया ।
सुनु माता साखाम॒ग, नहिं बल-बुद्धि-मिसाल ।
प्रभु मताप ते गरुदइ॒हि‘, खाइपरमलघु च्याल ||
शाखामृग–वन्द्र ( अथोत् शाखाओं पर का मंग ) !
विशाल–बड़ा | गरइहिं–गरुड़ को | व्याल–स्प | गरड़ू–
एक पक्षी का नाम है जो विष्णु भगवान् को सवारी है।
( हनुमान् जी ने कहा), “हे माता, सुनो | हम लोग तो जाति के वन्दर हैं हममें न तो वड़ा वल ही है और न वड़ी वुद्धि ही । परन्तु स्वामी रामचन्द्र जी के प्रताप से (सव कुछ संभव है, हम लोग सब कुछ कर सकते हैं; क्योंकि उनका प्रताप ऐसा है कि उस के कारण ) बहुत छोटा सा सर्भे भी गरुड़ तक के खाले सकता है ( यद्यपि वास्तव में; गरड़ सर्यी! का स्वाभाविक शत्रु है और स्पा के खा जाता है )”
मन सन्तोष सुनत कपि वानी। भगति-प्रताप-तेज-बल-सानी॥
आसिप दीनिह राम प्रिय जाना। होहु तात बल-सीज-निधाना ॥
. अगति. ..सानी–भक्ति, प्रताप, तेज, और वल से सनी
हुई (तत्पु०) | आशिप–आशीवोद । निधान–खजाना |
कपि हनुमान् जी की भक्ति, प्रताप, तेज और वल से भरी हुई वाणी के सुन कर सीता जी के मन के संतोष हुआ। उन्होंने उनके रामचन्द्र जी का प्यार समझे कर आशीवांद दियां कि #है
तात, तुम वल और शील का खज़ाना वनो ।–
अजर मर गुननिधि सुत होहू। करहिं बहुत रघुनायक छोहू ॥
करहि* कृपा प्रभु अस्त सुन्ति काना । निर्भर प्रेममगन हुसाना ॥
अजरं–जिसे जरा अथात् बुढ़ापा न हो । छोहू-मेम ।
कान–कर्ण । निर्मर-अधिक, पूर्ण । शुणनिधि, प्रेममग्न
हे पुत्र; तुम अजर होओ; अमर होओ। गुर का खजाना
होओ, रामचन्द्र जी का तुम्हारे ऊपर खूब अं होवे । अमु
रामचन्द्र जी तुम्हारे ऊपर कृपा खखें।” अपने हे कानों से ऐसा . (आशीवाद सुनकर) हनुमान् जी अत्यंत प्रेमरस में मग्न हो गए
बार वार नायेसि पद सीसा। बोला बचन जोरि कर कीसा।‘ |
शव इतकृत्य भय में माता। आसिप तव अमोघ विदणाता ॥
सुनहु मातु मोहि श्रतिसय भुखा। लागि देखि सुन्दर फल रुखा॥ ..
सीस–शीर्ष, सिर । कीश–बन्दर । कृतकृत्य–सफत, .
जिस ने अपना कृत्य अथात् काये पूरा कर लिया हो (वहुब्रीहि) ।
अमोघ–अचूक । विख्यात-असिद्ध । अतिशय–वहुत ।
रूख–बक्ष ।
हनुमान् जी ने वार वार सीताजी के चरणों में सिर नवाया और बन्दर हमुमान् जी हाथ जोड़ कर बोले । “हे माता; यह प्रसिद्ध है कि तुम्हारा आशीवाद अचुक है,( भूठा नहीं होता: इससे ) में झृतकृत्य होगया। अब माता, सुनो, मुझे यहाँ बृत्तों पर सुन्दर फल लगे देखकर वड़ी भूख लग आई है ॥”
सुनु सुत करहि‘ विपिन रखवारी। परस सुभद रजनीचर भारी ॥
बिपिन–बन, बाग ।
रजनी-चर–रात्रि में फिरने वाले राक्षस । |
सीता जी ने कहा, “पुत्र, सुनो, रे वाग में बड़े बड़े राक्षस, जो बढ़े योद्धा हैं; रखवाली किया करते हैं।”
दिन््द कर भव मावामोहि ना । जो तुम्द सुखमानहुसन माही ॥
हलुभान् जी ने उत्तर दिया, “हे माता, यदि तुम अपने
बे | ( कर मुझे आज्ञा दो ) तो मुझे उनराक्षसों
देमि घुद्धि-पक्ष-निषुन फपि, फप्ठेठ ज्ञानफी जाहु ।
रघुपति रन हृदय घरि साप्त मधुर फल्ष क्षाहु ॥
निपुन–चतुर | मधुर–मौठे ।
एनुमान जी का बुद्धि और बल में चतुर देखकर जानकी जी ने यट्टा, ४ तात, जाओ आर रामचन्द्र जी के चरणों का हृदय में ध्यान घर के मीठे मीठे फलों को खाझ्ो ।” चलेट गाए सिर पेंठेड बागा। फन् सायेसि तर तोरह लागा ॥
रहे तहां धुएं भट शणबारे। कु सारेसि फछु जाय पुकारे॥
साइ–म्लुकाकर, नवाकर । तोरइ लागा–तोड़ने लगे। तहॉ–बाएं |
प्नुमान जी श्रीसीता जी के सिर नवा कर चले और बाग में पहैच । वहाँ वह फल खाने ओर वृक्षों के तोड़ने लगे | वहाँ बहुन से योद्धा रखबाले (बाग की रक्षा कर रहे ) थे। उनमें से कुछ के हनुमान जी ने मार डाला ओर कुछ ने जाकर रावण से फरियाद की कि—
नाथ एक आया फपि भारी। तेहि श्सोफ याटिका उजारी॥
छापरैमि फल अण बिटप उपारें। रण्छक मदि सर्दि महि ढारें॥
उज़ारी–नप्ट कर दिया | उपारे–उत्पादित, उखाड़े ।
रच्छक–रक्ञक | मर्दि मदि-सं० मर्द धातु से पूर्व कालिक,
मसल मसल कर | मही–प्रृथ्वी |
(डे नाथ, एक बहुत बड़ा वन््दर आगया है । उसने अशोक घाटिका को उज़ाइ डाला, फलों के। खाया और वृक्षों को उखाड़ फेंका है। बाग के रखबालों के उसने मसल मसल कर प्रथ्वी पर पटक दिया
सुनि रावण एध्ये भद् वा | तिन्दृ्ड देखि गलेंट हहुमारा॥
संद रलतीचर कपि संधारे। गये पुकारत कु भधमो॥
पठये5-अश्थापित, भेजे । रजनीचर-राजुस । संघरे-
यह सुन कर राबश ने वहुत से योद्धा भेजे | उत्हे देख झ हनुमान जी ने गजेना की । सव राज्षसों के हनुमान जी ने मार डाता । बुद्च ( वचे हुए) अधमरे होकर पुकासे हुए ( ग़बश के पास ) गए। ह
पुनि पह्येड तेहि अहुयदुमारा। चला संग हेड सुभद भपाता ॥
शावत देख विरप गहि ता । ताहि निवाति महाधुनि गगो॥
अपारा–जिनका पार न हो, अनगितती । गहि–अहण कए
| तर्जा-तर्जना की, धसकाया, ललकारा ।
निपाति- गिराकर | महाधुनि–महाध्वनि, जोर की आवाज से | राव ने अपने पुत्र अक्षय कुमार को भेजा जो अप पाथ अगरित योद्धाओं को लेकर खाना हुआ। उसको भाता हुआ देख कर हनुमान् जी ने हाथ में वृत्त तेकर ततकारा भर तदनत्तर उसे भार गिरा कर बढ़े जोर की आवाज में ग्जना की।
कु सारेसि कहु सदेसि, कहु मिलयेसि घरि धूरि॥
कु पुद्ि जाइ पुकारे, प्रभु मद बत्च भूरि॥
धरि-धूति | मकृद–बर्र । भूरि–कहुत | वत्मूरि-हहुद
बलवाला (बहु०)
हुमाद् जी ने हुछ राइसों को भार डाला, कुछ को पीस डाला भौर बुछ को घर कर धूल में मिला दिया कुद (वे हुओं) ने फिर जा कर रावण से पुकार की कि हे प्रमु, बन्दर बढ़ा बल्वान् है | ५
घुनि सुतयध जेफेश रिसागा । पव्येसि मेघनाद चलथाना ॥
भारेंसि छनि सुंत पपिसु साही। देखिय झपिद्टि फ्झा कर भाप ॥
लंफेस–लंका फा ईश (तत्पु०), रावण । रिसाना–क्रोधित
हुआ। मेघनाद–मंत्र (गलन) के समान लाद (शब्द) हैं जिसका
) | जनि–नहीं, मत | देखिय–देंखना चाहिए। आही– अत्ति, 7 । फहाँ फकर–कोहोंका ।
पुत्न अत्षयकुमार का बंध सुन कर रावण क्रोधित हुआ ओर उसने (दुसरे पुत्र) बलशाली भेघनाद को भेजा | (मघताद से राबण ने का), हि पुत्र, उसे मारता मत, बल्कि इसे धाँध लाना । अन्दर को देखना चाहिए कि कहाँ का है ।”
धबत्य एन्द्रमिन शनुलितन्योधा। बन्धुनिधन सुनि उपजा फ्रोधा॥
फपि देशा दासन भर थावा । कटकटाहु गजो श्र धावा ॥
इन्द्रजित–5न्द्र फो जीतने वाला (तत्पु०) मेघनाद। अतुलित—
जिसकी तलना था तराचर्री न की जा सके, श्रद्धितीय ।
जोधा-योद्धा । बन्धुनिधघन–भाई की झृत्यु (तत्यु०)
दास्म–दासरण, भयंकर | भट–योद्धा, वीर | धाया–दोड़ा |
अद्वितीय वीर मेघनाद (अपने पिता के वचन सुनकर) चला | (उसके मन में) भाई अक्षयकुमार के मारे जाने की वात सन कर क्रोध उत्पन्न हुआ । हनुमान जी ने देखा कि एक भयंकर पीर आ रहा | थे दाँत किटकिटा कर गरजे ओर उसके ऊपर दंड |
शरति शिसाल परु पक उपारा। विरथ कीन्दह लंकेश कुमारा॥
रहें महा भट ताके संगा। गहि यदि फपि मर्देह निम्र छंगा ॥
विरथ-रथविद्दीन ! लंकेशकुमार-लंकेश का बेटा (ततस्पु),
नी उस अह्मात्न को भी अपनी शक्ति के प्रभाव से बेकार कर सकते थे परन्तु उन्होंने सोचा कि-) “यदि मैं म्रह्मवाण को नहीं
प्रानता हूं तो (अनन्त इश्वरीय सहिसा) नष्ट होती है ।१
प्रह्ञ यान कपि कहँ तेह सारा। परतिहुँ बार करकु संघारा॥
ते देखा फपि सुरुछ्ठित भयऊ। नागपास बाँधेसि छेद गयऊ॥
कपिकहँ–हनुमानजी के । परतिहुँ वार–गिरते समय भी |
कटक–सेना । मुरुछित–भूछित, वेहोश |
नागपाश–एक प्रकार का जादू या साया की शक्ति वाला जाल या फंदा ।
मेघनाद ने हनुमान जी के त्रह्मगाण मारा। ( उसके लगने पर ) मिरते गिरते भी हनुमान् जी ने ( मेघनाद की ) सेना का संहार किया । मेघनाद ने देखा कि हलुमान् जी मूछित हो गए हैं। तव वह उन्तका नागफांस से बाँधकर ले गया |
जासु नाम जपि सुनहु भवानी। भव बंधन कार्टहिं चर क्लानी॥
तासु दूत कि वेधतर आवा। प्रभुकारज क्षगि फपिहि चैंधावा ॥
जामु-जिसका । भव–संसार। भ्ववन्धन–संसार का
बंधन (तत्पु०)। ग्यानी-ज्ञानी। वँधतर–बन्धन के तले,
वनन््धन के वश में । प्श्ुकारजलगि–स्वामी के काये के लिए
इस प्रसंग पर शिव जी पावेती से कहते हैं कि ) “हे भवानी सुनो, जिस ईश्वर का नाम जप कर ज्ञानी लोग संखार के बन्धन को तोड़ देते हैं ( अथात् संसार में जन्म लेने और मरने के बन्धन से छूटकर मोज्त को श्राप्त हो जाते हैं) उस ( रामरूपी ईश्वर ) के दूत्त हुनुमान् जी क्या वन्धन के बशीभूत हो सकते थे 2 ( अथोत् नहीं । ) परन्तु स्वामी का कार्य करने के लिए उन्होंने ( अपनी इच्छा से ) अपने के बँधवा दिया ।”
फरपियंधन सुनि गिश्सिचर धाये। दौतुक लागि समा सब भाषेत
दूस-मुझ़-सभा दीसि फपि ज्ोट । कहि नमाएई फट आति प्रमुताई ॥
धाये–दीड़े । कौतुक लागि–छतहल) आलछुकता से। देख
मुख सभा-दरस-मुख हैं, जिसके (बहु?) उस खबर की सभा
(तल्यु० ) | दीखि-देखी । प्रभुताई–मधिमा !
हनुमान जी के वन््धन की बात सुनकर तमाम रास इुवूहुता
वश रावण की सभा में दौड़ आए । हचुमान,जी ने वहाँ पहुच कर रावण की सभा देंखी। उस सभा की भारी महिमा का कहा नहीं जा सकता ।
कर जोरे सुर दिसिप विनीता । रृुकृर्टि व्रज्ञोफन सकते सभीताआ ,
देखि प्रताप न कपि मन संका । जिमि शहिंगन महं गएद असंका पं
कर जोरे–हाथ जोड़े। सुर-देवता । दिश्िप–दिकपाल :
(हिन्दू शास्रों का कथन है. कि प्रत्यक दिशा को रक्ा के लिए अलग अलग देवता नियत हैं। उन्हीं के दिक्पाल कहते हें)
भूकुटि–कोध से भोंद सिकेइना | संका–शंका; भय । अहि–
सपे । गन–गण, समूह | असंका–अशंक, निर्भय )
उस सभा में देवता और दिक्पाल नम्रता से (रावण के सामने) हाथ जोढ़े हुए थे ओर भय से उसकी श्रुकुटी की ओर देख रहें थे । ( परन्तु वहाँ का ) ताप देखकर हनुमान जी के छुछ भी भय नहीं हुआ; ( पह वहाँ उसी तरह निडर भाव से खड़े रहे ) जैसे सर्पों के बीच सें गरुड़ निःशंक रहता है ।
फपिहि विल्ञोकि दुसानन, विहसा फट्टि दुर्बाद् ।
पक छुत-धध-सुरति कीन्ह पुनि, उपजा हृदय विपाद ॥
विलोकि–देख कर | द्सानव–द्स आनन (मुख) हैं जिसके
(अहु०) ढुवोद–हुबंचन, कड़वे वचन । सुत-वध-सुरति–सुत
: छप्रज्ञय कुमार) फे वध की स्मृति (त्त्पु०)। उपजा–उत्पादित,
हमुमान् जी को देख कर रावण कुछ कट्ु वचन कह कर हसा | फिर (जब) उसने अपने पुत्र की हत्या की याद की तो उसके हृदय से शोक उत्पन्न हुआ ।
फट्ट लेकेश फान ते फीक्षा । केद्टि के वक्ष घालेसि घन खीतसा |
की धो सवन सुने नहि‘ मोष्ठी । देखेड‘ झति असंक सठ तोही ॥
भारें निम्तिचर केंद्ठि श्रपराधा। कहु सठ तोष्टि न ग्रान के बाधा ॥
लंकेश–लंका का स्वामी रावण (तत्ु०)। कवत–कौन ।
* घालेसि– मारा | फेहिके बल–किसके वल पर, किसके भरोसे लत
पर | बन–अज्ञोक वाटिका । की धौं–अथवा क्या ?.
– स्वत्त–अवण, कान । बाबा–भवय ।
शाबण ने कद्दा, “ओ वन्दर तृ कौन है । तूने किसके भरोसे पर अशोकवाटिका नष्ट की? क्या तूने मुझे (मेरे नाम को) कानों से नहीं सुना हैं ? रे दुष्ट; में तुमे बड़ा निडर देखता हूँ । तूने राज्ञसों को किस अपराध पर मारा है ! वता हुए, क्या तुझे अपने प्राणों का भय नहीं है
सुद्ु रावण ब्रक्लौद-निकाया। पाइ जासु बल विरचित माया ||
जाके यल विरंथि हर ईसा ।पालत सुजत इरत दससीतसा ॥
जाथल सीस धरत सहसासन । अंदकोस समेत गिरि कानन |॥
घरे जो ब्रिविध देह सुर त्राता | तुर्से सठन्दह सिखावनु दाता ॥
इरकोदंठ कडिन जेदि भंजा | तोहि समेत छुपदल-मद गजा॥
खर दूपन त्रिसिरा शरद वाली । बे सकत्न अतुलित बलसाली ॥
जाकेवल-लवशेस तें, जितेहु चराचर मसारि |
तासु दूत में जाहि की, इरि भ्ानेसि प्रिय नानि ॥
ब्रह्माएड–लोक । निकाय–समूह । अ्द्माएडनिकाया–लोकों –
का समूह ( तयु० ) जासु-जिसका | विरंचि–जहय। हर
महादेव। ईश–विष्णु । सजत-पैदा करते हैं। हढ-हह्
करते हैं। सहसानन–सहस्तानन, सहख्र आनन हैं जिसके (बहु) प
शेषनाग ( जिनके हज़ार फन कहे जाते हैं.) |।अंडकोश–शप्वी ।.
कानन–जंगल । विविध–अनेक तरह तरह की। सुखाता–
देवताओं का रक्षक ( तत्यु० ) | सिखावनु–शिक्षण | सिखावलु-
दाता-शिक्षा का देनेवाला ( तत्पु०)। केदण्ड–धलुष | हुए
कादश्ड–शिव जी का धनुष ( तत्यु० ) | भंजा–तोड़ा। मद-
अभिसान । जप दल मद–राजाओं के समूह का मद ( तलु० )। –
गंजा–नष्ट किया। अतुलित–जिसकी वरावरी न हो सके –
अद्वितीय | लवलेश–बहुत थोड़ा अंश । जितेहु–वने जीता |
(हनुमान जी ने उत्तर दिया), ” हे रावण, सुन; जिसका व पाकर माया ( ईश्वरीय शक्ति) ने तमाम लोकों की रचना की ; जिसके – बलसे, हे रावण, ब्रह्मा; ९ ओर महेश इस संसारको पैदा करते _ हैं, पालते हैं और नष्ट करते हैं; जिसके बल से शेषनाग वन और पत्तों सहित इस प्रथ्वी के अपने सिर पर धारण करते हैं; जो (समय समय पर अवतार लेकर) तरह तरह के शरीर धारण करता है; जो देवताओं का. रक्षक और तुमसे दुष्टों को (दंड दे . कर या सहार करके ) शिक्षा देने वाला है; जिसने (सीता-स्वयं* बर के फेक ) महादेव जी के के बा को तोड़ा और ( इस अकार ) तुम्हारे तथा अन्य राजाओं का अभिमान नष्ट ‘किया; जिसने अद्वितीय पराक्रम वाले ३ अर त्रिशिरा और बाली, सब का बध किया और जिसके बल के अत्यंत थोड़े अंश से तूने सी चर और अचर सब के जीता है; जिसकी प्रिय पत्नी ‘सीता के तू चुरा लाया है, उसी का मैं दूत हूं ।
ब्रम्मागड, अण्डकोश:–श्ष्टि के पृर्व में सर्वत्र
अंधकार ही अंधकार था। तदनन्तर ईश्वर ने जल की सृष्टि की और उस जज में बीज़ वपन किया | उससे एक सोने का अंडा पेदा हुआ | ऐश्वर स्वयं उस अंडे से त्रग्म के रूप में प्रकट हुए और उन्होंने उस अंड के दो ढुकड़े किए | एक ढुकड़े से सर्म लोक आदि की रचना हुई और दूसरे से मर्त्व लोक की। इसके बाद उन्होंने दस प्रजापति अथवा सानस पुत्र उत्पन्न किए आर इन दस प्रजापतियों ने स्ष्टि के शेष काये को पूरा किया। इस प्रकार प्रारम्भिक सोने का अंडा ही सृष्टि का मूल रूप है और इसी लिए यहाँ प्र॒थ्वी तथा लोकों के लिए “अण्डकोश‘ और श्षोर धद्याण्ड‘ शब्दों का प्रयोग हुआ है ।
हर कोंदण्ड. ..गरञाः-जनकपुर में सीता-स्रयम्वर के समय जो धलुपन्यत्त हुआ था उसी का संकेत हैँ | जनक जी के यहाँ शक बहुत बढ़ा शिव जी का धनुप रक्खा था | वह इतना भारी। था कि कोई उसे उठा न सकता था। एक वार प्रसंगवश सीता जी ने उस उठाकर दूसरे स्थानपर हटा दिया। यह देख कर समान बल वाल वर की कामना से जनक जी ने प्रण किया कि जो कोई उस धनुप को उठा सकेगा उसी के साथ वह अपनी पुत्री सीता जी का विवाह करेंगे एतदर्थ उन्होने धनुष-यज्ञ किया जिसमें राबण आदि अनेक पराक्रमी राजा आए | जब वह धनुप किसी के उठाए नहीं उठा तो रामचन्द्र जी ने उसे तोड़ दिया। सब राजा मेंप गए और उनका वल-मद चूर चूर हो गया।
‘ (३) खर, दूपण, तिशिरा अर बालीः-खर, दूपण और त्रिशिरा रावण के वन्धु-बांधवों में से थे और उसके सेनापति थे । जब रामचन्द्र जी पव्म्चबटी में रहते थे तो रावण की बहन शूप- णुखा उन पर मोहित होकर उनसे चिवाह करने की इच्छा प्रकट करने लगी। उसकी इस ‘ध्रृष्टता पर लक्ष्मण -जी.नें उसके ताक कान काट लिए ।तव वह रोती हुई अपने भाइयों के पास गई और खर, दूषण तथा त्रिशिरा उसका बदला लेने के लिएं रामचन्द जी से युद्ध करने को आए। रामचन्द्र जी मे उन्हे मोर दिया]
(४) वाली सुग्रीव का भाईथा और सुम्रीव की स्ली को छीने-कर ले गया था । सुप्रीव उसके भय से ऋष्यमूक पवेत पर: छिप कर: रहता था । जब रामचन्द्र जी वहाँ पहुँचे तो सुमीवमे उन्हें अपनी $ दुःख-कथा सुनाई। रासचन्द्र जी ने सुप्रीव को वालि से युद्ध: करने भेजा और जब दोनों भाइयों में युद्धहों रहा थो तवं: उन्होंने, वाण मार कर वालि का वध किया |
“तुम्हारी महिमा को मैं खूच जानता हूँ। सदस्रावाहु से तुम्हारी लड़ाई हुई थी और वालि के साथ युद्ध करके तुमने जो यश पाया था (उस सब को याद करो ) ।” हनुमान जी के ये वचत सुन कर रावण ने हँस कर टाल दिया। |
सहसबाहु सन परी लराई:–राबण नमेदा नदी के किनारे पूजा-पाठ करने जाया करता था। एक रोज़ उसने-देखा कि नदी उल्टी दिशा मे बह रही है। इस पर उसे आश्चर्य हुआ और इसका रहस्य जानने के लिए नदी के किनारे किनारे-चल दिया। थोड़ी दूर जा कर उसने देखा कि सहस्नावाहु नदी में जल कड़ा कर रहा है और अपनी झुजाएँ जल में फैला रक्सी हैं
लिससे जल का प्रवाष्ठ रक कर उल्टा बहन लगा है| सहस्रावाहु शपनी कीड़ा के समय उसे आया हुआ देख कर क्रद्ध हा ओर दोनों में बुद्ध ठना | राषण चुद्ध से पराजित होकर सहस्तावाह का बन्द्री हुआ |
समर वालि सनः–रावण ने जब अपने बाहुबल से तमाम देवताओं आदि को जीत लिया तो उसे अभिमानहों गया। खऋतः जब उस मादम हुआ कि वालि नाम का एक वीर अभी पचा हशा है तो बाद उस भी जीतने के लिए गया । परन्तु वालि को बरदान था कि जो शत्र सामने आकर उससे लड़ेगा उसका झाधा वज़ उसमें (वालि में) आजाणगा | इस प्रकार रावण से यद्ध होने पर रावण का आधा वल वालि के शरीर में चला गया आर यालि बढ़ी आसानी से रावण का अपनी बगल में दवा कर ले गया।
साथत फल मोष्टि लागी भूखा । फरपि-सुभाव तें तोरठ रूखा॥
सथ के देह परम प्रिय स्वामी। मारदि सोहि कुमारग-गामी ॥
लिन्ह मोदि मारा ते में मारे। तेद्टि पर बाँधेड तनय तुम्हारे,॥
भ्रखा–बुभुक्षा । रुख–अक्ष | स्वामी–हलुमान् जी व्यंग्य या
ताने से रावण को स्वामी ऋहते हें । कुमारण गामी–छुमाग या
घरी राह पर चलने वाले ( तत्पु० )) ढुष्ट राक्षसों ने | तेहि पर–
इस थात पर | तनय–पुत्र | ह
(हनुमान् जी रावण के दूसरे प्रश्॒ का उत्तर देते हैं)–“मुझे भूख लगी थीं इसलिए मैंने ( तुम्हारी चाटिका के ) फल खाए। (में चन्द्र हैं अतः) बंदर की आदंत से मेंने वृक्ष तोड़े । हे स्वामी, अपना देह तो सभी को घड़ा प्यारा द्ोता है, सो ढुष्ट राक्षस जब. मुझे मारने लगे तो जिन्होंने मुझे मारा उनको मैंने भी सारा | इस पर तुम्हारे पुत्र ने मु बाँध लिया ।–
मोहि न कछु बाँधे कई लाजा । कीन्द चहउ निन प्रभु कर काजा॥
बिनती कर जोरि कर रावन । झुनहु मान तजि मोर सिखावन ॥
कइ–की । जोरि कर-हाथ जोड़ कर। सान–अभिमान | काजा-कारय |
“मुझे अपने वाँधे जाने की लज्णा नहीं है (क्योंकि में तो जैसे हो वैसे ) अपने प्रभु रामचन्द्र जी का कार्य करना चहता हूँ। हे रावण, में हाथ जोड़ कर तुम से विनय करता हूँ तुम अभिमान छोड़ कर मेरी सीख को सुनो ।–
देखहु तुम निन्न कुल्नहि बिचारी । भ्रम तज्जि भजहु भगत-भय-हारी ॥
जाके वल श्रति काल डेराई|जो सुर असुर चरोचर खाह॥
तालों वैर कबहुँ नहिं कीजै। मोरे कहे जानकी दीजे॥
प्रणतपाल रघुनायक, करुना सिन्धु खरारिं। ‘
गये सरन प्रभु राखिदृहि‘, तब अपराध विसारि ॥
भगतभयहारी–भक्त के भय को हरने वाले (तत्पु०)।
चर—चलने वाले जीव । अचर–स्थिर रहने वाले जीव और
पदार्थ । प्रशतपाल–प्रणत अथोत् बिनोत के पालक (तत्यु०) |
खरारी–खर के शत्रु (तत्पु०) | विसारि–विस्मृत करके; भूल कर।
तुम अपने कुल का विचार करके देखो और भ्रम को छोड़ कर भकँभयहारी भगवान् का भजन करो। जिसके ड्रर से काल अथोत् रुलु तक को अत्यंत भय होता है, जो देवता, राक्रस, चर और अचर् सब को, खाजाता है उस से कभी बैर मत करो और मेरे कहने से सीता जी को गा गे वापिस कर दो। दया के सागर, खरारि रामचन्द्र जी नम्नता से शरण में जाने वाले की रक्ा करते | । उनकी शरण में जाने पर त्रें तुम्हारे अपराधों को भल हर तुमगरा रखता करेंगे ।
पंन्परम-पकन्तन डरे चरा।लंड्रा प्रचल राध मम फ़र्ू ||
रिविशयुतल्तानास घिसल मगदा । हेडि ससि महँ जनि ऐोटटु फर्क ॥
रामचरनपकक्-रामजन्द्र जी के चरणझूपी कमल (तत्पु०
ओर रूपक ) रिसि–आऋपि । रिसिपुलस्तजस–ऋषि पुल्लस्त्य का
यश (रत्पु०) राबण पुनत्य रपि का वशज़ था। मंक–सर्यांक,
सन्द्रगा | फ्नंक–चन्द्रमा के भीतर जो धन्बा दिखलाई देता
है।
विसज्ू–निर्मत, स्वच्छ भरामचन्द्र जी के चरण कमलों को दृदय में धारण करो आर ( उनकी कृपा प्राप्त कर ) लंका के ऊपर अचल राज्य करो तुम्हारे पूर्वज पुलस्य ऋषि का यश चन्द्रमा के समान है; उस चन्द्रमा में तुम कलंक ( के समान ) मत वनों ।–
राम नाम विन गिरा न सोष्ठा | देखु विचारि त्यागि भद भोहा ॥
बसनहीन नि सोह्ठ सुरारी।सव भृपन-भूषित वर नारी॥
मिरा-बाणी | न सोहा–नहीं सोहती | वसन–वख्त्र ।
बसनहीस–कपड़े के विना (तत्यु०) । सुरारी-देवताओं का
आअरि अथात् श॒त्र (तत्पु०)। वर–प्रेप्ठ ।
ह देवताओं के शत्रु रावण, तुम सद ओर सोह को छोड़ कर विचार करके देखो | ( जिस प्रकार ) सव भाँति के आसू- पणों से सजी हुई सुन्दर सत्री बिना बच्चों के (अथात् नंगी) अच्छी नहीं मालूम होती ( उसी प्रकार ) वाणी ( चाहे वह कितनी ही शिप्ट और गर्वित क्यों न हो ) राम नाम ( के उच्चारण) के बिना अच्छी नहीं लगती ।–
राम-विमुख संपति पभ्ुताई । जाइ रहीपाई बिल पाई॥ –
सजल मूल जिन््ह सरितन्द्व नाहीं धरपि गये पुनि तवदि‘ सुखाहीं ॥.
मूल–उद्गम । सरितन्ह–नदियों का। वरपि गये–चरषो
के बाद | जाइ रही–निरथ्थक, व्यर्थ, गई्टे-वीती | है
“शत के विमुख (मनुष्य) की धन-दौलत और महिमा गई हुई के ही समान है, उसका पाना न पाना एक सा है। (जिस प्रकार ) वे नदियाँ निर्थक हैं. जिनका उद्गम जल वाले स्थान से नहीं होता; ( वे ) वर्षा के बीतने पर तुरन्त ही फिर सूख जाती हैं ।– ;
सुनु दसकरठ फट्टठोँ पन रोपी । विम्ुस्त राम त्राता नद्दि” कोपी ॥
संकर सहस्र विष्णु आज तोही। सकद्दि न राखि राम कर द्रोही ॥
पन रोपी–अण के साथ, दावे के साथ | त्राता-रक्क् |
कोपी–को5पि, कोई भी | अज–अक्मा। द्रोही–शत्रु, बैरी ।
“हे रावण सुन, में दावे के साथ कहता हूँ कि रामचन्द्र जी से विमुख मलुप्य का कोई भी रक्षक नहीं है। राम जी का वैसी होने पर तुमको हजार महादेव, विष्णु और अद्या भी नहीं बचा सकते |–
मोहमूज्ञ वहु-सूल-अ्रद, त्यागहु तम-असिमान !
भजहु राम रघुनायक, कृपा सिन्धु भगवान् ॥
मोहमूल–मोह है जढ़ है जिसकी ( वहु० )। वहुसूलप्रद-
बहुत पीड़ा को देने वाला (तत्पु०) | तम-अभिमान–तमोगुण
से भरा हुआ अमिमान ( सध्यमपदलोपी कमंघारय )।
इस लिए तुम तमोगुण से भरे हुए अभिमान को, मोह जिसको जड़ है, और जो अनेक कष्टों का देने वाला है, छोड़ द॑ और दया के समुद्र भगवान् रामचन्द्र जी का भजन करो
ज़दपि फ्री कि अनिष्वितयानी | भगति-विन्रेक-चिरत्ति-समन्सानी ॥
शेक्षा थिए सि महा घभिमानी । मिक्षा मद कपि गुर यद क्लानी ॥
बाना–बाणी | विरति–वैराग्य | नय–नीति ।
हनुमान जी ने (इस प्रकार ) यद्यपि बड़े हित की बात कही जो भक्ति, विवेक, वेंराग्य और नीति से सनी हुई थी तथापि अभिमानो रावण ( ने उस पर ध्यान नहीं दिया और बह) हेंसकर बोला, “यह बन्दर हमें बड़ा ज्ञानी गुरु मिला है. ।”
सूचु निफट भाई स्तन तोदी | लागेसि झ्थम सिखावन मोहो ॥
उक्षरा हो फह इनुमाना | सति श्रम त्ोदि प्रगट में जाना ॥
“रे दुपट, मुझे शिक्षा देना आरम्भ किया है ! तेरी सत्य समीप झा गठ &।” हनुमान् जी ने कहा,“इसका उलठा होगा । भुमे स्पप्ट मातम हो गया कि तेरी बुद्धि को भ्रम हो गया है ( अर्थात् तेरी बुद्धि विगड़ गई है )”
सुनि कपि बचन बहुत प्रिसिधाना | शेगि न एरहु मूढ़ कर आना ॥
सूनय निमाचर मारन थायें। सचिवन सद्दित विभीषन झाये॥।
नाह सीस फरि विनय बहूता । नीति विरोध न सारिय दूता॥
।न दशट्ट कछु फरिए गोसाई‘ | सबही कहा मन्त्र भल भाई ॥
खिसिआना–चिढ़ा | वेगि–जल्दी से । मूह-मूर्ख ।
आन–अन्य । गोसाई–गोखामी | मंत्र–सलाह ।
हनुमान् जी की यह वात (उत्तर ) सुनकर | रावण बहुत चिद् गया ( और बोला )–/जल्दी से इस मूख के ग्राण क्यों नहीं ले लेते ! “यह सुनते दी रात्तस हनुमान् जी को भारने के लिए दोड़े ।” तब मंत्रियों सहित विभीषण (रावण के पास ) आए तथा सिर नवाकर और बहुत तरह से विनय करके (बोले)–“यह बात नीति के विपरीति है| दूत का नहीं मारना चाहिए । है खामी, याप कोई दूसरा दंगढ इसे दे दीजिये ।/ (विभीपण की इस राब को सुतकर ) सत्र ने कद, “भाई, यह सलाह धअच्छी हें ।”
सुनत विदेसि बोला दसकन््धर ।पश्रंग भग करि पस्हय येदर ॥
फर्पि के ममता पूछ पर, सबधि‘ फोड समुझाय ।
सेल घारि पट बॉधि पृनि, णयक ऐेहु बोगाय ॥
अंगगंग–अंग का मंग (वत्पु)), अंग का नाश । पम्ब–
भेजा जाए। ममता–नोह, प्रेम । वारि–इत्रो कर। पावक–
अग्नि । पट–कपड़ा | पूँछ–पुच्छ ।
विभीपण की सलाह सुनकर ओर सब के समकाकर रावण ने हँसकर कहा, “बन्दर छा कोई अंग नप्ट ऋर इसे वापिस भेजना चाहिए |” बन्दर का प्रेम अपनी पूछ से होता है । ( इस लिए ) कपड़े को तेल में भिगो कर और फिर इसकी पूछ में बांध कर आग लगा दो ।—
पूँछहीन चानर त्हों ज्ाइडि। तथ सठ निलनाथहि‘ छेह्ट चाएहद्टि
बिन््त के कीन्देसि बहुत बगाई। देखेएँ में तिन्द फै प्रभुत्ताई ॥
“बिना पूँछ के थह बन्दर जब वापिस जाय्गा वो दुष्ट अपने स्वामी को ले आएगा | जिनकी इसने इतनी अधिक प्रशंसा की है में भी उनकी वड़ाई को देखँगा ।”
वचन सुनत कृषि सन झुसुफाना । भई सहाय सारद में जाना ॥
सारइद–शारदा, सरस्वती ।
… रावण के बचल सुन कर हलुसान् जी सनहीं सन ( प्रसन्नता से) हँसे और ( मन सें कहने लगे कि) “में समर गया | सरखती जी सहायक हुई हैं ।”
नोट–शारदा था सरस्वती थाशी फो देवता हैं । उन्होंने राबण को किदा पर बैठ कर हतुमान जी के मतलब की वात उसस कहला हा, रसा से #लमाॉन जा भसन हुए ।
पंतृधार शान शंबन रण्ना | कागे रचा स्तर साहू रचना ॥
रहा मागर बारग एस मेला ॥याड़ी पूष्ठ दीन फपि खेका।
रचमा–अनाता । सोट रचना रचइ लागे–बढ़ी रचना रचने
जंग, अथाव तरस अझार रावण ने बताया था उसों प्रकार हनुमान
जो का प्रद्ध फा बनाने लगे । बसस-बस्ञ | घृत–धघा | खला–
कीड़ा ।
राबश के वचन सन कर राज़्स उसी प्रकार की रचना करने लगे । ( उस समय ) हनुमान जी ने एक खल किया–उनकी पंद्ध ( इतनी ) बढ़ गई (कि उसके लपेटन तथा भिगोने के लिए ) नगर भर में फपड़ा, थी या तेल ते रहा-(नगर भर का कपड़ा त्तेल आदि चुक गया ) |
पौतुफ कहूँ बाये पुरवासी | सारहि चरन फरई्ट बहु हाँसो ॥
बाजहि दोल देंढ़िं स्थ तारी। मगर फ्रेरि पुनि पूँछि प्रजारी॥
कातुक कहँ–उत्सुकता से । पुरवासी-नगर के लोग ।
होंसी-हेसी | प्रजारोी–श्रज्वलित,जलाई | फेरि–घुमा कर |
बह तमाशा देखने के लिये ) नगर के लोग उत्सुकतावश वहाँ आ्रागए ओर हलुमान् जी को लात मारने तथा उनकी हँसी करने लगे | सब लॉग ढोल और ताली वजाते थे। ( तदनन्तर ) ‘उन्होंने हनुमान जीं के ( आनत्द से ) नगर में घुमाकर उनकी पूंछ में आग लगादी |
हि जग्न देग्ति इमुसस्ता | सथठ परस लघुरूप चुरन्ता ।
निधुक्ति यड़ेड फपि कनक अटारी । भईट सभीत निशा-चर-नारी ।।
निवुकि–कूदूकर | कनक–सोना । अटारी–अट्टालिका।
निशाचर नारी–राक्षसी ( तत्यु० ) | ;ल्
हलुमान् जी ने आग के जलता हुआ देखकर तुरन्त छोटा सा रूप घारण कर लिया। हनुमान् जी कूदकर सुबर्ण की अटारी‘ पर चढ़गए । ( उनके देखकर ) राक्षसियाँ डर गई । ः
हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास ॥
अद्दृहयस करि गर्जा कपि बढि क्वाय अकास ॥
हरि प्रेरित–भगवान् से प्रेरित किए हुए (तत्पु० ) | लाग–
लग गया । वढ़ि लाग अकास–( अतिशयोक्ति अलंकार )।
उसी समय भगवान् की प्रेरणा से उ‘चासों (४९) प्रकार की _ वायु चलने लगीं | ( यह देख कर ) हनुमान जी ने अद्ृह्यास करके ( बड़े जोर से ) गजेना की और बह बढ़कर आकाश से लग गए ( अथोत्् उन्होंने अपना शरीर बहुत वड़ा कर लिया ) । देह विसात परम हरु आई। भन्दिर ते सन्दिर चढ़ थाई ॥
जरई चगर भा लोग विहाला। रूपट लपट बघहुकोटि कराता ।
हरुआई–हलकापन । मन्दिए–भवन, मकान । जरइ–
जलता था। भा–हुए। झपट–मपटती थीं। लपट–आग की
लपट । बहुकेटि–करोड़ों | कराल–भयकर । ।
हनुमान् जी का शरीर वड़ा तो हो गया परन्तु उसमें बड़ा हलकापन था, ( जिससे ) हनुमाव् जी एक सकान से दूसरे मकान पर ( आसानी से) चढ़ जाते थे | नगर जलने लगा और लोगों को दुदंशा होने लगी। आग की करोड़ों भयंकर लपटें उछल रहीं थी | 5 हे
तात मातु हा सुनिय घुकारा । एहि झवसर को हसहि उदारा ॥
हम जो कहा यह कपि नहिं‘ होई । बानर रूप घरे सुर कोई ॥
साधु प्रवज्ञा कर फल प्ेसा | जरद नगर अनाथ कर जैसा ॥
सुनिय–सुनाई देती थी । उवारा–उद्धार करेगा, वचाएगा।
अवज्ञा–निरादर । साघु–सज्नन। कर–का । अनाथ–जिसका
काई रक्षा करने वाला न हो |
(उस समय चारो ओर यहीं ) चिह्लाहट सुनाई देती थी– “हा पिता, हा साता, इस समय हमें कान वचावेगा। हम जो कहते थे कि यह बन्दर नहीं है, वल्कि बन्दर के रूप में कोई देवता है (सो किसी ने नहीं सुना )। सज्जन के अनादर करने का * ऐसा ही नतीजा होता है । नगर ऐसा जल रहा है जैसे अनाथों का * वर हो ( अथोत् जिसका कोई स्वामी या रक्षक ही नहीं है )” ।
जारा नगस निम्िप एुक माहीं। एक बिभीषन कर गृह साहीं ॥।
ता फर दूत अ्रनज्न जेह्ू स्िरिजा | जरा न सो तेहि कारन गिरिजा ॥
उलटि पत्नटि ढंका सब जारी। छूदि परा पुनि सिंघु में कारी॥
जारा–जल गया । निमिप–3तना समय जितना एक पत्रक
मारने में लगता है । अनल–अप्नि । जेहि–जिसने | सिरजा–
उछज् धातु का रूप, वनाया। मँफारी–मध्ये, में ।
तमाम नगर पलक मारते मारते जल गया, केवल पिभीषण का गृह नहीं जला | (शिव जी पावती जी से कहते हैं कि)–“ हे * घावेती, वह ( विभीषण का गृह ) इस कारण से नहीं जला कि जिस( भगवान्) ने अभि के वनाया है हनुमान् जी उसीके तो दूत हैं ।” हतुमान् जी ने उलट-पुलट कर (चारों तरक़ से) तमाम लंका जला दी और फिर समुद्र में कूद पड़े ।
पूँछि बुकाई खोइ खम, घरि लघुरूप बहोरि |
जनकसुता के आगे, ठाठ भयठ कर जोरि ॥
स्म–अ्रम, धकावट । वहोरि–फिर । कर जोरि–हाथ
जोड़ कर समुद्र में अपनी पंछ के बुकाकर और अपनी थकान के दूर कर तथा पुनः छीटा सा रूप धारण करके हतुमान् जी हाथ जोड़ कर सीता जी के सामने आ खड़े हुए ।
मातु मोहि दीजै फद्यु चीन्द्रा। जैसे रघुनावक मोहि दीन््हा ॥
चूदा मणि उत्तारि तब देग्रऊ | दरप समेत पचनछुत ज्षग्रऊ ॥
चौन्हा–चिन्ह । चूड़ामनि–सिर में पहनने की सणि।
हरप–हषे ।
( हजुमान् जी ने सीता जी से कहा ), “हे माता, मुझे चिन्ह के लिए काई चीज़ दीजिए, जैसे रामचन्द्र जी ने ( अंगूठी ) दी थी,” तव सीता जी ने चूड़ामरिण उतार कर दी | हनुमान जी ने .
प्रसन्न होकर उसे ले लिया ।
कहऊ तात असर सोर प्रनामों। सब प्रकार प्रश्ठु पूरन फामा ॥
दीन-दयालु-विरुद॒ संभारी । इरहु नाथ सम संक्रद भारी ॥
अस–ऐसा, इस अकार। कामा-इच्छा। पूरन कामा-
इच्छा पूर्ण करने वाठे | विरुद–यश, कीरति। संभारी–सँभाल
कर, याद् करके |
सीता जी बोलीं, “हे बन्धु हलुमान् , मेरा प्रणाम इस प्रकार कहना कि–“हे नाथ, आप सब तरह से पूर्णेकाम हैं. आप दीनों पर दया करने वाले हैं, ऐसो अपनी कार्ति को रक्षा कर आप मेरे भारी संकट को दूर कीजिए” :–
तात सक्र-छत-कथा झुनायहु। बानग्रताप अमुह्हि समुकायहु ॥
सास दिवस महुँ नाथ न श्रावा | तो पुनि सोहि जियत नहि पावा रा]
सक्र–प्क्र, इन्द्र । शक्रसुत–जयन्त । वानप्रताप–राम जी
के घाण की महिसा ( तत्पु० ) ।
के त्ात हनुमान जी, रामचन्द्र जी को तुम जय्नन्त की कथा सुनाना और उन्हें उनके याण को सहिसा की याद दिलाना । यदि छामी रामचन्द्र जी एक महांने के भीतर नहीं आए तो फिर मुझे
जीती नहीं पाएँगे +— नोट–शक्रसुत–कथाः–जब रामचन्द्र जी पश्चववर्टी में रहते श्र तो इन्द्र का बेटा जबन्त उनके वल की परीक्षा लेने के लिए कौए का रूप धारण करके पहुँचा ओर सीता जी के पर में चोंच मार कर उड़ गया। इस पर रामचन्द्र जी ने क्रोध करके उसके ऊपर सींक कावाण छोड़ा | उस वाण से रजक्ञा पाने के लिए जयन्त तमाम देवताओं के पास हो आया परन्तु कोई भी उसकी रा में समथ न हुआ ओर वाण वराबर उसके पोछ लगा रहा धन्त में नारद जी के उपदेश से वह फिर रामचन्द्र जी की शरण में आया। रामचन्द्र जी का वाण व्यर्थ नहीं जाता था, अत उस वाण स उन्होंने जयन्त की एक आँख फोड़ कर उसे क्षमा कर दिया।
फह कि केट्रिविधि राख प्राना | तुम्हहँ तात कहत अब जाना॥
सोदि देखि सीतल भड द्वाती । पुनि मो कहुँ सोइ दिन्ल सोद् राती ॥
केदि विधि–किस प्रकार ! सीतल भई छाती-हछूदय ठंडा
हुआ था; हृदय को संतोप हुआ था । मोकहुँ–मेंरे लिए ।
“बताओ हनुमान जी; में किस अकार जीवन धारण करूँ ”तम सी अब जाने को कह रहे हो। तुम्हे देख कर हृदय शीतल हुआ था–अब फिर मेरे लिए रात दिन वेसा ही (पहला–जैसा) हो जाएगा (अथात् अब फिर कष्ट से रात दिन वीतेगाओर राक्षस–राहसियाँ मुझे कष्ट देंगे ) ।”
जनकसुतहि समुझाइ करि, वहुविधि घीरण दीन्ह ।
परनकमल सिरु नाइ कपि, गवनु रास पह कोन्ह ॥
धीरजु–बैयं, भरोसा। गवनु–गमन। राम पहुँ–राम के
पास ।
हनुमान् जी ने सीता जी को सममा कर वहुत तरह से धीरज बँधाया फिर उनके चरण कमलों में सिर नवा कर के रामचन्दर जी के पास को खाना हुए।
चत्तत महा धुनि गर्जेस्ति भारी। गे खबहिं सुनि निशि-चर-तारो ॥
नाँघि सिन्धु एहि पारहिं जादा | सवद किज्किल्ला कपिन्ह सुनावा ॥
हर५ँ सत्र विज्ञोकि हचुमाना। नूतन जनम कपिन्द तब जाना॥।
महाघुनि–जोर की आवाज से। स्तवहिं–गिर जाते थे।
नाँघि–लंघन, लाँध कर | एहि–इस | सवद–शब्द | नूतन-
त्या । जनम–जन्म |
चलते समय हलुमान् जी ने वड़े जोर से गजेना की जिसको छुन कर राक्षसों की स्त्रियों के गर्म गिरने लगे । हनुसान् जी समुद्र को लाँध कर उसके पार पहुँच गए और अपनी किलकारी के शब्द बन्दरों को सुनाया। सब कोई हलुमान् जी को देख क असन्न हुए दा अपना नया जन्म हुआ समझा । (क्योंवि जां खांज भेजते की कल # ७ कक से हे दिल था ध्जज व रद कि ५ वी जो का ससाचा “लिए बिना यहाँ आएगा वह जीता नहीं बचेगा )।
सुख प्रसन्न तन तेज विशाजा कीन्हें
सि मिले सकल श्रति भये सुखारी |
पंधकत आन बाज 82
| जबु बारी।
तन–तनु, शरीर। तज–कान्ति । विराजा–शोभायमान
था | तल्नफत सीन–तड़फती हुई मछली । जनु–सानो । वारि–
जल |
इनुमान् जी का $ख प्रसन्न था ओर उनका शरीर कान्ति से चमक रहा था ( इससे सबने समझ; लिया कि इन्होंने ) रामचन्द्र जी का कार्य पूरा कर लिया। सब कोई हनुमान् जी से मिल कर बड़े प्रसन्न हुए मानो ( जल से अलग हुई ) तड़पती हुई मछली , फों जल मिल गया हो |
घले हरपि रघुनाथक पासा | पूछत फट्त नवत्ञ इतिहासा ॥
तथ भंधुवन भीतर सब थाये। शमंयद्संमत मधुफ्त खाये ॥
रखबारे ज़थ बरजन छागे । म्रुष्टि-प्रहार इनत सब भागे॥
नवल–नया । इतिहास–समाचार । मधुवन–राज्य के
बगीचे का ताम । अंगद–वालि का पुत्र तथा राज्य का युवराज ।
अंगद संमत (तत्यु० )–अंगद की अनुमति या आज्ञा पाकर ।
मधु फल–मीठे फल | वरजन–(वर्जघाठ) सना करने लगे।
मुष्टिपदार–धूंसो की चोट | हनत–मारते पर ।
फिर सब लोग आपस में (हनुमान जी के) नए लंका-समचार को पूछते-कहत हुए रघुनाथ जी के पास को चल दिए। (मार्ग में वें) मधुवन्न के भीतर घुस गए और अंगद की अनुमति से वहाँ के मीठे मीठे फल खाने लगे। जब बाय के रक्षकों ने उन्हें मता किया तो उन्होंने रक्षकों का धूँसों से मारा जिससे ये सत्र ( रक्षक ) भाग गए | ः
जाह धुकारे ते सब, बन उजार छुबराज॥
सुनि सुभीव हरप कपि, करि भाये प्रमुकाज ॥
जौ न होति सीठा सुधि पाई । मंछबन के फल सकहि कि खाई॥
वन–उपबन, वाग। उजार-_उद्बृत कर दिया, _उबाड़
दिया । प्रभुकाज–राम जी का काये; अथान् सीता जी का खोज
(तत्पु०) सुधि–खबर, समाचार |
उन सब ( रक्ष॒कों ) ने जाकर ( सुम्रीव के पास ) पुकार की कि युवराज (अंगद) ने वाग को नप्ठ कर डाला। यह सुनकर सुप्रीव को प्रसन्नता हुई / और उन्होंने सममा ) कि बन्दर स्वामी रामचन्द्र जी का काये पूरा कर आए । ( क्योंकि ) यदि उन्होंने सीता जी की सुध न पाई होती तो क्या वे ( यह तमाम उत्पात करके ) मघुब॒न के फल खा सकते थे ?
पृष्टि विधि मन विवार कर राजा | आई गये कपि सहित समाजा ॥
आह सबन्हि नावा पदु सीसा। मिले सबन्दि प्रति प्रेम कपीसा ॥
पूँछी छसलल कुसक पद देखी। राम कृपा भा काज्ञ विसेखी॥
नाथ काझु कीन्हेउ इच्चमाना | राखे सकल कपिन्द्र के प्राना ॥
राजा–सुप्रीव | सीखा–शीपे, सिर। कपीसा–चन्दरों के
स्वामी (तत्यु०) सुभ्रीव | पद–चरण । पद्देखि–चरण देखने
से | राखे-रक्षित, रक्खे, बचाए |
सुप्रीच इस प्रकार सनमें विचार कर रहे थे कि इतने में सव बन्द्र अपनी संडली सहित वहाँ आ पहुँचे ।सब ने आकर सुमीव के पैरों में सिर झुकाया । सुग्रीव सब से बड़े प्रेस से मिले और कुशल पूँछी। ( बन्दरों ने उत्तर दिया ) “आपके चरणों के 32 ही सव कुशल हैं। रामचन्द्र जी की कृपा से सब काय विशेष रूप से ( अथोत्त् अच्छी तरह ) पूर्ण हुआ है (अथवा जिस विशेष कार्य के लिए हम्त लोग गए थे वह रामचन्द्र जी की छपा से पूरा हो गया) । हे स्वामी, हनुमान जी ने
कार्य पूरा किया है और तसाम्न बंदरों के आ्रण बचाए हैं
‘. झुनि सुप्रोव बहुरि तेहि मिल्लेक। कपिन्ह सहित रघुपति पहँ चलेऊ ॥
राम कपिन्ह जब भझावत देखा। किये काजु सन हरप चिसेखा॥
बहुरि–फिर, दूसरा | तेहि-हनुमान् जी से ।
यह सुनकर सुम्रीव हनुमान जी से दुवारा मिले और सब बंदरों के लेकर रामचंद्र जी के पास चले । रामचंद्र जी ने जब बंदरों के आते हुए देखा (तो उन्होंने समझा कि ) इन्होंने कार्य पूरा कर लिया और उनके मन में विशेष हर हुआ ।
फटिकसिल्षा बैठे दोड भाई। परे सकल कपि घरनन्दहि जाई॥
प्रीति सहित स्व सेंटे, रघुपति फरनापुझ ।
पूँछ्ी कुलल नाथ अब, कुसल देखि पदकझ् ॥
फटिकसिला–स्फटिकशिला ( स्फटिक एक अ्रकार का सफेद
पत्थर होता है, जिसे संगमरमर कहते हैं) परे–पड़े, गिरे ।
करुणापुज-करुणा के ढेर (तत्यु०), पद॒पकज–चरण कमल
( रूपक ) | ‘
दोनों भाई ( रामचंद्र जी ओर लक्ष्मण जी ) एक संगमरमर की शिला पर बैठे थे। सब वंद्र जाकर उनके चरणों में गिर पड़े । कृपानिधि रामचंद्र जी सब से सम्रेम मिले ओर उन्होंने कुशल पूछी । ( बानरों ने कहा )) “हे नाथ, अब आप के चरण कमल देखकर सव प्रकार कुशल है ।”
जामवन्त कह सुन्रु रघुराया | जापर नाथ करहु तुम्ह दाया॥
वाहि सदा खुभ कुसद्व निरन्तर । सुर नर सुनि प्रसन्न ता ऊपर ॥
सोह बिजई बिनई गुण सागर । तासु सुजसु अयज्ञोक उजागर ॥
रघुराया–रघुराज । जापर–जिसके ऊपर । दाया-दया।
. निरंतर–सदा, लगातार; अठहृूठ। छुम–शुभ/ कल्याण । ता
ऊपर–उसके ऊपर । बिजई-विजयी ।‘ विनई–विनयी ।
सुजसु-सुयश, सुंदर कीत्ति । अयलोक–तीनों लोकों में,
स्वर्ग, मत्ये और पाताल में । उजागर–उब्जागर, जागती हुई।
फैली हुई । !
जाम्बवान् ने कह, ‘हे रामचंद्र जी, सुनिए दे खामी। जिसके ऊपर आप दया करते हैं उसके लिए सदा झुभ और कुशल है; देवता, मठुन्य और सुनि उस पर प्रसन्न रहते हैं; वही सदा विजयशील, विनयशील ओर शुझों का सागर है, उसकी सुकीत्ति तीनों लोकों में फैली रहती हं–
प्रभु को कृपा भयठ सु काजू | जनम हमार सुफल भा भाजू॥
नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी । सहसहुँ सुख न जाद से बरनी ॥
पवनतनय के चरित सुहाये । जामबन्त रघुपतिदि सुनाये॥
आजु–आज, अद्य । करनी–करणीय, काम ।
“प्रभु (आप) की कृपा से सब कार्य पूरा हो गया । (जिससे) हमारा जन्म आज सफल हुआ। हें स्वामी, वायुपुत्र हनुमान जी ने जो काम किया है उसे हज़ार झुख से भी वर्शन नहीं किया जा सकता ।” ( इतना कहकर फिर ) जाम्बवान ने रामचन्द्र जीं के हनुमान् जी के सुन्दर चरित्र कह सुनाए ( कि उन्होंने लंका जाकर क्या क्या किया )।
सुनत कृपानिधि सन अति भाये | एुनि हजुमौन हरपि हिय क्ाये ॥
कहहु तात केहि भाँति जानकी। रदति करति रच्छा स्वप्रान फो ॥
हिय–हृदय । रच्छा–रक्षा । स–अपना |
( हलुमाव् जी का चरित्र ) सुन कर दयासागर रामचन्द्र जी कै मन को बड़ा अच्छा लगा। फिर उन्होंने हर्षित होकर ‘इलुमान् जी को हृदय से लगा लिया ( और पूछा ), “है तात,
कही सीता जी ( उन राक्षसों के बीच में ) किस प्रकार ऋदते श्राणों की रक्षा करती हैं ?”
भाम पाहर दिवस निम्ति, ध्यान तुर्दार कपाट |
कोचन नि#-पद-जंग्रितत, जाँएि पान केंद्वि थार |
घन्नन मोदि चूदामणि दीन्ही । रघुपति हदय क्ाइ सोद क्ोन््द्ी ॥
नाथ शुग़जलोचन भरि बारी। दचन फटे कछु जनक कुमारों ॥
झनुग समेव गऐेद प्रभु चरनगा। दीनवन्धु. प्रनतारतिहरना ॥
नाम–आप का नाम । पाहरू–अरहरी, पहरेद्ार। कपाट–
क्िवाद । लोचन–नेत्र । जंत्रित–ताऊछे से जकड़े हुए । बाद–
पथ या बर्ता; सागे, रात्ता। जुगल–युगल, दोनों । गहेहु–
पकड़ों, पकड़ना । प्रनतारतिहरन–अणनततिहरण, विनीत के दुःख
को दूर करने वाले (तत्पु०)।
भोंट–पहले तीन चरणों में रूपक अलंकार, पूरे दोहे में अ्मेक्षा ये । शोर
( हनुमान जी ने उत्तर दिया )-“आप का नाम तो गत दिन ( जिसका बह उच्चारण करती रहती हैं ) पहरेदार है ओर आपका ध्यान कियाड़े हैं और अपने पेरों की ओर सदा लगे हुये उनके नेत्र ताला हैं–फिर प्राण किस मार्ग से जा सकते # ? ( कहने का तात्पय यह है कि शरीररूपी मकान के द्वार में किवाड़े भी लगी हुई हैं और ताला भी लगा हुआ; बाहर पहरेदार भी खड़ा दे । ऐसी दशा में उस भवन में बन्दीरूप से प्राणों को निकल जाने का मार्ग नहीं मिलता)–श्री सीताजी ने वहाँ से चलते समय मुमे ( चिन्द् स्वरूप ) चूड़ामरिस दी है ३
रामचन्द्र जीने हनुमान जी से चूड़ामरिण को लेकर हृदय स : लगा लिया | ( हनुमान जी फिर कहने लगे )–हे नाथ, सीता जीने दोनों नेत्रों में जल भर कर आप के लिए छुछ वचन कहे हैं। ( उन्होने कहा है कि ) छोटे भाई लक्ष्मण सहित प्रभु रामचन्द्र जी के ( मेरी ओर से ) चरण पकड़ता (और कहना कि ) आप दीनों के वन्धु और विनीतों के दुःख को दूर करने
वाले हैं ।
मन क्रम बचन चरन अलुरागी। केहि सपराध नाथ हाँ त्यागी ॥
शबगुन पक :मोर में जाना। विद्दुरत प्रान न कीन्द पयाना॥
हों–अहम, में । अवशुन–अवगुण, दोष । मोर-मेरा
अपना | पयान–अयाण, गमन, जाना ।
मेरा मन, कमे और वचन से आपके ही चरणों में अनु- राग है, फिर किस अपराध से आपने अभे त्याग दिया! हाँ, में अपना एक दोष जानती हूँ कि आप से विछुड़ते हुए मेरे प्राण नहीं निकल गए ।–
.ज्षाय सो नयनन्द्रि फर अ्पराधा । निसरत प्रान कर्राहिं इडि बाधा।
बिरए-अमिनि तलु-सूत् समीरा। स्वास जरह छुन साँद सरीरा ॥
नयन ज्वहि जज्न॒निन्नहित ज्ञागी। जरहइ न पाव देह विरहागी ॥
कर–का | निसरत–निकलते समय, निकलने में । हठि–
जवदस्ती। वाधा–रुकावट ! तूल–रूई । छुन–क्षण |
सवहिं–गिराते हैं, वरसाते हैं। निजहितलागी–अपने हित के
लिए। जरइन पाव–जलने नहीं पाता । विरहागी, विरह-
अगिनि–विरहाग्ति, विरह रूपी अप्ति (रूपक )।
स्वासी, सरो यह तो मेरे नेन्रों का अपराध है जो ग्राणों के निकलने में जबरदस्ती रुकावट डालते हैं। आप का विरह तो अप्नि है और मेरा शरीर रूई तथा साँस (जो में लेती हूँ) वायु है। ( घायु से भड़की हुई विरहरिन से रूई-रूपी ) शरीर एक क्षण भर में जल जा सकता है, परन्तु नेत्र ( आपके दशैनों की आशा में ) अपने लाभ के लिए जल बरसा देते हैं ( अर्थात् रोते रहते हैं, इस कारण ) शरीर विरहप्रि से जल नहीं पाता ।–
अलड्ार–सांग रूपक तथा उस्नेज्ञा का संकर।
सीता के धति पिपति विप्ताज्ञा, पिनहिं कहे भज्ष दीनदयाला॥
निम्तिप निमिष फरनानिधि, जाएि फरपसम बीति।
ग्रेमि चक्षिय प्रभु धानिय, भुजपल्॒ खजदल जीति ॥
झति विसाला-बहुत बड़ी । दीनदयाला-दीनदयाछु,
दीनों पर दवा रखने वाल (तत्यु०)। निम्तिष निमिष–पत्र पल।
फरप–युग । बेगि–जल्दी से | आनिय-ले आइए ।
शुतबल–अपनी भुजाओं के बल से | खलदल–दुए राक्षसों के
समूह को (तत्यु०)।
(अब हलुमान् जी कहते हैं. कि ) “हे दीनों पर दया करने वाले प्रनु, सीता का कष्ट चहुत बड़ा है–उसका न कहना ही ठीक है. । उनके एक एक पल एक एक युग के समान बीत रहा है। आप जल्दी से चल कर और अपने वाहुवल से राक्षुसों के समूह के जीत कर उन्हें छे आइए ।”
सुनि सीता-दुख प्रश्न सुख-ऐना । भरि थाये जक्त राजिव नैना ॥
बचने काग्र सन मम गति जाही । सपनेहु वृक्तिय विपति कि ताही ॥
ऐन–अयन, धर स्थान | सुख-अयन–सुखधाम (त्त्पु०) ।
राजिवनयव-कमसल के समान नेत्रों में (उपसा) | गति–पहुँच॑;
शरण । जाहि–जिसके | सपनेहुँ-+स्वप्त में भी | यूकिय–पूछ सकती हैं |
सीता जी के दुःख के सुन कर सुखधाम प्रभु रामचन्द्र जी के कमल से नेत्रों में जल भर आया। (और उन्होंने कह) “मन, कर्म और वचन से जिसे मेरी ही शरण है उसे कया स्वप्त में भी विपत्ति पूछ सकती है! (अरथोत् उसे स्प्न में भी हुःस नहीं हो सकता ) ।” ।
पा इलुसन्त विपति प्रभु सोई | जब तव सुमिरित भजननु नहोई॥ .
कैतिक बात प्रमु जातुधान फी । रिपुद्धि जीति पआानिवी जानकी॥
केतिक–कितनी । आनिभ्री–लिवा लाई जाएँगी । सुमिरन– .
‘ स्मरण, याद | ।
हनुसान जीने कहद्दा, “हे प्रभु, विपत्ति तो वहीं है कि जब आपका स्मरण ओर भजन नहीं दाता । (अथात् आपके भजन में बाधा होना ही असली विपत्ति है, और सब विपत्तियाँ तो तुच्छ हैं) | स्वामी, राज्सों की कितनी सी बात है? शत्रु के। लीत कर जानकी जी लिवा लाई जाएँगी ।” |
सुनु कपि तेोहि समान उपकारी । नहि कोट सुरनरमुनितलु घारी ॥
प्रति-उफकार फरठ का तोरा । सनमुख ऐोह ने सक्षत्र सन सोरो ॥
उपकारी–भलाई करने वाला । तनुधारी–शरीरवान्, शरीर
धारण करने वाला । प्रतिनठपकार–उपकार का बदला |
श्री रामचन्द्र जी वोले, “हे कपि, सुनो, तुम्हारे समान भेरा उपकारी कोई शरीरवान् देवता, मनुष्य या मुनि नहीं है । तुम्हारे उपकार का मैं क्या वदला दे सकता हूँ ? (तुम्हारे उपकार से इतना दवा हुआ हूँ कि) मेरा सन तुम्हारे सम्मुख नहीं हो सकता ।”? |
सुन सुक्ष तोहि उरिन में नाहीं । देखेड फर विचार सन माँहीं।
घुनि पुवि कपिहि चित्व सुरक्षाता। लोचन नीर पुलक भत्ति गाता ॥|
उरिन–उऋण, ऋशभुक्त, जिसने कज् चुका दिया है।।
चितव–देखते थे । पुल्क–रोमांच ! गात–गात्र, शरीर।
सुरत्राता-देवताओं के ज्राता या रक्षक (तत्पु०) |
हे पुत्र, मेंने मन में सोच कर देख लिया कि में तुम्ारे (उपकार के) ऋण से नहीं छूट सकता ।” देवताओं के रक्षक रामघन्द्र जी वार बार एनुमान जी की ओर देखते थे, उनके नेत्रों से जल बह रहा था और शरीर में रोमाथ्व दे रहा था।
झुनि प्रभु-यचन विज्ञोफि सुस्र, गात हरपि हनुमन्त ।
घरन परेड प्रेमाकुज्न, त्राहि त्राहि भगवस्त॥
प्रभु अचन (तत्पु०)। हरपि-हर्पित होकर। त्राहि–रक्षा
करो ।
भगतान् के बचन सुन कर ओर उनके मुख की ओर देख कर हनुमान जी शरीर से पुलक्ित हा उठे और प्रेम में व्याकुल दी कर रामचन्द्र जी के चरणों पर गिर पड़े (वथा कहने लगे) ।
दे भगवन् , मेरी रक्षा करो, रक्षा करो ।”
बार बार प्रभु चहएि उठावा। प्रेससगन तेहि उठव ने भावा ॥
प्रभु-कर-पक्षथ कपि के सीसा | सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा ॥
प्रभु कर पंकज–रामचन्द्र जी के हाथ रूपी कमल (तलु०।
ऋूपक) | उठव–उठना | दसा–दशा | मगन–सग्न, डूबे हुए,
प्रेममग्न । गौरीसा-गौरीश, गौरी के स्वामी (तत्यु० );
रामचन्द्र जी वार वार हनुमान् जी को उठाना चाहते हैं परन्तु प्रेम-मग्न हलुमान जी के उठना, हा.” नहीं लगता | भगवान हलुमान जी के सिर पर हाथ रक्खे हुए हैं। उस दशा के याद करके महादेव जी भी प्रेम में मग्न है| गये ।
सावधान मन फरि पुनि संकर। लागे कइन कथा श्रति सुन्दर ॥
कपि उठाई प्रभु हृदय लगावा। करि गहठि परम निकट बैठावा ॥
शिवजी अपने (प्र ममग्न) हृदय के सावधान करके फिर ., इस सुन्दर कथा के (पाती जी से) कहने लगे। रामचन्द्रजी ले .- हनुमान् जी के उठा कर हृदय से लगा लिया ओर उनका हाथ. : पकड़ कर उन्तका अपने पास बेठाया ।
फहु कपि रावन-पालित लंका । केद्टि विधि देहु हुगे भ्ति चंका॥
प्र प्रसज्ष जाना इनुमाना। बोला यचन विगत-असिमाना॥
रावन पालित–रावण से पाली जाती हुई (खत्यु०)। .
दहेहु–जलाया | वंक–टेढ़ा अथात् दुगेम | विगत-असिसाना– –
अभिमान रहित ( तत्पु० )।
( रामचन्द्र जी ने पूछा ); “हे हनुमान जी कहो, रावण हरा पाली जाती हुई लड्जा के टेढ़े दुम को तुमने किस प्रकार जलाया ?” हनुसान् जी ने प्रभु को प्रसन्न जान कर ये अभिमान- रहित बचन कहे– >
साझाम्ग के बढ़ि सनुसाई । साखा तसें साखा पर जाई ॥
नाँधि सिंधु द्ाटकपुर जारा । निसिचर-गन चधि विपिन उज्ारा।
सो सत्र तब प्रताप रघुराई । नाथ न फहछ्ुु मोरी प्रभुताई ॥
सलुसाई–मलुष्यता, पुरुषार्थ | नाधि–कूद कर | हाटक– –
छुबण | हाटकपुर–सोने का बना हुआ सगर ( सध्यसपढ़-
लोपी कर्मघारय ) लंका। गन-नगण, समूह । वधि–मार
कर । विपिन–बन, अशोक वाटिका | तब–आपका |
बन्दर का बड़ा पराक्रम तो यही है कि एक डाल से दसरी डाल पर कूद जाए । मैने समुद्र को कूद कर लंका को जला दिया ओर राक्ष्सों के समूह को मार कर वन को उजाड़ डाला | यह सब आप ही का अताप था। | इसमें कोई मेरी वड़ाई नहीं है
ताक फहु प्रभु अगम नहि, जापर तुम्द अनुकूल ।
तथ प्रताप यद्वानलहि, जारि सकदट खलु तूज्न ॥
ताकहूँ—उसकों । अगस–अगमस्य, असम्भव, कठिन ।
बड़वानल –वह अग्नि जो समुद्र के भीतर रहती है । जारि
सकईइ–जला सकती है | खछु–खल, तुच्छ, खलछु, निश्चय ही।
तूल–रूई ।
– हि प्रभु, उस मनुष्य के लिए कोई वात असम्भव हहीं है जिसके ऊपर आप की कृपा होती है ।” आप के प्रताप से तुच्छ रूई भी वाइवाग्ति को जला सकती है । ( अथवा रूई भी निए- चय ही वाड़्वाग्नि को जला सकी है ) |
नाथ भमगत्ति श्रति सुख-दायिनी। देहु कृपा करि ‘नपायिनी ॥
सुनि भर परम सरल कपि-वानी | एवमस्तु तब बहेड भवानी ॥
उसा रामन्सुभाव जैहि जाना। ताहि भजनु तजि भाव न झाना ॥
ग्रष्ठ संचाद जासु उर आवबा। रघुपतति-चरन-भगति सोह पावा ॥
सुखदायिनी–सुख को देने वाली ( तथयु० ) | अनपायिनी–
कभी नष्ट न होने वाली, नित्य रहने वाली | सरत्–सीधी,
कपट रहित | एवमस्तु–ऐसा ही हो। आना–अन्य, दूसरा।
जापु–जिसके । उर–हृदय । रघुपति चरन भगति-रामचन्द्र जी
के चरणों की भक्ति ( तत्पु० )।
नाथ, भुझे कृपा करके अपनी नित्य रहने वाली तथा परम सख की देने वाली भक्ति दीजिए ।” ( शिवजी पाव ती जी से कहते हैं कि ) ‘हे भवानी हनुमान जी की ऐसी विश्छेल वाणी को सुन कर भगवान ने कहा-ख्मस्तु । हे उसा, जो महुष्य रासचन्द्र जी के ( कोमल ) स्वभाव को जानता उसके लिए उनका भजन छोड़ कर दूसरा कोई भाव ही नहीं है ( अथोत् वह सदा राम-भजन में ही मग्त रहता है। रामचन्द्र जी तथा हनुमान जी के इस ) सम्बाद को जो मनुष्य अपने हृदय
में रखता है वह रामच द्र जी के चरणों की भक्ति को प्राप्त कर लेता है
सुनि प्रभु-वचन कहदि कपि-घुन्दां। जय जय जय कृपालु सुस्त कन्दा ॥
तब रघुपति कपिपतिहिं घुक्लाघा। फहा चलहू कर करहु घनावा॥
कपिदू द–बन्दरों का समृह ( तत्पु० )। खुखकंद-खुख की
जड़ ( तत्पु०), सुख के उत्पत्तिस्यान। कपिपतिहि–सुप्नीव को ।
चलइ कर–चलने का । पनावा–तैयारी ।
रामच द्र जी के वचन सुन कर वानरों का समूह कहने लगा; “है सुखमूल, कृपाछ्ु भगवन् आप की जय हो, जय हो ।” तद- सन्तर रामचंद्र जी ने सुप्रीव को बुलाया और उससे कहा ॥
(अब लक्ढा पर चढ़ाई के लिए ) चलने की तेयारी करो ।–
अब विज्ञग्हु केदि कारन फीजै। तुरत फपिन्द कहुँ झायसु दीजे ॥
कौतुक देखि सुमन यहु बरपी । नभ तें भवन चले सुर हरपी ॥
विलस्व–देर। आयसु–आज्ञा । सुमन–पुष्प। नभ–
आकाश ।
“अब किस कारण से देर की जाए । तुरंत ही व दरों को आज्ञा दे दो ।? यह कोतुक देख कर देवताओं ने (जों आकाश से यह सब देख रहे थे ) बहुत सी पुष्प बषो की और बेप्रसन्न होकर
आकाश से अपने अपने स्थानों को चले ।
कपिपति बेशि थोलाये, झ्राये जूथप जूथ।
नानानवरन अतुलपल, यानर-भालजु-बद्थ ॥
जुूथ–यूथ, कुंड, गिरोह । यूथप–गिरोह क्के सरदार,
सेलापति । नाना वरन–नाना वर्ण, तरह तरह के रह्ष हैं जिनके
(घहु०) अनेक प्रकार के। अतुलबल–अटितीय बल वाले।
(धहु०)। भाछु–रंछ | वरूथ–समूह ।
(रामचंद्र जी की आज्ञा से) सुम्रीव ने जल्दी से बानरों आदि को घुलाया। ( उनके चुलाने पर ) अनेक रह बाल, परम बलसाली वररा तथा शाला के समह भर उनके सरदार वहों आ पहुँप ।
प्रभु-पद-पंफन नावहि सीत्ता। गर्ल भाड़ मग्नवज कीसा॥
देवी शाम सफल फफपिलेगा। चित्र कृपा फरि राजिवनैना ॥
पुपदपराःज–( तत्पु८५ । रूपक ) चितइ–देखते हैं ।
राजिवमैना–ऋमल नेत्र ( वाचक घसलुप्रोपमा ) ।
ब्रें बलशाली रीक्ष और बंदर रामचंद्र जी के चरण कमलों में सिर भुकाने शोर गजना करने लगे । रामचंद्र जी ने कृपा करके ‘ तमाम यानर सेना को अपने कसल के समान नेत्रों से देखा ।
राम-हपा-यक्ष पाह्ट कपिन्दा | भये परुदुछत मनहेँ गिरिन्दा ॥
एरपि राम तब कीन्द्र पयाना। सगुन भये सुन्दर सुभ नाना॥
रशामकृपावल- (तत्पु० ) | कपिन्दा–क पीन्द्र, बंदरों के सर-
दार | पच्छुजुत–पक्तयुत, पंख वाले । गिरिन्दा–गिरीन्द्र, पतों
के सरदार अशथोत् बड़े पर्वत । पयान–अ्रयाण, रानगी।
सगुन–शकुन | सुभ–शुभ |
वें विशाल बंदर रामचंद्र जी को कृपा का वल पाकर ऐसे हो गए मानों पद्मवार चढ़े बड़े पतत हा । तव रामचन्द्र जा असन् होकर ( लड्षा के लिए ) खाना हुए । उस समय बहुत से अच्छे ओर मद़ल सूचक शकुन हुए |
अलकु/र–पहली पंक्ति में उत्प्रेज्षा ।
जासु /सकज्ष संगजसय कीती। तासु पयान सगुन यद्द नीती॥
प्रभु-पयाव जाना बैदेही । फरकि बास अंग जब कहि देही॥
कीती–कीति, यश । नीति–लोकमयोंदा । वाम–वाँया |
जनु–मानो |
जिस भगवान् के यश ( अथात् चरित्र या नाम के जप) में ही तमाम मंगल हैं उसकी यात्रा के समय शक्ुन हों। यह केबल सर्यादा की बात है। ( अथात् भगवान् का नास लेने से स्वयं सव प्रकार का मंगल होता है, दूसरे लोग उससे तर जाते हैं; फिर उसे अपने कार्य में शुभसूचक शकुनों की क्या आवश्य- कता है। परन्तु भगवान् लीला कर रहे थे, अतः लोकव्यव- हार फी मयादा बनी रहे इसीलिए ये शक्रुन हुए-) | ( उघर लंका में ) सीता जी को रामचन्द्र जी के चलने का हाल माह हो गया । उनके वाएँ अज्जों ने फड़क कर मानों उनसे यह वात कह दी हे।
जोड जोह सगुन जानकिदि होईं। असगुत भयठ रावनहि सोई ॥
चक्बा कटकु को वरनदूं पारा। गजहिं बानर सान्ु अपारा॥
नख-आयुध, गिरि-पादप-घारी । चल्रे गगन सहि इृष्छा चारी॥!
केहरिनाद_ भालु-कपि करहों । डगसगाहिं. दिन चिक्करहीं ॥
कटक–सेना । कोइ बरनइ पारा–कौन वर्णन कर सकता
है। नख-आयुध–नाखून ही हैं. श्र जिनके ( बहुजओहि ) ।
गिरिपादपधारी–पवेततों और वृक्षों के धारण करने वाले
(तसु०) । गग़न–आकाश । भहदी–प्रथ्वी ।
इच्छाचारी–इच्छा से ( इच्छाउकूल ) चलने वाले (तत्यु०)। केहरिनाद–सिंह का सा गजन । द्गज दिशाओं के हाथी । ( हिंदुओं का ऐसा विश्वास है कि सब दिशाओं में अलग अलग हाथी स्थित हैं, ह रे धथ्वी फो धारण किए हुए हैं ) चिकरदी–चिंघाड मारते से समय सीतार्ज। फे। जेस जैसे शक्षुत हो रहे थे वैसे दी दस रावण को अदशछुत टोने लगे। रामचंद्र जी की सेना चली | उसका कौन दर्शन कर सकताओ ? असंख्य बंदर और रीछ गरज रहें थे। अपने नग्बरूपी अख्ों से युक्त वे पेतों और वृक्षों के जे छेकर अपनी अपनी इन्छानुसार आकाश में और प्रथ्वी ‘ यर चलने लगे | रीह ओर बंदर सिंधों फे समान गजता कर रहे थे। ( उनके प्रस्थान और मिंदनाद से ) दिशाओं के हाथी डग- मगाने और पिंपाउने लगे |
दिक््यादिं दिग्गज दोल संधि गिरि लोक सागर सरभरे ।
मन एरपं दिनफर सोम सुर सुनि नाग किश्वर हुख टरे ॥
फ्रदक्ट दि मर्कट ग्रिकट भट बहु कोटि कोटिन्द धाव्दी।
जय राम प्रवत्-प्रताप फोसलनाथ शुन-गन गावहीं ॥
डोल-डोलती थी, हिलती थीं । लोल–चलायमान,
चच्य्यल । सागर खरभर–ससुद्रों में खलदलाहट होने लगी।
दिनकर–दिल के फरने वाला (तत्यु०), सूय। सेाम–चंद्रमा ।
नाग, किन्नर-देवजातियाँ | टरे-दूर हुए। मकंट–वंदर ।
भद– योद्धा । प्रवल्प्रताप–अवल है. प्रताप जिनका (वहु०)।
कोंसलनाथ–कोशल अ्थात् अयोध्या के स्वामी रामचंद्र जी
(तसु०) । ह
( इस सेना के प्रस्थान के समय ) दिशाओं के हाथी चिंघा- इने लगे, प्रथ्वी हिलने लगी पहाड़ चलायमान हो गए और, समुद्रों में खलबली पड़ गई। सूर्य, चन्द्र, देवता, मुनि, नागों और किज्नरों के मन में प्रसक्षता हुई (कि अब हमारे ) ढुःख दूर हुए | वानरगण भयंकर रूप से किटकिटाते हैं और योद्धागण ‘ करोड़ों की संख्या में इधर-उधर दोड़ रहे हैं। सब रामचन्द्र जी की गुणावली गाते हैं. और कहते हैं, “अयोध्या के स्वामी परम प्रतापी रामचन्द्र जी की जय हो ।”
सद्दि सक न भार उदार अद्दिपति बार चारहिं मोहई ।
गहि दुस्तन पुनि पुनि कम्-पृष्ट कटोर सो किमिसोहई ॥
रघुबीर-रुचिर-पयान-प्रस्थिति जञानि परम सुहावनी।
जनु क्रम5-पर्पर सपरान सो लिखत भबिचक्ष पावनी ॥
अहिपति–सपों के स्वामी, शेपनाग । मोहई–मोह में पड़
जाते हैं, मूछित होते हैं। दसन- दशन, दाँत। कमठ–कछुआ।
कमठ प्प्त–कछुए की पीठ ( तत्यु० | शेपनाग भी इस प्रथ्वी को
धारण करने वालों में हैं जो कछुए की पीठ पर बैठे रहते हैं )।
किमि–किस भ्रकार । प्रस्थिति-अस्थान, तैयारी, अथवा वृत्तान्त
अवस्था । रघुवीर. ..प्रस्थिति–( तत्यु० ) । अविचल–हृढ़,
असिट । खर्पर–खोपडी, यहाँ पीठ ।
उस सेना के ( संचालन के ) भार को उदार शेपनाग सहन नहीं कर पाते और वार वार मोह में पड़ जाते हैं ( कि ऋब क्या करें। अथवा उस सेना के बोम से वार चार मूर्छित हो जाते हैं) ओर वार बार (अपने को सँभालने के लिए) कछुए की कठोर पीठ को अपने दाँतों से पकड़तेहें । उनकीयह दशा कैसी शोभाव- मान होती है मानो रामचंद्र के प्रयाण के मनोहर, परम सुहावने
और पवित्र वृत्तान्त को जानकर वह उसे कछुए की (कठोर) पीठ पर अमिट करके लिखते हों ।
पृद्दि बिघि जाइ कृपानिधि, उत्तरे सागर-तीर ।
जहँ तहँ लागे खान फत्न, भालु बिपुल कवि बोर॥
सागरतीर–समुद्र के किनारे (तत्पु०) पर ।
इस प्रकार कृपानिधि रामचन््द्र जी (रवाना होकर) समुद्र के किनारे जाकर हरे, और असख्य वीर वन््द्र और रीछ जहॉँ-तहाँ ‘ फल खाने लगे ।
उहाँ निसाचर रहद्धि ससंफा। जब सें जारि शपठ कपि लंफा॥
लिश निम्त गृए सब फरहिं थिदारा | नहििं निश्चिचरकुक्त फेर उबारा ॥
उहा–वहाँ; लंका में । सशंक्रा–भयर्भीत । केर-का
उधर, जब से हनुमान जी लंका जला कर गए तब से राक्षस भयभीत रहने लगे और अपने अपने घरों में विचार फरते थे कि अब राक्षस-झलका उद्धार नहीं |
जासु दूतन्यन्ष यरनि न जाई। तेहि आए पुर कवन भल्ताई ॥
दूसिमा सन सुनि पुर-जय-धानी । भनन््दोद्री अधिक श्रकुल्ानी ॥
कवन–कोन, क्या । दूतिन्द सत–दूतियों से | पुरजनवानी–
मगर के लोगों की बात चीत (तत्पु०) | अकुलानी–व्याकुल हुई ।
(राज्स लोग सोचते थे कि) जिसके दूत का वल ऐसा है कि कहा नहीं जा सकता उसके स्वयं आने पर नगर की क्या कुशल रह सकती है? नगर वासियों की ऐसी बातचीत को दूतियों के द्वारा सुन कर सन्दोदरी बहुत व्याकुल हुई |
रहसि जोरि फर पति-पद् ज्ञागी | वोज्ञी बचन भीति-रस-पागी ॥
फंस पारप हरि सन परिहररहू । मोर कह्दा भ्रति हित द्विय धरहू ॥
रहसि–एकान्त में । जोरि कर–हाथ जोड़ कर ! नीतिरस-
पागी–नीति और स्नेह (इन्द) से पगे हुए (तर्पु०) कंत–प्यारे,
स्वामी ! करप–कर्प, खिंचाव, बैर । परिहरहु-छोड़ दो।
(मन्दोदरी) एकास्त में अपने पति के पेरों में पड़ कर और द्वाथ जोड़ कर नीति तथा स्नेह से सने हुए बचन बोली कि, ४हे स्वामी, भगवान् के साथ खींचातानी के छोड़ दो और मेरे इस दितकारी कथन के हृदय में धारण करो |”
सम्ुुरुत जासु दूत कर करनी। खबहिं गर्भ रजनीचर घरनी॥
तासु नारि निजसचिव बोलाई। पठ्वहु कंत जो चहहु भक्ताई॥
समुभत–विचार करने से। करनी -करणीय, कर्म ।
खबहिं–गिर जाते हैं | घरनी–ग्रहणी, खली | पठवहु–भेज दो ।
“जिसके दूत के कम का विचार करने से राक्षसों की स्त्रियों के गर्भ गिर जाते हैं. उसकी पत्नी को, हें स्वामी, जो तुम अपना भला चाहते हो तो अपने मंत्री को घुला कर (उसके पास) भेज दो–
तब कुल-कमल-विपिन-दुख-दायी। सीता सीत निसा सम झाई ॥
सुनहु नाथ सीता विन्नु दीन्हे । हित न तुम्दार संभु श्रज कीन््हे ।॥।
हे विपिन–वन । छुल‘ ‘ ‘दायी–कुल रूपी कमलवन के दुख
देने वाली (तयु०) | सीतनिसा–शीत निशा, जाड़े की रात,
पालेवाली रात । सीता सीता ( यसकानुआस )। सम–समान |
संझु–शम्सु, शिव जी | अज–अह्मा ।
“’ुस्दारे छुलरूपी कसलबन के दुःख देने वाली यह सीता
जाड़ों की रात ( जिसमें पाला गिरने से पेड़-पौधे नष्ट हो जाते हैं ) के समान आई है। हे नाथ, सीता के लौटाए बिना, शिव और ब्रह्मा के किए भी तुम्हारा उपकार नहीं हे सकता |–”
राम बात अधहिसनसरिस, निकर तिसाचर भेक।
जवलगि म्सत न तथ लगि, जतन करहु तल्नि टेक ॥|
अहिगन–सपो का समूह (तत्यु)) ।! सरिस सह्श,
* समान | भेक–मेंढक । अ्सत–निगल्ता है ।-जतन–यत्न,
“रामचंद्र जी के वाण सर्पों के समान हैं और निशाचरों के. –‘सहमू मेंढकों के समान | जब तक (ये बाणरूपी सर्प राक्षसरूपी मेंढक के ) नहीं खाते हैं तव तंक, अपनी जिद छोड़कर, (अपनी – रक्षा का ) उपाय कर लो ।” – अलझ्लार–उपसा |
खबन सुनी सठ ताकऊर बानी । बिहँसा जगत-विद्त अभिसानी ॥
सभय सुभाद नारि कर. साँचा । सहर महुँ सथ॑ मन भ्रति काँचा |।
जगतविदित–संसार भर में प्रसिद्ध (तत्पु०) । सुभाव–
स्वभाव । साँचा–सत्य । काँचा–कच्चा । हर
उसकी (मंदोदरी की) बातों के काओें से सुनकर संसार-प्रसिद्ध . अभिमानी रावण हँसा ( और घोला ), “यह सत्य ही है कि ज्लियों का स्वभाव डरपोक होता है ओर उन्हें मंगल की बात
में भी भय माल्ूपत होता है। उनका सन बड़ा कब्चा होता है ।”–
जौ आवह सरकद-कटफाई । जियहिं बिचारे निश्चिचर-खाई।॥
कंपहि लोकप जाशी त्रासा। तासु नारि सभीत् बढ़ हाँसा।।
जो–थदि । लोकप–लोकपाल । त्रासो–भय से। बड़-
: हाँसा–बड़ी हँसी की बात है ।
«यदि बंदरों की सेना यहाँ आ जाएंगी तो बेचारे राक्षस” बंदरों के खा. खा कर जी जाएँगे । ( अतः यह तो ह॒ष की वात है : कि चानरगण यहाँ आ रहे हें, इसमें डरना नहीं चाहिए )। बड़ी हँसी की बात है कि जिसके भय से लोकपाल तक काँपते हैं. उसकी श्री ऐसी डरपोक हो ।‘
अस फह्िि पिहँसि ताहि उरवाईं। चछेठ सभा समता भधिडाई।
मन्वोदरी हृदय फरि चिन्ता। भग्रउ फंत पर विधि विपरीता॥
भमता–अहद्वार | विधि–अत्रद्म । विपरीत–अतिकूल,
विरुद्ध ।
ऐसा कह कर रावण ने मंदोदरी के हृदय से लगा लिया ओर बड़े अहद्भार से अपनी सभा को गया ।( वहाँ) मंदोदरी ‘ चिन्ता करने लगी कि पति के ऊपर विधाता अतिकूल हुआ है।
बेठेड सभा खबरें अस पाई । सिंधु पार सेना सब झाई॥
बूमेसि सचिव उचित मत फइहू। ते सभ्र हसे मष्ट फरि रह ॥
जितेहु सुरासुर तत्र सम साहीं। नर बानर केह्ठि छेखे माहीं॥
मत–णय, सलाह । सष्टि करि रहहु—चुप मार कर वैठे
रहो । सुरासर-सुर और असुर (दन्द) । ज्रम–अम ! केहि
माही–कफिस गिनती में हैं
रावण अपनी सभा सें जाकर बैठा । वहाँ उसे खबर मिली कि बानरों को तमाम सेना समुद्र के पार आ गई है। वह अपने मंत्रियों से पूछने लगा कि, “उचित सलाह दो” । उन सब से हेसकर कह्दा कि, “चुप मार कर बैठे रहिए ( अथौत्त् निश्चित्त , रहिए, कोई चिन्ता करने की जरूरत नहीं है क्योंकि ) जब आपने देवताओं और राज्षसों की विजय की थी तसी कोई परिश्रम हा था; फिर मनुष्यों और बंदरों की तो गिनती ही क्या सचिव बैद गुरु तीनि जो, प्रिय कोलहिं भय भास ।
: राज घम्में तन तीनि फर, होइ वेगि ही नास॥
.. चैंद-चैंध । आस–आशा । तन–तनु, शरीर । प्रिय–
‘मुशामदी ।
, – ( तुल्लसोदासजी कहते £ कि ) संत्री, बेच और गुरू भय के कारण अथवा आशा से यदि ( सत्व वात न कह कर मन के अच्छी लगने वाली ) खुशामद की बात कहते हैं तो राज्य, शरीर और धर्म, इन तीनों का शीत्र ही नाश हो जाता है।
( अंत्री यदि उचित सलाह नहीं देता तो राज्य नहीं रह सकता, ! बैग यदि रोगी से सश्ी बात नहीं फहता तो रोगी के शरीर का ज्ञाश होता दे और गुम यदि शिष्य की ‘हाँ में ‘हाँ? मिलाता
कै तो घमम का रहना असम्भव है )।
खाई रावेन कहे धनी सद्दाईं। अस्तुति फरद्धि सुनाइ सुनाईं।।
ग्रवसर जानि विभीषनु धावा। आता-चरन सीस तेष्टि नावा॥
सोइ–बही बात ( जो दोहे में कही है. )। सहाई–सहाय,
सहायक | अस्तुति–स्तुति, म्शसा।
वद्दी ब्रात अब रावण को सहायक हुई–( उसके सचिव ) सुना सुनाकर उसकी प्रशंसा करने लगे (और किसी ने सच्ची सलाह नहीं दी । इसी समय) अवसर देखकर विभीषन रावण के सामने आया और उसने भाई के चरणों में सिर नवाया |
पुनि सिम नाह्ट पैठि निध भासन। बोला दचन पाइ अजुसासन ॥ ,
भौ कृपाछु पूछेह मोहि वाता। सति-अनुरूप फदर्ठ ह्वित ताता | ,
पुनि–पुन;; फिर, दोबारा । आसन-स्थान, बैठने की
जगह । अनुसासत–अनुशासन, आज्ञा | हि
दोवारा सिर झुकाकर विभीषण “अपनी जगह पर बैठ गया‘
– और रावण की आज्ञा पाकर बोला, “दे कृपा, जो आप मुमसे:
सलाह पूछते हैं तो, तात, में अपनी बुद्धि के अनुसार भरे की बात कहता हूँ ।”
जो प्रापत चाहद कल्याना। सुभसु सुमगि सुभाति सुर गाना॥
सो परनाए्िलितार गोताई। तनह चौथ के चन्द्र किनाई‘॥
आपन–अपना | लिलार–ललाट, मस्तक | चौथके चंद
भाद्पद मांस के शुहुपत्त की चतुर्थी का घन्द्रमा।वाई–
तरह ।
“जो महुष्य अपना कल्याण; सुयश, सुबुद्धि, शुभ गति तथा तरह तरह के सुख चाहता है उसे, हे त्वामी, परत के ललाट के चोथ के चन्द्रमा की भाँति छोड़ देना चाहिए ।”–
चौथ का चाँदः–हिन्दुओं में ऐसा विश्वास है कि भाह्ुद्ध के चौथ के चन्द्रमा को देख लेने से चोरी अथवा और किसी प्रकार का कल्लंक लगता है। इसके सम्प‘ध में स्थ- मंतक मरि की कथा स्मरणीय है। स्यमन्तक नाम की अहूुत तेजोमयी मरशि को सन्नाजित् ने सूय से प्राप्त किया था। सत्रानित् का भाई प्रसेन एक वार उस मरि को धारण करके एक जदल में गया जहाँ एक शेर उसे मार कर मणि को अपने साथ एक गुफ़ा में ले गया। वहाँ जाम्वबान् नामक रौछ्ों के सरदार ने उस शेर का बध कर बह मणि अपनी कन्या केखेलने के लिए ले ती। उप्तर सब को यह संदेह हुआ कि श्री कृष्ण ने प्रसेन की हत्या करके मणि चुरा ली है। इस संदेह का कारण यह हुआ कि कृष्ण जी ने चौथ का चांद देख लिया था। तद्नन्तर कृष्ण जी ने जाम्बबान् को हरा कर वह मणि उससे ले ली और उसे उसके अधिकारी सन्नाजित् को दे दिया। इस प्रकार वह उस कक से मुक्त हुए
‘चौदह आुबन पुकपत्रि होई।. घूत-होह. तिष्ठह नहि सरोह॥
गुन सागर नागर नर जोऊ। श्रलप लोभ भल् कहद न कोऊ॥
“ एकपति–अकेला ‘स्वामी। भूत-आणी । यूंतद्रोहं-+
प्राणियों से द्रोह (तत्यु० करके। तिप्ठइ–तिष्ठति ( संस्कृत
जा! धातु का वर्तमानकाल का रूप), –ठ्हरता- है-।
नागर–चतुर | अलप–अरुप, थोड़ा । न
“चाहे कोई मनुष्य चौदहों लोकों का अकेला स्वामी हीं हो , प्र वह भी आशियों से बैर.करके (इस संसार में ) ठहंर नहीं सकता । जो मनुष्य गुणों का सागर और बड़ा चतुर है उसे भी थोड़े से लोभ के होने के कारण कोई भला नहीं कहता ।”–…
“ – कांम्र क्रोध भद लोभ सब, दाथ नरक के पंथ
+ सद परिद्रि रघुवीरदधि‘, भजहु भजद्ठि‘ जेद्दि संत) :
पंथ–माग । परिहरि–छोड़ कर | जेहि–जिसको । « ‘
#हे. स्वामी, काम, क्रोध, सद और लोभ, ये सब नरक के रासे हैं ( अथात् इनके वशीभूंत होकर मलुष्य नरक में पहुँचता है। अतः तुम) इन सव को छोड़ कर .रामचन्द्र जी का. भजन करो जिनको सज्जन लोग भजते हैं |”. हे
ताव राम नि वर भपाला। झुवनेश्वर -कालहुँ कर ‘काला॥
प्रह्म अवामय अमर भगवन्ता। व्यापक अजित श्रनादि अनन्ता-॥
गो-हिज-भैलु-देवनह्ितकारी ।. कृपासिन्ध, साधुस-व्रव-धारी ॥
जन-रक्षन भजजन-सल-ाता । देद-घर्म-चछुंक : सुनु , धाता ॥
. , झरुवमेशवर–विश्व भर के स्वामी, सब भवनों के श्र
(तत्यु०) | कर–का | अनामय–आमय से रहित (वहु०), निवि –
कार। अज–जन्म रहित) जो कभी पैदा त हुआ हो । व्यापक्र-
सत्र रहने वाला,. सर्वव्यापी । अजित–जिसे -कोई-ज़ जीत
सका हो | अनादि -जिसका आदि या आरम्भ न हो (बहु०),…
जो हसेशासे हो। अनन्त–जिसका कभी अन्त न हों, मत्युरहित |.”
गोहिजपेनुदेव हितकारी-प्रृथ्वी, ब्राह्मण, गऊ और देवताओं
(हल्द) का हित करने बाला (तत्पु०)। माहुपतलुधारी-मलुष्य
शरीर (कर्मघारय) धारण करने वाले (तत्पु०)। जनरंजन–
सेवकों के. सुख देने वाले (तत्पु०)। खलब्ाता-भंजन–हुष्टों के‘
समूह को नष्ट करने वाछे (तत्पु०) | रचछक–रक्षक । ह
“हे तात, रामचन्द्रजी मनुष्य या (सामान्य) राजा नहीं हैं, . वह तो चौदह लोकों के स्वामी और मृत्यु की भी सृत्यु हैं। वह साज्ञात् परवनह्म हैं, निर्विकार हैं, जन्मरहित भगवान हैं; व्यापक, अजित, अनादि और अनन्त हैं। कृपा के सागर भगवान् रामचेन्द्र जी प्रथ्वी, जाह्मण, गऊ, और देवताओं के हितकारी हैं (इसलिए कृपा करके) उन्होने मनुष्यशरीर धारण किया है। है भाई। सुनो, वह अपने सेवकों के प्रसन्न करने वाले और :ढुष्टों का नाश करनेवाले तथा वेद और धम के रक्षक हैं ।–.
ताहि बयरू वजि नाहय साथा। भनतारतिभझन रघुनाथा ॥
देहु नाथ प्रश्ु कई वैदेही। भजहु राम विन्नु हेतु सनेह्ी ॥
सरन गये प्रश्नु ताहु न र्पागा। विस्वद्दोहक्त भ्घ जेहि ल्ागा
जासु नाम त्रयताप-वसावन | सोह भ्रश्लु प्रयट समुझु जिय रावन ॥
वयरु–वैर, शत्रुता । नाइय–नवाओ, भुकाओ | प्रनतारति
अंजन–अणतातिभ जन; पणतों (वनीतों) की आति (कष्ट) ६
भंजन (दूर करने वाले। तत्पु०)। विन देतु-बिना कारण के
सनेही-स्नेही, सरन–शरण । ताहु-उसका भी । विश्व
दोहकूत–विश्व के द्रोह से उत्पन्न हुआ। (तत्पु०) | अघ–पाप
अयतापनसावन–तीनों तापों (अथात् शारीरिक, मानसिक. ओऔ फष्टो) का साझा फरने घाल्या (तत्पु०)। प्रयताप (द्विगु)।
सिय–जी व, एद्य में उनके साथ पैर द्रीए कर उनें अपना माथा सवाज्ं। सुघुनाथ मी विशीत भगुष्य के दुष्य फो दूर फरने वाले हैं। हे सामी: प्रभु रामनन्द्र ज्षी को सीता सी लौटा दो। रामचन्द्र जी का भजन फरो जो विना कारण प्रेम करने बाले ? । उसकी शरण में जाने पर पड उस व्यक्ति लगा को नहीं स्थागते जिस तमाम बिल से झधुता झरने का अपराध लग चुका है । हे रावण, हृदय में समझे रफ़्मो कि (समचन्द्र जी के रूप में) वहीं प्रभु (पृथ्यी पर) प्रकट हुए? जिन्तका नाम लेने से तीनों प्रकार के पम्प नष्ट हो जाते हैं ।
पार यार पद सागठ , दिनय करत युससीस ।
परिहरि सान सोद्द भद्, माहु कोसलाधीश॥ए
सुनि पुझस्पि निज सिष्य सन, फहि पड यह थात ॥
मुरत सो में प्रभु सन फही, पाह सुघवसर सात ॥
फोसशाधीस–फोशल फे अर्थीश रामचन्द्र जी (तत्यु०)।
मिप्य–शिप्य । पठई–भेजी । सन-से । |
हे रावण, भें वार वार तुम्हारे चरः्यों में पडता हूँ ओर विननी करता मान, सोह ओर मद को छोड़ कर कोशला- श्री रामचन्द्र जी का भजन करो। पुलस्त्य ऋषि ने यह बात अपने शिष्य के द्वारा कहला कर भेजी है, सो मेंने, हे तात, अन्छा मौका पाकर पुर्त (अर्भ) अपने मरभु (अथात तुस) से कह दी।
मास्यवन्त भरत सबिद सयाना । तासु बचन सुनिथ्रति सुख माना॥
ताह झलुत्त तब नीति-यिभूषन | सो उर घरहु जो कृत विभीपन ॥
अति सयावा-चरड़ा चतर। अनुज–छोटा भाई । नीति
विभूषत–नीति का विभूषण (तल्यु० | झ़पक), अथवा नीति है
भूषण जिसका (वहु०), नीति का एडित ।
माल्यवान नाम के चतुर सचिव ने विभीषण के वचन छुनकर बड़ा सुख माना ओर रावण से कहा, “हे तात) तुम्हारे भाई नीति के जानने बारे है; जो विभीपण कहते हे उस धारण कीजिए ।
रिपु-ठतकाप कहते सठ दोऊ। तृह्तिन करहु इदां हद फोक
साह्यवन्त शहर गयठ बदोरी | कहदहू विभीषन पुनि छऋर जोरी ॥
उतकरप–उत्कप, बढ़ाई ।
(रावण क्रोध में मर गया और चोला) “थे दोनों दुए्ट शत्रु की बढ़ाई की बात कहते हैं। केई यहां है ? इनके यहा से दूर * ब्रग्नों नहीं कर देते ।? (यह सुनकर) साल्यवान् फिर अपने घर चला गया ओर विभीषण पुनः हाथ जोड़ कर कहने लगा |
सुमत्ति फृम्रति सब के उर रहदी । नाथ पुरान नियम अत्त फहदी ॥
जहाँ सुमति तहँ सम्पति नाना । जहां कुमति तहँ विपति निदाना ॥
सुमति, कृमति–संबुद्धि, दुवु द्धि। निगस–बेंद । अस–
. ऐसा | निदान–परिणाम, अन्त | ;
“है न्ञाथ, वेद पुराण ऐसा कहते हैं कि सदवुद्धि और दुबु द्ध दोनों सव के हृदय सें रहती हैं । (परन्तु) जहाँ सु्रति (की प्रधा- नता) होती है वहाँ तरह तरह की सुख-सम्पत्ति रहती है और जहाँ कुमति (की प्रधानता) होती है, वहाँ ढुःख ही उसका परि- णाम होता है ।”
, तब उर कुसति बसी विपरीता | द्वित अनहित भानहु रिप्रु श्रीता ॥
फाकराति निसिचर कुल केरी। तेहि सीता पर प्रीति घनेरी ॥
विपयेता–उलदी । प्रीता–मिप्र । फेरी–की | भमेरी
अधिक | हित–भलाई । प्रतदित–घुराई ।
छुझारे हदय में उलटों दुचुद्धि बसी हुई है जिससे तुम
अलाए की वाह का चुरी (अथबा मित्र का शत्र) और शब्रु को
मिप्त समभतेत। भार जो सीना गाजस कुल की कालरात्रि के.
समाग 7. उसी पर नुस्दारी बात अधिक प्रीति है ।
वाय घन गरहि माँग , राग्यएु मार दुकार ।
सीना देएू गम कु, सहित ने होई तुस्दार ॥
दसार-जनाह। भगता, अतुरोध।
है चन्छु। में पर पकड़ कर तुमस मांगता हूँ – मेरे अनुरोध
के रख लो | सीता जा के रास का दे दो । इसमें तुम्हारी वराई
नहीं गागी ।
बुब-एसमनल विनसस्मत वागी। फद़ी विभीयन नीति बखानी॥
सुनत दसागन उठा रिसाईं। खन्च तोदि निकद सम्यु भय आई ॥
जियसि सदा सह सौर जियावा । गिएु पर पच्द सूढ़ तोष्ि भावा ॥
बुधपुसनबतिसम्मत–विद्वानों पुराणों ओर वेदों (इन्द्र)
से मानी हुई (तत्पु०)। बखानी–ब्याख्या करके, समझा कर |
रिसाई-ओोव करके । पच्छु–पत्त, तरफ़दारी । भावा–पसन्द
खाना #. पमजछा लगता ह. द
इस प्रकार विभीषण ने पंडितों, पुराणों तथा वढों के द्वारा उचिन मानी हुई नीति की वात के समझा कर कहा। परन्तु रावण उसके सनतें ही क्रोध करके उठा और बोला, “रे दुष्ट तैंसी मृत्य अब निकट आ गई है। हमेशा मेरे जिलाए (अर्थात भेरे ही आम्य से) तू जीता है (परन्तु इस समंय) तुके शत्रु की तरफदारी अच्छी लगता है
कहसि न खत्त श्त् को जग साहीं । भुलपत्र जेहि नीता में नाई ॥
मम पुर बप्ति तपसिनपर प्रीत्तो | सठ मिलु जाइ तिन्द हि. कहु नीती ।॥।
भ्रस कि कीन्देसि चरनप्रहारा। पनुत गे पद बारदि वारा ॥
तपसिन–तपस्विन। चरण प्रहार–पर का आवधात (तत्यु०)
“रे दुष्ट, कह न, संसार से एसा कोन हैँ जिस भत्ते अपना भुजाओं के वल से जीता न हो ? मेरे नगर में रह कर तपस्वियों से प्रीति रखता है। दुष्ट, जा उन्हीं से मिल, उन्हीं को नीति सिखा ।” एसा कह कर रावण ने विभीषण पर पर का आघात किया (लात मारी, परन्तु) विभीषण वार बार (नम्नता से) उसके पैरों के पकड़ता जाता था |
उसा संत फू हृहई चढ़ाई। संद फरत जो फरह भक्ाई ॥
तुम पितु सरिस भछेह्ि मोहि मारा । राम भजे हित चाय तुम्हारा ॥
कईइ—की । हहइ–यही । सन्द–चुराई। सरिस–सरश,
समान |
(इस असंग का देखकर शिव जी पाबेती जी से कहते हैं कि) है उमा, सज्जन का चड़प्पन यही हैं कि (किसी के उसके साथ) बुराई करने पर भी (वह उसके साथ) भलाई करता है ।” (विभी षण ने रावण के लात मारने पर कहा कि), “हुम ( मेरे बड़े भाई हो; इसलिए) पिता के समान हो । तुमने मुझे मारा सो उचित ही है। ( में फिर भी कहता हूँ कि ), “हे नाथ रामचंद्र जी का भजन करने से तुम्दारा भला होगा ।”
सचिव संग लेह नभपथ गयऊ। सबहि‘ सुनाह छत अस भयऊ ॥
रासु सत्य-संकल्प प्रभु, सभा कालयस त्तोरि।
में रघुवीर-सरन अब, जाए देहु जनि खोरि ॥
सभप्र-थाकाश फा मांग (वल्तु5)। खस बाहत भयकझ+
गशसा ऋन लगा। सत्यस्त कल–पत्य ही जिनका स कल्प है
६ बहुल ) , सत्वप्रतित, सस्य का पतश्ष छेने चाले। कालबस–
फाह्न के बश में ( तत्ु०)। तोरि-सेरी । जनि-नहीं, मत।
खोरि- बुराई, दोष ।
सिदनस्तर विभीषण ऊपत्त) सचियों को साथ लेकर आफकाश- माम में बा भया पौर यहां से सब्र को सुना कर इस प्रकार गफने लगा; है रायण, तेसे सभा मृत्यु फे बद्ष में हो रही है
रामसचरद्र मी सत्य का पक लने वाले ४६ में तो श्मव उन्हीं की शरण में जाता है । मुझे अत दीप न देना
प्राप्त काट भक्मा विभारग बबही। शरापुद्ाग भये सब सबएी॥
साए धाशा तुटा सपानी | पर फत्यान अखिल फे हानी॥
शायन आपहि! विभीषणु ्थाया । भयद विभय दिए तथहि अमागा ॥
आयु दीन भये–आयु नष्ट हो गई पअथोन् मृत्यु निकट आ
गे | सब–सव रात्स। अवश्ा-निरादर ! अखिल कल्यान
$–सब प्रकार के कल्याण की । कर हानी–हासति करता है।
नष्ट कर देता है । विभव विनु–विभव हीन, ऐश्वय द्वीन ।
ल्िस समय पिभीपण इस प्रकार कह कर वहाँ से चला तभी तमाम राज़सों की आयु नष्ठ हो गई। (शिव जी कहते है कि ) “|; पाव नी जी; सजन का निरादर तत्काल सब प्रकार के कल्याण को नष्ट कर देता है ।” जिस समय ही रावण ने विभी- पश का त्याग किया उसी समय वह अभागा (रावण ) अपने क्षेमब् को खतरों वेठा ।
चढ़ेंद इरप. रघुनायक पाहीं। करत सनोरथ बहु सन माही ॥
देखिएर्टँ जादू चरन-लब जाता। भरुण महुज् सेवकसुस दाता ॥
पाहीं–पास । साहीं–में । जलजात–कृमल । चसलजल-
जाता–(रूपक) । अरुण–लाल ! शदुल–कोमल । सेबक-
सुखदाता-सेवकों के सुख देने वाला (तत्पु०) | मनोस्थ–कामना,
संकटप ।
विभीषण प्रसन्न होकर अपने मन में अनेक संकल्प करता हुआ रामचंद्र के पास चला। ( वह सोचने लगा ); “में जाकर रामचन्द्र जी के लाल लाल और कोमल चरणकमलों के देखूँ गा जो सेवकों के सुख देन वाले हैं ।”
जा पद् परांस तरीं रिसिनारी। दंढक-फासनन-पावनकारी ॥
जे पद जनपसुता उर लाग्े। फपट-कुरंग-संत घर चाये ॥
इर-उल्सर-सरोग पद जेई । भट्ो भाग से देखिदट तेई ॥
परसि–स्पश करके, छूकर | रिसिनारी–ऋषिनारी। ऋषि
की पत्नी | (तत्यु०), अहन्या | पावनकारी–पविन्न करने वाला
(तत्पु०) | दंडक. . .कारी–(तत्यु०) | कपट कुरंग–कपटरूप वाला
– संग (तत्पु० अथवा कर्मघारय), सारीच । घर धाये–पकड़ने के
दौढ़े । हर-३२–महादेव जी का हृदय (तट्यु०) | उरःसर–ददयरूपी
तालाव (रूपक) । हरउरसरसरोज–महादेव जी के हृदयरूपी
तालाव का कमल (तत्पु०)। जेई–जो। तेई–बे, उन्हे |
“मेरा अह्योभाग्य है कि में उन्ही चरणों के देखूँगा जिनका स्पशे करके अहल्या तर गईं, जो (रामचन्द्र जी के चलने से) दंडक वन को पवित्र करने वाले हैं, जिन चरणों के श्री जानकी जी हृदय में धारण करतो हैं, जो चरण कपटरूपी मग को पकड़ने के लिए उसके पीछे दौड़ पड़े थे तथा जो चरण शिव जी के हृदयरूपी तालाब के कमल हैं (अथोत् जिन चरणों का महादेव जी हरदम अपने हृदय में ध्यान करते हैं )
हपिनारी:–गोमत ऋषि की पत्नी अहल्या की कपषा का सकत है । एक यार जब फ्रषि समान करने गए हुए थे हब इन्द्र उनका रथ पारण करके ‘सह़ल्या के पास आया ओर छु से इस भरिन्रश्नट् हर दिया। गांतिस को जन पता लगा तो इन्हांत एहस्या फा शाय दिया कि पत्थर हों जा। अ्रहत्या के पिनती फरने पर फिर उर्होंन कहा कि जब रामचन्द्र जी के बस्खों से तरा स्पर्श धगा तो त् फिर मरी हो जाएगी। अहल्या सभी से पस्थर कली दिला घनी पट्टी थी । जब रामचन्द्र जी अपने शुरू विश्वाणित्र के साथ धनुपयता देखने के लिए जनकपुर जा रोम नव माय में अहल्या की शिला मिली। शुरु के कहने से उनोंने उसे अपन चरण से छू दिया और वह पुनः अपने पृवेकूप को प्राप्त हो यई ।
फपट-छुरा:–सर्पएणसा की जब नाक फाट ली गई
ओर खर दृषण ओर प्रिशिरा मारे गए । तो शपणखा रोती हुई
शदशा के पास गई । रावश ने उस समय चंदला लेने के लिए
मारीच के घुला कर कहा, “तू स्ण स्ग का करृप धारण कर
जह्द| राम रहते हैं वहां जा। जब दोनों भाई तुझे मारने के लिए
तरें पीछे दौड़ गे तो में सीवा के अकेले में पाकर हर लाऊँगा ।”
मारीच ने ऐसा ही किया और रामचंद्र जी के बाण द्वारा बध को
आम हुआ |
झिन्ह पायन्द् के पादुकन्दि, भरत रहे मन जाइ ।
में दद धाम विजोकिन्रञी, प्रन नयतन्हि भव बाइ | _
पावन–चरण | पाहुका–खड़ाऊ। रहे मन लाइ–मन में
लाए हुए हैं, सन में ध्यान करते रहते है
जिन चरणों की पाहुफाओं का भरत जी अपने मन में ध्यान करते रहते हैं उन्हें अब आज जाकर में अपने इन मेत्रों से देखूँ गा ।”?
तनोट–भरत रहे सन लाइ:–कंकयों ने दशरथ जी से दो बर भाँगे थे, एक तो रामचंद्र जी का वनवाल ओर दूसरा भरत के राज्य | रामचंद्र जी के बनगमन के पश्चात् जब भरत जी अपनी ननिहाल से लौटे तो उन्होने अपने बढ़े भाई के राज्य के लेना अस्वीकार किया। परन्तु जब गुरुजनों ने समझाया कि “राज्य का फाम तो होना ही चाहिए और अत रामचंद्र जी के पीछे बड़े होने के कारण तुम्हारा ही उत्तरदायित्व है,” तो भरत जी ने उनके प्रतिनिधि की हैसियत से कार्य करना स्वीकार किया और राज्यासन पर रामचंद्र जी की पाहुकाओं की पतिप्ठा की । उन्होंने चौदह वर्ष तक स्वयं साधु-जीवन व्यतीत किया और अपने के रामचंद्र जी की पाहुकाओं के अश्रधीन सममते हुए राज्यकाय को सँभाला ।
हि विधि करत सप्रेम विचारा । श्रायउ‘ सपदि सिन्धु येहि पारा ॥
सपदि–शीघ्र । येहि–इस, अग्ात् समुद्र की दूसरी तरफ़
जिधर रामचंद्र जी थे। इस प्रकार प्रेमपूवक विचार करता हुआ विभीषण शीध्र समुद्र के इस पार पहुँचा ।
कपिन्ह विभीषन् भ्रावत देखा। जाना कोड रिएु दूत बिसेखा॥
ताहि राखि कपीस पहि‘ आये। समाचार सब ताहि सुनाये ॥
रिपुदूस–शत्रु का दूत (तत्यु०) । विसेखा–विशेष । राखि–
रखकर, रोककर | कपीस–सुप्रीच ।
बंदरों ने जब विभीषण के आता हुआ देखा तो उन्होंने समझा कि या श्र का फोड खास दूत है। (इसलिए वे ) उसे रोफ़ कर सुप्रीय के पास नए फोर उसे सत्र समाचार झुनाया। हट सुझोव सुझट रघुरा।ई ।
आागा सिल्नम दुसानगन्भाईं।॥।
पद भनु स्म्श शुस्यि छाह्ा। झहुड फीस सुमहु मं गांहा ॥
इसाननमाई-नतलु ८) । बूमिये–समकते हो। काहा–
ग्य ।
नरनादा–नरनाथ. मनुष्यों का स्थामी: राजा, ईश्वर । सुपोव ने ( बंदरों का समाचार सुनकर रामचंद्र जी से) कहा; ‘एू रघुताथ जी; सुनिए, राषण का भाद मिलने आया है |” सखुताथ जी बोले; ‘टें मित्र, तुम क्या सममते हो (क्रिस सत- लब से बह माया है ) 2” सुमीव ने उत्तर दिया, ‘फ्रै भगवन, सुमिए!
जञामि मे जाय निसाइसरमाया। रामरूप फेट्रि फरम थावाता।
भेद एमार जेन खडे झागा। गशंमिय ग्रांधि मोष्दि अस्त भाग ॥
कामरुप–क्राम ( इच्छा ) से रूप है जिसका (बहु०), जो इच्छा के अनुसार अपना रूप बनान्यदल सकता हे। शाक्षस रससगल में उत्पन्न विभीषण । भावा–पसन्द है | भसत्ततों की माया सममर में नहीं आती | ( न मालूम यह ) गात्तम फिस कारण से आया ह । धूत (शायद) हमारा भेद लेने
आया ट । मुझे तो यद वात पसन्द्र आती हे कि इस बाँध रकक््खा ज्ञाम
सखा भीति तुम नौक विचारी। मम पन सरनागत-भयहारी ॥
स॒चि प्रभु उचन हरत इल्ुमाना। सरनागतन्यच्छूल भगवाना ॥
मीक–अच्छी । पत–अण; प्रतिज्ञा । सरनागतभयहारी–
शरण में आगत ( आए हुए ) के भय के ६सने बाला (तत्पु०) ।
बच्छल–चत्सल) अनुप्रह करने वाढू ।
रामचन्द्र जी बोले, “है मित्र, तुमने उचित नीति साची हूँ । (परंतु) शरण में आए हुए मनुष्य के सयथ को दर करना मेरी प्रतिज्ञा है ।” रासचंद्र जी के थे शब्द सुनकर इनुमान जी को (इस बात का) एप हुआ कि संगवान शरणागत व्यक्ति घर अनु- ग्रह करने वाले है ।
सरनागत् फहुँ जे तम्रिं, निज श्रमदित अनुमानि।
ते नर पासर परापमय, ठिन्रष्टि‘ प्रिज्ञोफन हानि ॥
कहुँ—के । अनुसानि–विचार करके। अनसित–हानि।
पामर–नोच, चाण्डाल । विलोकन–देखने से | हानि–जु राई ।
शमचंद्र जी बोल, “जो लोग अपनी हानि की श्का करके शरण में आए हुए व्यक्ति को छोड़ देते हैं; वे नीच हैं, पापी है– उन्हे देखने में भी बुराई है ।–
पोदि विप्रबध ज्ञागहि जाहू | भागे सरन तजठों नहिं ताहू॥
सनमभुख होहि जीव सोहि भवहीं | लन््म फोडिच्यछ नासदि लथओों ॥
काठि–करोड़ । पििप्रवध–त्राहषण की हत्या (तत्पु०)।
तजउ–छोड़ता हूँ | सनमुख–सम्बुख, सामने | आध–पाप ।
जिस मनुष्य को करोड़ त्राप्ृशों की हत्या (का पाप तक) लग चुका है, शरण में आने पर में उसे भी नहीं त्यायता हूँ । जैसे ही कोई व्यक्ति भेरे सामने आता हैं बैसे ही उसके करोड़ जन्म तक के पाप नष्ट हो जाते हैं ।–
पापवन्त कर धहन सुभाऊ। भ्रज्षत मोर तेदि भाद न फाऊ ॥
जो पै दुए-हदय सोइ होई। मोरे सममुख चाय फि सोडा
पापवन्त–पापवान, पापी । सहज–कुदरती, पेदाइशी।
काऊ–करभी । जो पै–यदि । छुटछदय–हुष्ट है ददय जिसका
(बहु०) । सोइ–चह, विभीषण ।
“दापी सनुष्य का दह सहज स्वभाव होता है कि उसे भेरा भजन कमा अच्छा नहीं लगता । बदि विभीषण दृष्ट हृदय वाला दाता ता क्या यह सर सामने आता १–
निर्मेज्ञ मन जम सा मोदि पाया । मोदि फरद द्कएिंद्र न भाषा ॥
भेद छेग पढ़या देससोस्ता | तयझुँ न कार भय हानि कपीसा ॥
निर्मेल–लवच्छ, साफ़, फपटरद्वित | निर्मेलमन–निर्मेलमन
है जिसका (यटु०) | जन-ममुप्य ।
पज्ञों मनुप्य निमेल मन बाला हैं वही कुके पा सझता है. (क्थोंफि) मुझे छल-क्रपट पसनन््द्र नहीं। और यदि रावणते उसे भेद लेने के लिए भी भेजा | तो भी, सुत्रीव, कोई भय या हानि की धात नहीं
संग भें रुपया निसाचर जेते। लद्धिमनु धनह निमिष महँ तेते ॥
थीं सभीत भ्ावा स्वर नाई। रणिहड ताहि प्रान को नाई ॥
जग–जगत् , संसार । जेते–जितने । हनइ–मार दें ।
लनिमिष–पत्रकः मारने में जितनी देर लगती है उतनी ।
नाइ–माँति ।
‘ सखा, संसार में जितने भी राजस हैं उन सव को लक्ष्मण पलक मारते मारने नष्ट कर सकते हैं। और यदि विभीपण अवभीत होकर शरण में आया हैँ तब तो में उसे अपने प्राणों की तरह रखे गा +-
उभय भांति तेष्टि झ्ानहु, ६ सि कह कृपानिकेत ।
जय ऊृपाल फहटि फषि चले, अंगद-दहनू-समेत ॥
उभय–दोनों | उसय-भाँति–दोनो अवख्ाओं में । आनहु–
ले आओ | कृपानिकेत–क्ष पा के स्थान (तत्यु०) | अंगदहनूसमेत
रामचंद्र जी ने हॉस कर कहा, “(अतझव) दोनों अवसाओं में (अथात्, चाहे वह भेद लेने आया हो, चाहे डर कर शरण के लिए) उसे यहाँ ले आओ ।” ( यह सुनते ही) तमाम बन्द्र ‘ अंगद ओर हनुमान् जी के साथ, “जय कृपाछ, जय कृपाल” कहते हुए (विभीपण को लिवा लाने के लिए चले) |
सादर तेहि झ्रागे करि घानर। चले जहाँ रघुपति फरुना कर ॥ा
दूरहि ते देखे बोठड आतठा। नयनानन्दु-दावच के दाता॥
सादर–सम्मानपूर्व क । इज्जत के साथ (अव्ययी भाव) ।
करुणाकर–दया के खजाना (तत्पु०) | नयनानन्ददान–नेत्रों
को आनन्द का दान (तत्यु०) +दाता–देने वाले
वे बानर विभीपण को सम्मानसहित आगे करके वहाँ ले चले जहाँ रामचन्द्र जी थे । विभीषण ने दूर से ही दोनों भाइयों (राम ओर लक्ष्मण) को, जो कि नेत्रों को आनन्द का दान देने वाले थे, देख लिया।
बहुरि राम छुविधाम विलोकी | रहेउ झठुकि एकटक पत्ष रोकी ॥
भुज प्रतमम्ध क्ंजारन लोचन | .स्पामज्ञ गात प्रतत-भय सोचन ॥
सिइकंध झआयत उर सोहा। शानन अमित्त-मदन-सन सोद्ा ॥
वहुरि–फिर। छविधाम–सुन्दरता का घर. (तत्पु०)
‘बिलोकी-देख कर। पल–पलक | भुज–वाहु। प्रलस्ब–
लम्बी | कंज-कमल | कजारुणलोचन–कमल के समान
लाल नेत्र हैं जिनके (वहु० उपसा) । श्यामल–सॉवला । गात–
गात्र। शरीर । अरणतभयमोचन–विन्ीत के भय को दूर करने
वाले (तसु०)। सिंहकंध–सिंहस्कंध–सिंह कासा कंधा हैजिनका
(बहु०) । आयत–चौड़ा । उर-उरस, वक्तखल, सीना।
अमित–अनेक असंख्य । सदन–कामदेव । ‘
५. इिनन्दर घुन्दरता के घर भी रामचंद्र जी को फिर देखकर विभीषण एफटड हो पलकों को रोककर ठिठक रहा ( अर्थात रामचन्द्र जी का सोन्दरय ऐसा था कि विभीषण स्त॑मित हो गया
आर पन्नकों फ्रा मिरता बंद कर एक्टक उनको देखने लगा। उनकी लग्पी लम्बी भुजाएँ थीं, कमल के समान कुछ सुर्खी लिए एुए नेत्र थे और सॉचला शर्रर था जो विनीत दोकर आने बालों के भय के दर फरता था। सिंह फे से पुप्ट उनके कंधे शे, चौड़ी छाती थी शीर मुख्य ऐसा था. जो अनेक कामदेवों के भी मन क्रो मोदित करने बाला था |
नपन मोर पुलफित भति गाता | भन धरि चीर कह्दी सहु बाता॥
शाप दुसानन कर में आाता। निसिचर-बंस जनम सुरचाता ॥
साल पापप्रिय सामस देद्ा।लथा उजूफहि तम पर नेहा ॥
भमीर–तल | घरि धीर–धीरजण घर कर, सेंमल कर ।
मृदु–फोमल ‘ कर-का | बंस–वंश कुल। सुरत्राता-
देवताओं फे रत्तझयः (तत्पु०)। सहज–खाभाविक । तामस–
तमोगुण से भरा हुआ । उइ्छकहिं–उछकों। तम–तमस,
अँधेरा। नेह–स्नेह, प्यार, अनुराग | जथा-यथा, जैसे ।
(रामचन्द्र जी की छत्रि को देख कर विभीपण प्रेम से विहल हो गया और उसके) नेत्रों में जल भर आया तथा शरीर सेमांचित हों गया। फिर अपने सन को सेभाल कर उसने कोमल वाणी में कद्दा, “हे नाथ, हे देवताओं के रक्षक, में रावश का भाई हैं. और राक्षसों के कुल में मेरा जन्म हतआ है (अतः) स्वभाव से ही भैरे तसोंगुण से बह शरीर को पाप से अलुराग है जिस प्रकार कि उछ, को अंधेरे से अजुराग होता है ।-+
खबब सुजस सुनि आयऊ , प्रश्नु भंजन-भच-भीर !
श्राहि त्राहि आरतिन्हरन, सरन-सुखद रघुवीर ॥
ख़बन–अ्रवण, कान | सव–उत्पत्ति, संसार। भीर–कष्ट,
संकट । भंजन-भवभीर–संसार के (अथवा संसांर रूपी) कष्टों
को नष्ट करने वाले (तत्यु०) । ्राहि–रक्षा करो । आरति-हरन–
दुःख को हरे वाले (तत्यु०) | सरन-सुखद–शरणागत को सुख
देने वाले (तत्पु०) ।
“कानों से आप की कीति को, कि अस्ुु (आप) संसार के (जन्मसत्यु रूपी ) संकट को नष्ट करने वाले हैं, सुन कर आया हूं। हे दुःखों को हरने वाले, शरणागतों को सुख देने
वाले रघुनाथ जी, मेरी रक्ता करो, मेरी रक्षा करो।”
अस क॒द्दि करत दुंढवत् देखा। तुरत उठे प्रभु दरप विसेषा ॥
दीन बचन सुनि प्रश्भु मन भावा | भुज विसाल गद्दि हृदव क्षयावा ॥
दडवत्ू–सीधा उलटा लेट कर जो प्रणाम किया जाता है।
दीन–विनीत ।
इस प्रकार कह चुकने पर दंडवत् प्रणाम करते हुए विभी- षणु के जब भगवान् ने देखा तो वह तत्काल बड़े हु से उठ खड़े हुए। उसके विनीत बचनों के सुन कर भु के मन में प्रस- न्नता हुई और उन्होंने अपनी लम्बी आअजाओं से पकड़ कर उसे हृदय से लगा लिया। हि
अज्जुज सहित मित्नि ढिंग बेढारी। बोले बचन भगत-भय-हारी ४
कहु लेंकेस सहित परिवारा। कुसल कुठाहर वास तुम्हारा ॥
दिग–पास | परिवारा-इठुम्ब । कुठाहर–कछुझान,
– छुठौर । लंकेस–लंका का राजा (भगवान् ने विभीषण को पहले ही लड्ढा का राजा कह कर पुकारा )। भक्तों के भय को दूर करने वाले शामचंन्द्रजों न अपने भाई संद्दित उससे मिल कर उसे अपने पास बविठाया और यों चचन
को, हों लफेश, अपने परियार सहित कुशल से तोहो ?
नुम्गारा निवास तो बड़े बुरे खान में है ।)–
पन्षाप्टद्वी पसहु परिनरातोी । सजा धर्म नित्रहह् केंहि भाँती ॥
सें ज्ञान सुझ्यारि सद रोती। झति नयनिपुन न भाव भनीती ॥
खलमढली-दुप््टों का समाज । निबदइ–निभता है ।
रीति-ध्यवद्दार/ जीवन चययो । नग्रनिपुन–तीति में निपुण,
नीति में चतुर। अनीति न भाव–अनीति तुम्दें पसन्द नहीं धरात दिन दुप्टों फे समाज में रहते ४ । मित्र, उस खान में तुम्दारा धर्म किस प्रकार निभ पाता है. ! में तुम्हारे व्यवहार, रहन-सहत के अच्छी तरह जानता हूं, तुम नीति में बड़े निपुण हो और अनीति तुम्हें अच्छी नहीं लगती ।”
बण भज़वास मरक कर त्राता।दुष्टसंग जनि देह विधाता॥
अब पद देशसि कुसकल रघुराया। जौ सुम फीन्दि जानि जन दाया ॥
बरू–भले ही, चाहे । रघुराया–रघुराज | जन–दास,
सेवक | दाया-द्या |
“हे लात; नरक में रहना भले ही अच्छा है, परन्तु तद्मा किसी के दुप्ट मनुष्य का साथ न दे ।” (विभीपण कहने लगा) ‘द्दे खुराज, आपने जो मुझे अपना दास समझ कर कृपा की है सो अब आपके चरणों को देखकर सब प्रकार कुशल है ।”
नये लगि कुप्तल न जीव फहुँ, सपनेहुँ मन विश्राम ।
जब लगि भजत न राम फहुँ, सोक-घाम तनि फाम ॥
जीव-प्राणी, मनुण्य। कहुँ–को | सोकधाम–शोक का
घर, शोक को उत्पन्न करमे वाला | काम–वासना, लालसा।
विश्राम–शान्ति ।
“प्राणी के उस समय तक कुशल नहीं, न झुपने तक में शान्ति ही मिलती है, जब तक वह तमाम अ्रकार के शोकों की घर, वासना के त्याग कर राम का ( अथोत् आपका ) भजन
नहीं करता ।
तब लगि हृदय बसत खत्म नाना । लोभ सोद् मत्सर मंद माना ॥
जब लगि उर न बसत रघुनाथा | घरे चापप्तायक कि भाथा॥
कटि–कमर । साथा–तूझीर, तरकस |
“जब तक हृदय में घठुपवाणधारी, कमर में तरकस लगाए
हुए, रामचन्द्र जी का वास नहीं होता तब तक वहाँ लोभ) मोह,
मात्सय, मद, ओर मान का निवास रहता है ।
ममता त्तरुन तसी अधियारो | राग ह्रेप उलूक सुखकारी ।
तब लगि बसत जीव भन भाहीं | जब लगि प्रभु-प्रताप-रवि नाहीं ॥॥
समता–मोह, अपनापन | तरुणु–उत्कठ, घोर) तसीं–
रात्रि। रागह्व प-उलछक-सुखकारी–राग और हछप (हन्द)-रूपी
उल्लकों (उपमित) को सुख देने वाली (तत्यु०)। प्रभ्लुम्रताप
रवि–अरभ्लुका प्रताप (तत्पु०) रूपी सूये (उपमित)
“ममता रूपी घोर अँधेरी रात, जो रागद्वंष रूपी उल्लओं के सुख देने वाली है, तभी तक सलुप्य के हृदय में रह पाती है जब तक कि भगवछाताए रूपी सूर्य नहीं उदय होता (अथोत् मनुष्य का समता भाव ही अधेरी रात के समान है और जब तक ममता रहती है तभी तक रागादि भी रहते हैं जो उल्छुओं के समान है । प्रभुप्रताप सूर्य के समान है। सूर्य निकलते ही रात भी दूर होजाती हैं और रात के जीव उड़, आदि भी। ईश्वर की भावना हृदय में उदय द्वोते ही ममता राग आदि बुरे भाव फिर नहीं रहने पाते)–
झ्रप में कपल मिदे भदभारें। देखि राम पद-फमल छुरारे॥ा
गुगु शेपाज्त सापर अनुझखा।तादिन व्याप परिव्रिध भवयूला ॥
भवभारे–संसार के कष्ट । व्याप–च्यापते हैं। त्रिविध–तीन
प्रद्यर के प्रयांव शारीरिक, मानसिक और देविक | भवसूला–
भवश्ल, संसार के फट ।
“सो £ राम, अब आपके चरणकमलों का दशेन कर सें सकुशत हूं और मेरे संसार के फष्ट दूर हो गए। हे कृपाल, तुम जिस पर अनुकूल ट्ोते दवा (अर्थात् जिस पर तुम कृपा करते हो) उसे तीनों प्रकार के सांसारिक कष्ट नहीं हो सकते ।”
में मिल्तिचर भ्ति-थधम-सुमाऊ। सुम भाइरन फीन्द नहि काऊ॥
शासु रुप सुनि ध्यान न झावा | तेष्टि प्रमु हरपि हृदय मोहि लावा ॥
अति-अवम-सुभाम–अति नीच स्वभाव वाला (बहु०)
शुभ–अच्छा | आचरण—काम | काऊ–कोई। जासु–जिसका |
“झ परम नीच खभाववाला राक्स ठहरा, कोई भी अच्छा फास मैंने नहीं किया। (ऐसे) मुझ (नीच) को प्रभु (आप)ने, जिनके रूप फा ध्यान तक भुनियों को नहीं हो पाता, (प्रत्यक्ष रूप में) प्रसन्न हो कर छृदय से लगा लिया। (अच्छे कम वाले मुनियों को तो ध्यान तक में आप प्राप्त नहीं होते, ओर बुरे वाले ममे सातात शरीर में आपने हृदय से लगाया, यह आपकी दयाछुत्ता की हृद् है) ।–
ग्रहोभाग्य मम अग्रित अत्ति, शामझपा सुख एुंज।
देखेडँ नयन विरंचि-सिव-सेन्य झुगक् पद कम ॥
अमित–परम । कृपा-सुख-पुंज–कृपा और सुख के ढेर,
कृपा और सुख के निधान । विरंचि-सिव-सेब्य–न्रक्षा और –
शिव (इन्द) से सेवा किए जाने योग्य (तु ०)। ज़ुगल–युगल,
दोनों । कंज–कमल ।
“है क्रपाधाम, सुखधाम, रामचन्द्र ज्ी, मेरा परम अहों भाग्य है कि मैंने अपने नेत्रों से त्मा और महादेव जी द्वारा सेवित आपके दोनों चरणकमलों के दर्शन किए |”
सुनहु सस्ता निज फहहुँ सुभाक | जान भुस्ठुंढि संभु गिरिजाऊ ॥
जौ नर छहोह घराचर द्रोही। झावह सभय सरन तकि सोही ॥
तजि भसद मोह फपट छत्त नाना । फरझँ सच्य तेहि साधु समाना ॥
निज–अपना । जान–जानते हैं। भुसु डि–काकभुशझुण्ड |
ऊ–भी | चराचर–चलने वाले और नचलने वाले पदाथ, चेतन
ओर जड़ पदार्थ, अथात् तमाम जगत् | तकि –ताक कर, देख
कर | सथ–तुरन्त, तत्काल ।
(भगवान् ने कहा), “हे सखा सुनो, अपना स्वभाव तुम्हे बतलाता हूं | काकमुशुण्ड, महादेव जी और पावत्ती जी उस (सेरे स्वभाव) को जानते हैं | (मेरा खभाव यह है कि) जो मनुष्य तसाम विश्व का भी द्रोही है वह भी यदि स सार से समय होकर और मद मोह तथा तरह तरह के छल कपट छोड़ कर मेरी शरण खोजता हुआ आता है तो मैं उसे तुरन्त साधु के समान बना देता हूं।
जननी जनक घंधु सुत दास । तडु घन भवन सुहद परियारा ॥
सब कह सस्ता ताग बढोरी । सम्र पद मनहिं धांघ वरि डोरी ॥
समदरखी हृस्डा पाधु वादहीं। हरप सोक सय नहिं मन माहीं ॥
भल्त सजय संस उरयस कैसे | लोभी-हृदय घसह धन जैसे॥
जननी–माता । जनक–पिता | वन्घु–भाई» रिश्तेदार ।
सुत–पुत्र | दारा-ली । तनु–शरीर। सुहृद–मित्र । कइ–
की | मसताताग–ममता रूपी तागा (उपमित) वरि–बट कर ।
समदरसी–समदर्शी, जो सब को समान रूप से देखता है; जो
न तो किसी को विशेष प्रेस करता है न किसी को घृणा |
“माता, पिता; बन्धु, पुत्र, स्नी, शरीर, धन, मकान, मित्र ओर, कुटुम्ब-इल सब के समता रूपी तागों को बटोर कर और उनकी डोरी वना कर जो मनुष्य अपने मनको मेरे चरणों से बाँध देवा है (अधात् इन तमास पदार्थों के साथ अपने मनको मेरे चरणों में अपित कर देता है), जो सब को समान दृष्टि से देखने वाला है, जिसे न तो कोई इच्छा है और न जिसके हृदय में किसी प्रकार का हप, शोक या भय ही है वह सज्नन भेरे हृदय में किस प्रकार रहता है १–जैसे लोभी मनुष्य के हृदय में धन रहता.है (जिस प्रकार लोभी मनुष्य को धन प्यारा होता है उसी प्रकार उक्त
सज्जन भुमे प्यारा है । )
सुम सारिसे संत प्रिय भोरे। धरउ देद नहि झान निहोरे॥
सगुुन उपासक परदित, निरत नीति-हढ़-नेम ।
ते नर प्रान समान मम, जिनन््ह के द्विज-पद-प्रेम,॥
सारिखे–सदृश, समान। आन–अन्य, दूसरा। निहोरे
– खुशामद, विनती श्रे रणा सगुण-युरों वाला त्रह्म । सगुण-
उपासक–सगुण ईश्वर को पूजने बाला (तट्यु०) पर-ह्वित-निरत–
ह दूसरे के उपकार में लगा रहने वाला (त्तत्पु०) | नेमस–नियम ।
नीति-हृढ़न्तेम–नीति में टृढ़ (पक्का) नियम (निष्ठा या आचरण) है
जिनका (बहु०) | द्विज-्पद-प्रेम-ज्ाह्मणों के चरणों में अमर
(तत्पु०) |
“तुम्हारे समान सज्जन ही सुझे प्यारे हैं। (उन्हीं के लिए) में शरीर धारण करता हूं, दूसरी किसी (वात की) मे रणा से नहीं । जो मनुष्य सगुण ईश्वर की पूजा करते हैं,, जो दूसरे के उपकार में लगे रहते है, नीत-पालन ही जिनका पक्का नियस है और जो ४३ के चरणों में प्रे म रखते हैं थे मुझे अपने प्राणों के समान प्यारे है।?
नोट–सशुन-उपासकः–स सार में दो तरह के इश्वर-भक्त होते हैं –एक तो साकार ईश्वर को मानने वाले ओर दूसरे निरा- कार इंश्वर को मानने वाले | पहले प्रकार के उपासक सशुण उपा- ‘ सक कहलाते हैं और भक्ति मार्गी होते हैं दूसरे प्रकार के निगुश उपासक और ज्ञानमांर्गी ।
सुनु लंकेस सकल गुन सोरे। तातें तुम अतिसय प्रिय भोरे ॥
राम-बचन सुनि बानर जूथा। सकल कहहि‘ जय कृपा-वरूथा ॥
सकल–सब । तातें–इससे, इसलिए | अतिशय–चहुत् ।
बानरयूथ–बंद्रों का समूह | कृपावरूथ–कपानिधि |
“हे लंकेश विसीषण, सुनो, तुस में सब शुण( सौजूद हैं), इसीसे तुम मुझे बहुत प्रिय हो” रामचन्द्र के बचन सुनकर तमास वानर समूह, “जय कृपा सागर, जय कृपासायर, कहने लगे |
सुनत विभोपत श्रश्ु के बानी। नहिं श्रवाव खबनाझूत जानी ॥
पद-अ्ंचुज गध्दि बारहिं बारा। हृदय समात न प्रेम अपारा॥ा
अधात-यूणदम शोना। सवनामृत-अ्रवणासत; कानों के
लिए असृतत्वऋूप । जानी–जानकर । पद-अम्दुज–चरण
कमल ( रूपक समास )
विभीपण प्रनु रामचन्द्र जी की वाणी के अपने कानों के लिए अमृत समान समझ कर उसे सुनते हुए नहीं अघाता | वह बार वार उनके चरण कमलों को पकड़ता £ और उसके हृदय में रामचन्द्र जी का अपार भ्रेम नहीं समा पाता।
घुनहू देव सच्यायर स्वामी | प्रततपावा उर-अंतरजामी ॥
ठर फद्ठु प्रथम पास्तना रही | प्रभु-पद-श्रीति-सरित सो घहो ॥
सचराचर-स्वामी–देतन ओर जड़ ( जगत ) के स्वामी,
तमाम विश्व के सालिक (त्तत्पु०) । प्रशुतपाल–बिनीतों की
रक्षा करने वाले । उर-अन्तर-बामी–हृदय के भीतर जाने वाले
देदय के भीतर की वात जानने वाले (तत्पु०) । वासना–
कामना, इच्छा । अ्रमु-्पद-प्रीति-सरित–भगवान् के चरणों
(तत्पु०) में प्रीति (तत्पु०) की नदी (रूपक) |
( विभीषण कहने लगा ), “हे देव, सुनो, आप समत्त विश्व के स्वामी हैं, प्रशतों के पालन करने वाले तथा (लोगों के ) हृदय के भीतर की वात जानने वाले हैं। (अथोत् आप मेरे हृदय की भी सब्र वात जानते हैं, अतः आप से क्या कहूं ! ) मेरे दृदय में पहल तो कुछ वासना थी, ( परन्तु ) वह अब * आपके चरणों को प्रीति रूपी नदी में वह गई । ( अर्थात् अब कोई वासना नहीं है )–
झब कृपालु निज्र भगति पातवनी । देहु सदा सिवन््सन भावनी ॥
एचमल्तु फहि प्रसु॒रनघीरा । साँगा तुरत सिंधु कर नीरा॥
पावनी-पवित्र | सिवमतमावनी–जों शिव जी के मन को
साती है ( अच्छी लगती हैं; तत्पु)) एवमस्तु-ऐसा ही हो।।
रनधीरा–रखधीर, युद्ध में धीरतापूर्वेक रहने वाले, न घवड़ाने
वाले | नीर–जल ।
“अब हे कृपा करने वाले रामचन्द्र जी; मुमे अपनी वही पवित्र भक्ति दीजिए जो शिव जी के मन के सदा प्रिय है । युद्ध में खिर रहने वाले रामचन्द्र जी ने कहा, “ऐसा हो होगा,” और तुरन्त समुद्र का जल माँगा ।
जद॒पि सखा तब इच्छा नाहीं। सोर दरसु अमोघ जग माहीं॥
अस्त कहि राम तिक्षक तेहि सारा। सुमनदृष्टि नम भई श्रपारा ॥
जद॒पि-नयद्यपि । दरसु-दर्शन । अमोष–अव्यथे,
अचूक । सारा–लगाया । सुमन-ब्ृष्ठि–पुष्पों की वर्षों । नभ–
आकाश सें | अपारा–बहुत, खूब । |
रामचदर जी बोले, “हे मित्र, यद्यपि तुमके (इसकी) इच्छा नहीं है ( कि मैं तुम्हारा राजतिलक करूँ तथापि ) मेरा दशन संसार में निरर्थक नहीं जाता, ( उसका फल ‘अवश्य होता है, इसलिए में तुम्हारा तिलक अवश्य करूँगा )।” ऐसा कहकर भगवान् ने उसका तिलक किया कौर आकाश से फूलों कीं खूब वर्षा होने लगी ।
रावन क्रोध अनक्ष निञ्, स्वास ससीर प्रचंड]
जरत विभोषन शख्रेठ, दीन्देड राज अखंड ॥
रावणक्रोधअतल–रावण की क्रोषरूपी अप्रि (रूपक )।
समीर–वायु । प्रचड–अबल, जबदंस्त । राखेड–रक्ञा की।
अखंड–अमिट ।
रावण का क्रोध अगिन के समान है और (रामचन्द्र जी का) : अपना खास प्रचंड याबु है (जों उस अग्नि को और अधिक प्रख्यलित करता १ । उस क्रोधाग्नि में) जलते हुए विभीषण की भगवानने रक्षा करली जीर उसे (लंका का) अटल राज्यदे दिया |
जो सम्प्ति सिद्र रावनदि‘, दीनिः दिये दस साथ ।
रतोह्ट रूपपदा विभीपनाहि, सकुचि दीनिद रघुनाथ ॥
, माथ–मस्तक, सिर | संपदा–संपत्ति, ऐश्व्य। सकुचि–
सकोच के साथ |
रावण के द्वारा अपने दर्सो सिर दे दिए जाने पर जो संपत्ति शिव जी ने उसे दी थी वह संपत्ति रामचंद्र जी ने विभीषण को संकोच के साथ दी (कि में उसे कुछ नहीं दे रहा हूँ ।) .
झा प्रभु दि भनहि जेपझाना। ते नर पसु विज्ु पूछ विपाना ॥
निम्न जानि ताहि झपनावा । प्रभुसुभाव फफि-कुज्न-मन भावा ॥
आना–दूसरा । पूछ–पुच्छ | विपाना–विपाण, सींग ।
जन-सेवक | कपिकुल–अन्दरों का कुट्ुन्च, बन्द्रों का समूह । ऐसे स्वामी (रामचंद्रजी) को भी छोड़ जो दूसरों का भजन करते हैं वे मनुष्य बिना पूछ और सींग के पझञ्षु हैं। अपना सेवक जान कर उसे (विसीपण को) अपना लिया, रामचन्द्र जी का यह् स्रभाव वानर समूह को बढ़ा अच्छा लगा |
पुनि सर्वश सर्व-उर-यासी | सर्वहूप सब रद्ित उदाली॥
बोले पचन नीतिन्यतिपालक। कारन मनुज दुनुजकुल घालक ॥
सर्वज्ञ-सब कुछ जानने वाले; अत 2 छिपी नहीं है । सर्व-उर-बासी–सत्र के हृदय (तखु०) में रहने वाले (तत्पु०) । सर्वरूप–सव प्रकार के रूपों में जो विय्मान है । सब रहित–
सत्र से अलग । उदासी-उदार्सीन, निष्यश्, अधि कारण
मनुजञ-कारणबश जिम्दोंने मलुष्यकग घारसस किया है7
दनुज-कुज-यालक-राज़सों के बंध का नाश फरमे बाने ने फिर स्वत, सवान्तयासी, सर्वस्तरंष नथा सत्र से अति
भगवान रामसन्द्र जी जो नौनिगयादा की रखा करने याले हर राज्षसों फे सागर करने बाल ४ तथा जिसने (मर्तों की रखा ओर दुष्टाका नाश करने के) फारणा से (अवतार सेझर) सानव शरीर धारण किया है, एस प्रकार बोले–
मुनु फीस सलड़ापति सीरा। फेंहि विधि तरिण क्क्षपि गस्भाश
संकुच्, मफर उरग कप जानो। अति अगाघ दुस्गर मंद भाँती त
वीर–बूर, कदर । तरिब-ननस जाए, पार किया जाग।
जलधि–समुद्र | गभीरा–गारा | सझुल–भरा हघा। सहूर–
गगर | उरंग-सा | कप-मछली । जाति–समूह | फ्याव–
गहरा। दुस्तर-न पार करन योग्य ।
“है बीर सुप्रीय, हैं वीर विभीषण, सुनोा-चद गहरा समुद्र किस प्रकार पार किया जार, जो मगर, सप तथा मत्स्य जाति (के जंतुओं) से भरा हुआ £ और परम जगाघ तथा सदर प्रफारसेअतरणीय है 7…
काट शॉफेस सुमहु रघुनांगह। कोटिनसिंएु-सोपफ शद सापदः ॥
ज्य्यपि संदपि नीति घास गा । दिनलय फरिय सागर सन आई।।
सोपक–शोप+#, सुखा देने बाला। कोंदि सिंघ सोपक
(तत्पु०)) । तब–आपका। सायक्र-वबाण | जयपि, तदप्रि–
ययपि, तथापि। गाई–कहती हैं। घिवव–व्रिनती, प्राथंना ।
विभीपण ने कहा, “सुनिए रामचन्द्र जी, यद्यपि आपका चाण करोड़ों समुद्रों को भी सुखा सकता है तथापि नीति ऐसा कहती है कि समुद्र से इसके लिए प्रार्थना की जाए (कि हम उस पार कर सके) | ‘
प्रभु तुग्हार कुलगुद जलधि, कहहि उपाप विचारि |
विज्ुु प्रयास सागर तरिदि‘, सकल भालु-ऋषि-घारि ॥
प्रयास-परिश्रम | धारि–धारा, समूह, सेना ।.
“है स्व॒मी समुद्र आपका कुलगुरु है. (अतः) यह कुछ उपाय * सोच कर बताएगा । (इस प्रकार) तमाम रीछों ओर वानरों की सेना विना परिश्रम के दी पार होगी |
नोट–कुलगुरु जलधि:–राजा सगर रासचन्द्र जी के एक पूर्व ज थे। इन्होंने अश्वमेघ यज्ञ करने के लिए घोड़ा छोड़ा था । इन्द्र को भय हुआकि अश्वमेघ करके ये मेरा इन्द्रासन न छीन ले, अतः यज्ञ में विन्न डालने के लिए वह उस घोड़े के चुरा कर कपिल मुनि के आश्रम के पास छोड़ आया । जब वह घोड़ा कहीं नहीं दिखाई दिया तो सगर के सौ पुत्रों ने पाताल में उसकी तलाश करने के लिए प्रध्वी को खोद डाला। जहां जहाँ पृथ्वी खोदी गई वहाँ वहाँ जल भर गया और इस अकार समुंद्र की उत्पत्ति हुई रामचन्द्र जी के पूव जों द्वारा उसकी उत्पत्ति होने के “कारण ही उसे यहां पर उनका कुलगुरु कहा गया है। समुद्र का नाम सागर भी इसी लिए पढ़ा कि उसे सगर के पुत्रों ने ‘खोदा था | ४
सखा कही तुम नीकि उपाई। करियर दैव जों होइ सहाई॥
मन्त्र न यह लघ्िंसन मन भाषा | रामवचन सुनि अतिदुखपावा ॥
नाथ देव कर कवन भरोसा! सोखिय्र सिंडु करिय मन रोसा ॥
कादर भत्रु कहूँ. एक अधारा। दैव देव जालसी पुकारा ॥
ज्ीकि–अच्छी | उपाई–उपाय। देव–भाग्य । जौं–यदि |
सहाई–सहाय | मंत्र–सलाह। कवन–कौन। सरोसा–विश्वास |
रोसा–रोप, क्रोष। कादर–अक मेण्य, डरपोक, पोच | आधार–
सहारा |
( रामचन्द्र जी ने कहा ) ‘है मित्र, तुमने यह अच्छा उपाय बताया । यदि भाग्य सहायता करे तो ऐसा द्वी कीजिये |” यह सलाद लक्ष्मण जी को पसन्द नहीं आई ओर उन्हे रामचन्द्र जी की बात सुन कर बड़ा ढुःख हुआ। (ल्क्षमण जी बोले), “हे खामी, भाग्य का क्या भरोसा है । (मेरी तो राय यह हैकि आप) क्रोध करके समुद्र को सुखा डालिए । (भाग्य तो) पोच आदमियों का ही एक मात्र आधार है। आलसी लोग ही भाग्य भाग्य चिह्नाया करते हैं ।”
सुनत पिईँसि बोले रघुबोरा। ऐसहि फरव धरहु मन घीरा ॥
पत्तरद्दि प्रभु भ्रगुजहि सप्तुकाई | सिंधु सम्रीप गये रघुराई ॥
प्रथम प्रनाम कीन्द सिरुनाई | बैठे पुनि तट दुर्म डसाई।॥
करव–करेंगे | दभ–कुश, डाभ | डसाई–फैला कर, विल्ला कर!
(लक्षमण जी की वात) सुन कर रामचन्द्र जी हँसे और बोले “तुम अपने मन में धीरज रक्खो, ऐसा ही करेंगे ।” इस प्रकार कह कर उन्होने अपने छोटे भाई लक्षमण जी को समझाया और फिर समुद्र के पास गए। (वहाँ पहुँच कर) पहछे सिर नवा कर री को प्रणाम किया | तदननन््तर किनारे पर कुश बिछा कर
जबदि विभीषन प्रभु पहँ आये। पाछ्ठे रावन दूत्त पडाये॥
पकत चदच्धि सिन्द्र देफे, घरे फपट कपि हेह।
प्रभु गुन हृदय सराहदि, सरगागत पर नेह ॥
तिन्द–उनोनि । सराहदि–अशंसा करते है. । नेह–स्नेह ।
मिस सगय विभीषण (रावण की सभा छोड़ कर) रामचन्द्र जी के पास आए (उसी समय) उनके पीछे रावण ने अपने दूत भेले । उन दूतों ने छल पूर्वक बदरों का रूप धारण करके (जिससे बन्दरों के बीच में पहचाने न जा सके) प्रभु के तमाम घरिन देखे कि शरणागत पर क्रिस अकार प्रेम करते हैं। (यह देख कर) मे मन ही मन अभु के गुणों फी सराहना करते थे ।
प्रथ८. यजानदि. रामसुभाऊ । झत्ति सप्रेम गा विस्तरि दुराऊ॥
.रिपु के दृस फपिन्द दंव जाने। सकद्न याँधि फपीस पहि‘ झाने ॥
प्रगट-प्रकट, खुलमखुद्धा। गा–वाया | विसरि–विस्मृत ।
दुराइ–छ्िपाव । आने–लाए ।
(राइण के दूत) अपने छिपाव को ( छल रूप को) प्रेस के यश हो फर भूल गये और खुहमखुल्या भगवान् के गुणों का वर्णन करने लगे । यानरों मे जब्र उन्हे पहचान लिया कि वे शत्रु के दूत हैं तो सब को बाँध फर सुभीव के पास छे आए।
फ सुप्री4 सुनहु सब्र बरानर। थ्ह्ष भा करि पठवहु निसिचर ॥
सुनि सुप्रीव वचन कपि धाये। याँधि फटक चहुँ पास फिराये ॥
भट्ट प्रकार मारन फपि ज्ञागे | दीन पुकारत तदपि न प्यागे ॥
फटक–सेना | पास–पाश्व । चहुँपास–चारों तरफ |
सुप्रीव न कहा, “है बन्दरो सुनो, इन राज्षसों को अंगहीन ‘ करके भेज दो ।” सुग्रीव के ववन सुत्र कर बानर गण दौड़ पढ़े _ और दूतों को बाँध कर अपनी सेना के चारों ओर घ॒माने लगे बन्द्र उन्हे तरह तरह से मारने लगे और राक्षसों के दीनतापूर्वक चिह्ाने-पुकारने पर भी उन्हे नहीं छोड़ा, (पीते ही रहे) । जो एमार हर वासा-काना |
तेहि फोसलाधीस के श्राना॥
सुनि ल्दसमन सब निकट छुलाये। दया क्ञागि ई सि तुरत चोड़ाये ॥
नासा–ताक । काना-करण, कान | कोसलाधीस–रामचंद्र जी ।
आन–शपथ | दया लागि–दया के कारण, दया करके |
(जब बंदर दूतों के अन्नदह्दीन करने लगे तो उन्होंने विनती से कहा ), “जो कोई हमारे नाक-कान काटे उसे रामचंद्र जी की ही शपथ है ।” यह सुनकर लक्ष्मण जी ने सब के अपने पास बुलाया और दया करके उन्हें तुरन्त छुड़वा दिया।
रावन कर दीनेहु यह पाती। लद्धिसन वचन वाँलु कुक घाती ।|
फहेहु मुखागर मूढ़ सन, सम संदेस उदार ।
सीता देह मिजरहु न त, आावा काल तुखार ॥।
पाती-पन्नी, चिट्ठी । बोंचु-पढ़ो | मुखागर–मुख से,
8 (अथवा वाचाल, बहुत बोलने वाला) । उदार–
( लक्ष्मण जी उन दूतों से वोले ), “रावण के हाथ में यह चिट्ठी देना और उससे कहना कि–हे छुलघाती, लक्ष्मण के वचन के पढ़” उस मूखे से तुमजुवानी ही मेरा यह श्रेष्ठ संदेसा कहना (अथवा यूखे वाचाल रावण से मेरा यह उदार संदेसा कहना ) कि – ‘सीता के वापिस करके तुम ( रामचंद्र जी से ) मिलो ओर, नहीं तो, तुम्हारा काल आ पहुँचा है ।”
चुरत वाह लद्धिमच पद साथा। चछे दूत चरनत शुन गाया।॥|
कहत रामबसु लड्क भ्राये। रावनचरन सीस तिन्द नाये ॥
गुनगाथा–गुण्णों को कथा, शुणावली (तत्पु०)।
दूतों में तुरंग लक्ष्मण जी के चरणों में मस्तक नवाया और फिर ( राम-लच्मण की ) शुणावली का वर्णन करते हुए चके। ( आपस में ) रामचंद्र जी का यश गाते गाते वे लछ्का आए ओर प्याकर रावण के चरणों में सिर नवाया |
विदसि दस्तानन पूछ्ठी घाता। फसि नसुक भापनि इुसलाता ॥
पुनि फहु पर पिभीषन फेरी। जादि रूखु झाई झति नेते॥
कास राहु ए्धा. सठ स्थागी। होहृद्दि जड फर फीट घभागी ।
वाता-खबर | सुक–ताता, अथवा उस दूत का नाम।| दूत
राम फा यश गा रहे थे इसलिए रावण ने उन्हे तोता कहा जो बिना साथे स्ममे मुँद से छुछ रटने लगता है।
केरी-की। नेयी–तिकट) समीप | जड-नयव, जौ ।
जउ कर कीट–जौ , का कीड़ा; घुन | फरत राजु –
ऐश्वर्य भोगते हुए । रावण ने हँसकर उनसे खबर पूँछी। (जब उन्होंने उत्तर देने में दर की और फिर भी मुँह से रामयश का ही वर्णन फरतें रहें तों उसने डाद कर कहा » “अरे शुक, अपना कुशल समाचार क्यों नहीं कहता ( कि तूने जो छुछ देखा वह सब अपने अनुकूल * ) और फिर विभीषण की भी वात कह कि जिसकी मृत्यु बहुत निकट आ गई है। यहाँ ऐश्वर्य भोगते–
भुगावे मुख ने लट्षा को थोड़ दिया से अब जौ का कीड़ा
अर्थात धुन बनेगा ( अथात् दोनों के बीच में पीसा जायगा ) !
चुनि फहु भा फीस फटकाई। कठिन काल प्रेरित चलि आई ॥
सिन््द के जीवन कर रखवारा। भय खुल चित सिंधु बेचारा ॥
कहु तपसिन्द के वात यहोरी । जिन््हके हृदय त्रास भरत सोरी ॥
भालु-कीस-कटकाई–रीछों और बंदरों की सेना (तत्यु०)। –
काल ग्रेम्रित–रुत्यु के वश होकर । सदुलवित्त–केमल हृदय है
जिसका ( बहु० ) | बहोरी–पुन;, फिर | त्रास–भय ।
फिर भालुओं ओर बंदरों की सेना का हालः कहो जो कठोर काल के वश होकर उली आ. रही है और जिनके जीवन का रक्ञक इस समय केवल केमल हृदय. वाला समुद्र हो रहा है ( अथोत् समुद्र उनके मार्ग में पड़ कर उन्हे यहाँ आने से रोक रह्य है जिससे उनके ग्राण बचे हुए हैं क्योंकि यहां आते ही वे मारे जायँगे ) पुनः तपस्वियों का भी हाल कह जिनके हृदय में मेरा बड़ा भय वैठा हुआ है। ।
फो भह भेट कि फिरिगये, सूचन सुजसु सुनि भोर ।
कएसि न रिपुद्ल-तेजबल, बहुत चकित चित तोर ॥ ‘
फिरि गए–लौठ गए । रिपु-दल-तेज-बल–शत्र की सेना का
तेज और बल (तत्पु० तथा इन्द) चकित–हैरान
(उन तपसरिवियों से) भेट भी हुई अथवा वे मेरा सुयंश अपने कानों सुन कर लौट गए १ तू शत्रु सेना के तेज और बल (का हाल) क्यों नहीं कहता ? तेरा मन बड़ा हैरान है ?”
साथ कृपा करि पूछेहु जैसे। मानहु कहा क्रोध तमि सैसे॥ –
मित्ना जादू जब प्रनुन्न तुम्दारा। जातदि राम तिलक तेदि सारा !।
जातहि–जातेही ।
गुप्तचर ने कहा, “हे स्वामी, जिस प्रकार कृपा करके आपने मुझसे (यह सब) पूछा है उसी प्रकार क्रोध छोड़ कर मेरा कहना मान लीजिए। जब आपका भाई जाकर उन तपरिवयों से मिला तो उसके पहुँते ही रामचंद्र जी ने उसका राज्यतिलक कर दिया ।”
‘ शवनदूत इमहि सुनि काना। फरपिन बाँधि दीन््हे दुःख नाना ॥
स्वन नासिका काटन ल्ागे। रामसपथ दीन्हे एस त्यागे।॥।
खबन–श्रवण, कान | नासिका–नाक ।
“हमको अपने कानों से रावण का दूत सुन कर वानरों ने ‘ हमें बाँध कर अनेक हुःख दिए । वे हमारे नाक और कान काटने लगे और रामचन्द्र जी की शपथ देने पर उन्होने . हमको छोड़ा —
पूछेहु नाथ. राम कदकाई । बदन कोटिसत बरति न जाईं।।
नाना यरनि भालु-कपिन्धारी । विकटानन विसाज्न भयकारी ॥
चदन–मुख। सत–शत, सौ। कोटिसत–सैकड़ों करोड़ ।
सानावरनि–नानावरणे, तरह २ के रंगों वाली ! भाछुकपिधारी —
रीछों और बंदरों का धारण करने बाली (तसु०) | विकृटनन– विकट या भयानक है मुख जिनका (वहु०)। भयकारी–भयपैदा करने वाला (तत्पु०) | /है स्वामी, आप रामचन्द्र जी की सेना का #! हाल पूछते हैं,–उसका तो सौ करोड़ मुँह से भी वर्णन न किया जा सकता । उस सेना में रंग-विरंगे बड़े बढ़े ओर भयानक रीछ ओर बंदर हैं जिनके सुख बड़े भयंकर हैं ।–
जेद्दि पुर दद्देद इतेड सुत तोरा । सकल फपिन्द में तेहि घक्त थोरा ॥
अमित चाम भट कठिन कराता । अमित-नाग-बल घिपुक्न विप्ताला॥।
जेहि–जिसने | थोरा-स्तोक, कम। कराला–भयंकर |
अंमितनाम –“असंख्य नाम हैं जिनके (बहु०)॥ भट–योद्धा ।
नाग–हाथी | अमित-ताग-बल–असंख्य हाथियों का बल है
जिनमें (बहु०) | विपुल–वहुत ।
“जिस बंदर ने नगर जलाया था और तुम्दारे पुत्र अक्षय- कुमार को मारा था उसका तो तमास बन्दरों में बहुत.थोड़ा चले हैं। उस सेना में असंख्य नाम वाल) असंख्य हाथियों के वल वाल, बढ़े बढ़े विशाल, कठोर और भयंकर ब्रोद्धा हैं ।–
द्विविद, मयन्द, नीज,गल, धादादि विकशासि |
द्िप्रुतर, फेहरि, छुम्ुद, गय, जामबन्त यठ रासि ॥
एु फपि सब सुप्रोथ समाना। इन्द सम फोटिन्द गनह फो नाना ॥|
शमझप थमुल्ित पत्र तिन्दीं।ठून समान प्रेलोफहि गनहीं॥
ट्विविद. . .जामबन्त–रीछों और वंदरों के नाम है । वलराशि-
वल का ढेर (तत्पु०) वल का खज़ाना, महावली। गन को–झव
गिने ।तिन्हहीं-उतमें | तृन–तृण, तिनका ! त्ेलोकहिं–त्रिलोकी
अथोत् स्वर, मर्त्स और पाताल को । गनहीं-गिनते हें,
सममते हैं ।
ट्वेबिद, सयन्द, नील, नल, अगर, विकटासि, दधिमुख, केहरि, कुमुद, गव भी जाम्बवान् आदि, मद्दावलीं (योद्धा उस सेना में हैं ) | थे सव सुम्ीव के दी समान हैं और इनके समान करोड़ों हैं, असंख्य हैं, उनकों कौन गिन सकता है ९ रामचन्द्र जी की कृपा से उनमें अतुलित वल है ( अथोत् जिसकी बरावरी नहीं ही सकती | ) अपने वल के सामने त्रिलोकी .को भी वे तिनके के समान समभते हैं ।
स में स्वन सुना चुसफंधर | पदुम श्रठारह जूथप यम्दर ॥
नाथ फटफ महँ सो फपि नाहीं। नो न तुम्दहि‘ जीतहि रच माही ॥
पहुम–पद्म | सो–वह, ऐसा। यूथप–यूथपति, सरदार
रण–युद्ध ।
है रावण, मेने ऐसा अपने कानों से सुना है कि बन्दरों के सरदारों की संख्या १८ पद्म है । हे खामी, उस सेना में ऐसा कोई चदर नहीं; जो युद्ध में तुस्ें न जीत सके ।”
परम फ्रीध सीजदि सर हाथा। शायसु पै न देदि‘ रघुनाथा॥
सापद्दि सिंधु सदित ऋप व्याजा । पूरद्दि नत भरि कुधर बिसाक्षो ॥
सी जहिं–मसतते मे । आयु –आज्त। पै–परन्तु | कप–
: मदठली, मच्छ | व्याला–सपे | पूरहिं–शर दें, पाट दें | त–तो ।
छु–धत्री । कुधर–प्रश्ची को धारण करने वाले अथात पवेत । धवे सब्र अत्यन्त क्रोध्र से हाथ मसलते हैं, (कि लंका को बुसस्न जाकर जीत लें ) परन््तु रामचंद्र जी आज्ञा नहीं देते । ( वे वन््दर ) मच्छ और सपा सहित समुद्र को सोख सकते हैं, नहीं तो फिर बड़े बढ़े पव तो से ही उसे पाठ दे सकते है ।”
मर्दि सदि सिक्षवर्दि दससीसा। ऐसेह बचन फहहि‘ सब कीसा ॥
गर्जद‘ तर्महि‘ सहज प्सझ्ठा। सानहु असन चद्दति इृह्वि‘ कक्षा ॥।
मदि +-मर्देन करके, मसल मसल कर | गदि –गरदना देकर,
कुचल कर; अथवा चर्द में, धूल में | त्जहिं–डाटते है; लल-
कारते है। सहज–सभाव से । अशंक–निडर । ग्रसन–निकत-
लना | ह॒हिं धप्सल कर रावण को धूल में मिला देंगे, ऐसेही शब्द
तमास बंदर कहते हैं। वे गर्जन करते हैं, डाटते-ललकारते हैं और
खमाव से ही निडरहें मानों लंका को निगल जाना चाहते हों ।”
सहन सूर कपि भालु सब, पुनि सिर पर प्रभु रास ।
रायन कालि फोटि कहूँ, गीति सकदि से आस ॥
#तमाम बन्द्र और रीछ स्वाभाविक रूप से ही शर-तरर हैं, फिर उनके सिर पर ( अथात् उनके संरक्षक और हौसला चढ़ाने वाले ) रामचन्द्र जी हैं। हे रावण, वे युद्ध में करोड़ यमराजों को‘
भी जीत सकते हैं ।”
राम-तेज-वत्त-चुधि. विपुल्राई | सेप सहसस्तत सकदि‘ मे गाई ॥
सक सर एक सोपि सत्त सागर | तब अ्रातहि‘ पूछेठ नयनागर ॥
बुधि–बुद्धि | विपुलाई–विपुलता, अधिकता । सेष–शेप-
नाग। नयनागर–सीति में चतुर ।
“रामचन्द्र जी के तेज, वल और बुद्धि की अधिकता का सौ हज़ार शेप भी नहीं वर्णन कर सकते। उनका एक बाण सौ समुद्रों को सुखा देने में समर्थ है (परन्तु) वह नीति में चतुर हैं । (इस लिए) उन्होने तुम्हारे भाई से पूछा कि क्या करना चाहिये।”
तासु वचन सुनि साथर पाद्दी। माँगत पंथ कृपा सन साहा ॥
घुनत घंचन विहँसा दससीसा | जों झस मति सद्दायकृत कीसा |
सम भोर कर वचन इृदाई। सागर सन ठानी सचक्षाई।॥
मद रूपा का करसि बढ़ाई। रिपुयलबुद्धि थाह मैं पाई।।
तामु–उसके । पाहाँ–पास, से | प थ–मार्ग । जौं–यदि ।
भति–बुद्धि। सहायक्ृत–सहायता करने बाढे। भीरु – डरपोक-
इृढ़ाई-हढ़ता, मजबूती, भरोसा। सचलाइ–ऋाड़ा, अथवा
सचल सचल कर बच्चों की तरह खुशामद् करना। सृपा–
व्यथे; भूठ-सूठें । थाह–गहराई, असलियत ।
“उसकी ( तुम्हारे भ्राता को ) वात सुन कर रामचन्द्र जी मन में कऋृषा करके सागर से पार होने के लिए रास्ता माँगने- लगे।” (दूत की बात ) सुनकर रावण हँसा ( और बोला » “जो उत्त तपर्वियों की ऐसी दी बुद्धि है और उतके सहायक: बन्दर हैं, जो उन्होंने (उस विभीषण ) के बचलों में विश्वास करके समुद्र के साथ यह ऋगड़ा ठाना है. (तो भें समझे गया कि थे लोग स्वभाव से ही डरपोक हैं और भूठ मूठ अपने वचन में हृद़ुता करते हैं, अथात केवल बातों के शेर हैं परन्तु दिल में ढरते £ क्योंकि भल्रा जब थे समुद्र से इस प्रकार मचल मचल कर वचचों की भांति ज़िंद ठानते हैं । ) तो सेंने अपने शत्र की बल्-बद्धि की थाह पाली | तू; मूल, उनको क्या वेकार प्रशंसा करता है (–
सचिव सभीत विभीषजु जाके। विजय-विभूति फहाँ द्गि ताके ॥
सुनि क्र बचन दतरित्ति यादो। समय विधारि पत्रिका काढ़ी॥
सचिव–मंत्री, सलाह देने वाले । विभूति–ऐश्वय, बड़ाई
कहों लगि–कहाँ तक। रिखि–रोप। क्रोध । पत्रिका–चिट्ठी ।
काद़ी–निकाली । समय–अवसर, मीका । ॥
(विभीपण जैसे उरपाक जिसके सलाह देने चाले हों, उसकी विजय और समृद्धि कहाँ तक हो सकती है ?”दुप्र राबण के बचन सुनकर दूत के क्रोध बद आया और अवसर सममकर उसमे ( लक्षमण जी वाली ) चिट्ठी निकाली ( और कहा )– रामानुन दीन्दी यह पाती | नाथ बँचाह जुड़ावहु छाती ॥
विदैसि बामफर छीन््दी रावन। छचिव बोलि सठ ज्ञाग यचावन ॥
पाती–पत्री, चिट्ठी । बचाइ-वंचवा कर, पढ़वा कर |
जड़ावहु–८ढी करो। वामकर-बाँया हाथ ( कर्मधारय । शत्रु
की चिट्ठी बाएँ हाथ में ली जाती है ) | बोलि–बुलाकर | लाग
चंचावन–पढ़वान ज़गा |
धरामचन्द्र जी के छोटे भाई ने यह चिट्ठी दी है। हे स्वामी, इसे पढ़वाकर अपनी छाती ठडी कर लो” रावण ने हंसकर उस चिट्ठी के वाएँ हाथ में ले लिया और मंत्री के। बुला कर उसे पढ़वाने लगा ।
बातन मवद्दि रिकाइ सठ, जनिधाजेसि कुल खींस । दर |
रामविरोध ने उबरनि, सरन विष्मु श्रज ईस ६
की तज सान अलुन हव, प्रश्चु-पद-पंकल-भुग ।
होहि कि रामसरानज, सक्ष कुछ्न-सद्दित पतंग ॥
बातन–वातों से | रिकाइ–असन्न करके । घालेसि–नष्ट
कर। रामबिरोध–रामचन्द्र जी के विरोध ( बैर ) से (तत्पु०)
उबरनि–उद्धार | अज–म्रह्म । ईश–महादेव । की-अथवा
तज–छोड़ | मान-असिमान | इच–तरह, भाँति । प्रभु-पद-
पद्चज-भ्र्ध–भगवान् ( रामचन्द्र जी ) के चरण रूपी कमल
( रूपक ) का भौंरा ( रूपक। तसु०) | होहि–हो। कि–अथवा | रामसरानल–रामचन्द्र जी के शर (वाण) रूपी अप्रि ( रूपक तल्यु०) | पतन्न–पतिज्ला, जी दीपक के चारों ओर मँँडरा कर
उसी में जल जाता है।
( लक्षसण जी की चिट्ठी में लिखा था )-+* अरे , दुष्ट बातों से ही मन को रिक्राकर तू अपने कुल को नष्ट सत कर | ‘ रामचन्द्र जी से बैर करके विष्णु, ब्रह्मा और शिव जी की शरण में जाने से भी रक्षा नहीं हो सकती। या तो तू, अपने, भाई की तरह भगवान् रामचन्द्र जी के चरण कमलों का भौंरा बर
कर अभिसान छोड़ दे, या फिर रामचन्द्र जी की शराप्रि मे
अपने कुलसहित पतिज्ञा वन (और अपने के जला डाल )।
उनत सभय भन मुख झुसकाई। कहत दसानन सबद्दि सुनाई ॥
भूमि पता कर गहत अकासा | छथु तापस कर बाग विज्ञाता ॥-
फर–हाथ से | गहत-पकड़ता है। अकासा-आकाश।
लघु-छुठ्: चुल्छझ । कर–का । वागविलासा–बाग्विलास,
बाचालता, बढ़ वढ़॒ कर बात बनाना । ।
(चिट्ठी) सुनकर रावण मन में डरा (पर तु) मुख से मुस्कराया ओर सब फोसुना कर कहने लगा; ”तुच्छ तपस्वी का बड़ वोलापन (तो देखो) ! प्रृथ्वी पर पड़ा पढ़ा हाथ से आकाश के पकड़ना चाहता है । (अथान् तुन्छ का बढ़ बढ़ कर वातें करना ऐसाही हे जैसे भूमि पर पढ़े पढ़े आफाश के पकड़ने की चेष्टा करना जो एक असन्भव कार्य है) |”
फह छुफ नाथ सर्प सब बानी। समुसहु छांढ़ि प्रकृत भभिमानी ॥
सुनहु घचन सम परिदरि क्रोधा | नाथ रामसन तजहु विरोधा ॥
प्रकृत– खवाभाविक । मस–मेरा | परिहरि–छोड़ कर !
शुक बोला, हि नाथ, (जो कुछ इस पत्र में लिखा है उस )
सव बात के; अपना खाभाविफक अभिमान छोड़ कर सत्य सममो |
खामी, मेरी बात सुनो, और क्रोध त्याग कर रामचन्द्र जीके साथ शत्रुता को छोड़ दो ।–
झत्ति कोमल रघुवीर-सुभाऊ । जथपि भखितर लॉक कर राऊ ॥
, मिल्रत छुपा तुम पर प्रभु फरहीं | उर अपराध न एकउ‘ घरदीं ॥
जनक सुता रघुनाथद्धि दीजै। एतना फह्ा मोर प्रभु कीजै ॥
अखिल–सब, तमाम | राऊ–राजा |
धभ्रुद्यपि रामचन्द्र जी तमाम विश्व के स्वामी हैं तथापि उनका स्वभाव बड़ा कोमल है। जैसे ही ठुम उनसे मिलोगे वह तुम पर कृपा करेंगे और तुम्हारे एक भी अपराध के अपने हृदय में नहीं
रहने देंगे। हे स्वामी, मेरा इतना कहना मानो कि श्री सीता जी को रामचन्द्र जी के लौटा दो ।”
जब तेहि कहा देन चेंदेहा। चरनप्रदर फोन्द सदर तेट्दी ॥
नाह चरन सिंठ चल्ना सो वहाँ। कृपासित्र रघुनायक जहाँ ॥
देन–देने के लिए । चरण प्रहर–चरण का आघात (वलु०)।
जिस समय उस दूत ने सीता जी के लौटाने के कहा वो दुष्ट रावण ने उसके लात मारी तव वह दूत (झुक) उसके चरणों में सिर भुका कर घहाँ गया जहाँ ऋपासागर श्रीरामचन्द्र जी थे ।
करि प्रनामु विज कथा सुनाई । रामकृपा भापव गति पाई ॥
रिपि झगस्ति कै साप भवानी। राच्छस्त भवठ रद्दा मुनि ज्ञानी ॥
बंदि रामपद चारहि‘ यारा । मुनि निज झासम कहूँ पगु धारा ॥
आपन–अपती । गति–अवस्था । रिपि–ऋषि | साप–
शाप। राच्छुस-राक्षस । मुनि–शुक। आख़म–आश्रम ।
कहुँ-फे | पगु–चरण !
उसने रामचन्द्र जी को प्रशाम कर अपना हाल झुनाया (जो रावण को सभा में हुआ था) और उन्तकी कृपा से अपनी (पहली) अवस्था!के प्राप्त कर लिया । (शिव जी कहते हें कि) /हे पावेती जी, (यह शुक पहले एक) ज्ञानी मुनि था (परन्तु) अगस्त्य ऋषि के शाप से राक्षस हो गया था ।” उस मुनि ने वार वार रामचन्द्र जी के चरणों में बदला कर अपने आश्रम की तरफ
पैर किया (अथोत्त्ू अपने आश्रम के गया) ।
बिनय न सानत जत्नधि जड़, गये तीनि दिन वीति ।
बोले राम सकोप तव, भय बिन्ु होह न प्रीत्ति ॥
विनय–आर्थता | जड़–अचेतन, न मूखे। सकेप–ऋरेध से
(अव्ययी ०)
(उधर रामचन्द्र जी को समुद्र से आ्थेना करते करते) तीन दिन बीत गए परल्तु जड़ समुद्र ग्राथना को मानता ही नहीं था। (उसने पार दोने के लिए सा नहीं दिया) । तव रामचन्द्र र्जी क्रोध में आकर बोले कि, “बिना भय के प्रेम नहीं होता ।” ( अ्रथात् समुद्र ले सीधी तरदद इतनी प्राथंना की तो उसने नहीं सुना, क्योंकि उसे कोई डर नहीं था; यदि डर होता तो अवश्य
मांगे दता ) |
लद्िमन यान सरासन धानू। स्लोखडं यारिधि विसिखकृसानू ॥
शरासन–धनुप । आनू-लाओ। वारिधि–समुद्र ।
विसिख–विशिख, बाण । कृसानू–कृशानु, अप्रि। वान-
कृसानू- वाणरूपी अग्नि, अथवा वाण की अपि |
5(इसलिए) है लक्षमण धनुप वाण ले आओ समुद्र को
वाणु की अग्नि से सुखा डाढू (क््योंकि)-”
सठ सग पिनय कुशिल सन प्रोौ्ती | सहज कृपिन पतन सुन्दर चाता ॥।
ममपतारत सन ज्ञान कट्दानी। चति ज्ञोभी सन विरति बखानी |
फ्रोधिद्दि‘ सम फामदि हरि कथा | ऊसर बीज बये फत्न जया ॥
कुटिल–टेढ़ा, कपटी | सहज–स्वाभाविक | कृपित–कृपण
कंजूस | ममतारत–मोदह्द में फैसा हुआ। विरति–पैराग्य ।
सम–शम); शा ति | बये–त्ोने पर। जथा–यथा, जैसे ।
हुए के साथ मम्नता का व्यवहार करना, धू्त के साथ प्रे म, समाव से ही जो कंजूस है उसके साथ सु दर नीति की बातें करना, संसार फे मादामोह में फँसे हुए मनुष्य के साथ ज्ञान की कथाएँ कहना, परम लोगी को वैराग्य का व्याख्यान देश क्रोधी के साथ शांति तथा कामी हु ७. ० दी जीनकी चर्चा करना-(ये सव वात ऐसी हो निर भूमि में बीज बोने पर फल (की आशा करना )
घल्र कद्दि रघुपति चाप चढ़ावा। यह सत छड्धिसन के सन भावा ॥
संधानेड प्रभु विसित् कराता | उठी उद्धि डर श्रन्तर ज्वाला ॥
सकर-उरग-सरूप-पन झकुलाने । जरत जन्तु जलनिधि जब जाने ॥
कनक थार भरि सबगिन नागा । विप्रर्प आय तज्जि माना॥
चाप-धतुष । संधानेड–निशाना सँभाला, धनुष पर बाण
चढ़ाया । कराल–भयंकर । उर अंतर–ह॒ृदय में, भीतर।
ग़न–गण, समूह | जलनिधि–समुद्र । कनकथार–सोने का
धाल(तत्पुग)। मनिगन -मरणियों का समूह । माना–मान,
अमिसान |
ऐसा कह कर रामच द्र जी ने धतुष चढ़ाया। उनकी यह सलाह ( समुद्र के सोखने की ) लक्ष्मण जी के मन के अच्छी लगी। भगवान् में एक भयंकर बाण धनुष के ऊपर रक्खा ( जिससे ) समुद्र के भीतर अग्नि की ज्वाला उठने लगी (और उस ज्वाला से ) मगर, स्प, मच्छ आदि ( जल के ज॑तु ) व्याकुल होने लगे । जब समुद्र को मालूम हुआ कि ज तुजल रहे हैं तो वह अभिमान छोड़ कर तथा सोने के थाल में तरह तरह. की मशणियाँ सर कर जाह्मण का रूप धारण कर के आया।
कार्ेहि पह कदुली फरइ, कोटि ज्तन कोठ सौंच ।
विनय न मान खगेस सुनु, छाँटेहि पै नव नीच |॥
काटेहि प६–काटनेपर ही । कदली–केले का वृक्ष । फरह–
फलता है। जतन–यत्न, उपाय | खगेस–पत्तियों के सरदार,
गरुड़ | नव–नमता है, मुकता है, नम्न हो जाता है।
(काकभुशुण्ड जी गरुड़जी से कहते हैं कि) “है खगेश, सुनो। केले का वृक्ष काटे जाने पर ही फलता है, यदि कोई करोड़ उपायों से उसे सींचे (तो बेकार *ै । इसी प्रकार) नीच व्यक्ति नम्नता से
नहीं मानता, डाटने पर ही वह मुकता हैं ।”
सभय सिंधु गहि पद प्रभु फेरे । छमहु नाथ सब शबगुन मेरे ॥
गम समीर शनल जल धरनी | इन्हे फह नाथ सहज जद फरनी ॥
फेरें–फे | छुमहु–क्षमा फीजिए । अवगुन–दोप, अप-
राधे । गगन–आकाश, समीर-वरायु | अनल–अप्नि !
‘धरणी–पृष्ती । इन्ह कइ-इनकी । जड–सू्तापूर्ण ।
समुद्र ने भयभीत होकर रामचन्द्र जी के चरण पकड़ लिए ओर कहा, “है नाथ मेरे सत्र अपराधों का क्षमा कीजिए ।” आकाझा। वायु, अम्रि, जल और प्र॒ध्वी, इन सब का काम स्वाभा- बिक रूप से ही मृर्खतापूवक होता हैं (क्योंकि थे सब पदार्थ जड़ हैं। अतएव मेरी मूखता भी स्रभाववश ही है और त््म्थ है )
तथ प्रेरित माया उपजाये। सृष्टि हेतु सब अन्यदि गाये।॥
प्रभु घायसु लेहटि फँ छस चअएई । सो तेएि भाँति रहे सुख लहई ॥
सृष्टिहेतु–सप्टि के लिए। ग्न्थदि –अन्थों ने । आयसु–
आजा । जेहि कहँ–जिसके । जस–जैसी | अहई–हेती है। लहदई–आरप्त करता है |
०( इन सब्र पदार्थों के ) आपकीग्रेरणा से माया ने सृष्टि के कार्य के लिए उत्पन्न किया है? यह बात सब ग्रन्थ ( वेद, पुराण आदि ) ने गायी है। आप की जिसके लिए जैसी आज्ञा होती है वह
उसी भाँति रद्द कर खुख पाता है।” प्रभु गज फीनइ मोददि सिख दीन्ही |
मरजादा इन तुद्यारिय कीनन््ही ॥ ढोल गँवार संद्र पशु नारी।
थे सब ताइन के अधिकारी ॥
भल-अच्छा । सिख–शिक्षा, नसीहत ।” मरजादा– मयोदा। ताइन–मारता, पीटना | अधिकारी–थोग्य | कीन्हीं– बनाई हुई । । के
“प्रभु (आप) ने अच्छा ही किया जो मुमे शिक्षा दे दी। और फिर मयादा भी तो आप ही की बनाई हुई है। ढोल; गैंवार, शूद्र, पशु और ख्रियाँ, ये सब पीठने .के ही थोग्य हैं.
(अथांत् ये पीटे जाने पर ही मानते हैं. ).। *.
प्रभु प्रताप में जाब खुखाई। उत्तरिद्दि कटकु न ओर यहाईं.॥
प्रमु-धाशा अपेज् लुति गाई। करइ सो बेगि,जो तुद्मादि सुद्ाई ॥
जाव सुखाई–सूख जाऊँगा। श्रपेल–अठल,. जो पेली या
‘हूटाई न जा सके । सर ति–श्रुति, वेद । वेगि–जल्दी से।
बड़ाई–महिमा । |
“भ्र॒ु (आप) के प्रताप से मैं सूख जाऊँगा ( जिससे) आप ‘की सेना पार उत्तर जाएगी। ( ऐसा करने में ) मेरी महिमा या प्रशंसा की कोई यात नहीं है ( क्योंकि यह आप ही का प्रताप . है )। आप की आज्ञा अठल है, ऐसा वेदों ने कहा है। ( अब ) ‘जो आप के पसन्द हो सो शीघ्र कर लीजिए ।” ह
छुनत ब्नीत बचन अति, कद झंपालु सुसुकाह |.
,..जेहि विधि उत्तर कपिकटकु, तात सो फहहु उपाय ॥. “
( समुद्र के ) अति विनम्र वचन सुनकर पा सागर रामचन्द्र । जी ने मुस्करा कर कहा, “हे तात, जिस प्रकार बानरों की सेना
पार उतर.सके से। उपाय बताओ |”
ज्ोथ नील नल क्काप दाउ भाई । करिकाई रस आासिए पाईं॥
तिन्ह के परे किये गिरि भारे। तरिहृद्दि‘ जल्नधि प्रवाप तुम्दारे।]….
लरिकाई–लड़कपन में । आसिप–आशिप, आशीबोद |
परस–स्पर्श, छूना । गिरि–पहाद ।
+ (समुद्र ने उत्तर दिया), “हे नाथ, (आप की सेना में) नील ओर नल नामक दो बदर भाई हैं। उन्होंने लड़कपन में ऋषि से आशीवाद पाया था कि उनके छूने से भारी भारी पहाड़ आपके:
प्रताप से समुद्र में तैरन लगेंगे।”
में पुनि उर धरि प्रमुप्रभ्ताई । फरिएदँ बल्न-धजुमान सहाई ॥
गुद्दि विधि सास परयोधि व घाइय । जेदि बह सुजस जोक तिहें गाइय ॥॥
प्रभु-प्रभुताई-प्रभु की सहिमा (तत्यु० । करिहर्य–
फरूँगा । बल-अनुमान–चल के अलुमान से, सामथ्य के
खलनुसार । सहाई–सहायता | पयोधि–समुद्र । वैधाइय–छुल
चैँधवा दीजिये । जेहि–जिससे | गाइय–गाया जाय ।
धमँ भी आप की महिमा अपने हृदय में धारण कर अपनी सामथ्य के श्रनुसार (सेना के पार उतरने में) सहायता करूँगा। इस प्रकार, हे स्वामी, समुद्र का पुल व धवा दीजिए जिससे यह
सुयश दीनों लोकों में गाया जाय ।”
एहि सर सम उच्तर-तब्न्यासी। इतहु नाथ खज्ल नर भघरासी॥।
धुनि कइृपालु सागर-मन-पीरा । तुरतहि‘ इरी राम रन घीरा ॥
उत्तरतट-उत्तरी किनारा | (कर्म०) उत्तरतट बासी-उत्तरी
किनारे पर रहने वाले (तत्यु०) | हृतहु-मारों। अघ–पाप।
अधघरासी–अधराशि। पाप के खजाना (तत्पु० सागर-मन-
पीरा–समुद्र के मन की पीड़ा (तत्पु०) | रनधीर–युद्ध में धीर
अर्थात् स्थिर रहने वाले, युद्ध में न घवड़ाने वाले।
इस वाण से (जो आपने मुमे सुखाने के लिए चढ़ाया था ) मेरे उत्तरी किनारे पर रहने घालें अति पापी दुष्ट मलुष्यों के कक [ सुन्दर फारड मार दीजिए |” यह सुन कर कृपाछ रणघीर रामचन्द्र जी ने. (उन उत्तर तट वासी दुष्टों को मार कर) समुद्र के मन के ढुःख‘ के तुरन्त दूर कर दिया ।
देखि रामबल-पौर्ष. भारी। हरषि पयोनिधि भवड खुखारी ॥..
सकल चरित कहि प्रसुद्दि सुनांवा। चरन बदि पराथोधि सिधावा ॥‘
पौरष–पुरुषार्थ, पराक्रम । पयोनिधि, पांथोषि–समुद्र।
सुखारी–सुखी | चरित–हाल, इतिहास | सिधावा-गया।
रामचन्द्र जी के भारी बल और पराक्रम को देख कर समुद्र को हु हुआ और वह सुखी हुआ। उसने अपना तमाम हाल भु रामचन्द्र जी को कह सुनाया और फिर उनके चरणों की यंदना कर चला गया ।
निज भवन गवनेउ सिंधु, श्री रघुपतिहि थह्ट मत भायऊ।
यह चरित कलिमद्-हर जथामति दास तुझसी गायऊ॥)
सुख भवन संसय-समन दमन विषाद रघुपति-गुननाना।
तजि सकल आस भरोस गावहि‘ सुनददि संतत सठ सना ॥
गवनेउ–गया । भायक–पसन््द आया। कलिमलहंर–
ऋलियुग के दोषों (तत्यु०) को हरने वाले (त्यु०) ।
यथामति–बुद्धि के अनुसार |
सुखभवन–सुख का स्थान (तत्पु०) संशय-शसन—
सदेंहों को शान्त करने वाला (तत्पु०)। दमन-विषाद–शोक
और ुख को दूर करने वाला (तत्ु०)। खुपति शुनगता—
रघुपतिगुणगण, खुनाथ जी के गुणों का समूह । आस–आशा |
भेरोसा–विशवास । संतत–हसेशा ।-मना–सन ।
समुद्र अपने घर चला गया ज़ैर रामचन्द्र जी को उसकी यह सलाह पसन्द आई। रघुनाथ जी का यह चरित्र कलियुग में पैदा दाने वाले दोषों के!हरने वाला है और इसे- (रघुनाथ रामचरित मानस ] बनी जी के) दास तुलसीदास जी ने अपनी बुद्धि के अनुसार गाया है। रघुनाथ जी के गुणों के समूह(का कीतन) सुख का स्थान है, संदेह के शान्त करने वाला है तथा शोक को दूर करने वाला है। (तुलसीदास जी अपने मन से कहते हैं कि) “अरे दुष्ट मन, तमाम आशाओं आर भरोसों के छोड़ कर तू हमेशा (भगवान् के उसी चरित्र ओर गुण समूह को) गा और सुन ।”
सफल सुमालदायक, रघुनायक ग्रुनगान।
सादर सुनदहि‘ ते तरहि‘, भव-सिंधु विना जदजान ॥
सुमगलदायक–झुन्दर कल्याण का देने वाला (तत्यु०)।
रघुनायकगुनगान-रघु (कुल) के नायक के गुणों का गान
(तत्यु०) । सादर–आदरपू्षक (अव्ययी०)। भव–संसार ।
भवसिधु–संसाररूपी समुद्र ( रूपक )। जलजान–जलयान,
नौका, जहाज़ ।
श्री रामचन्द्र जी फे गुणों का गान सब प्रकार के कल्याण का देने वाला है। जो लोग इसे आदर के साथ सुनते हैं वे नाव के बिना ही संसार-सागर के पार कर जाते हैं|
इतिभ्रीरामचरितमानसे सकलकलिकल॒पविध्व॑सने
ज्ञानसम्पादनो नाम
पभ्चमः सोपानः समाप्तः ॥
आपको Sundar Kand PDF / सुन्दरकाण्ड PDF डाउनलोड करने में असुविधा हो रही है या इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो हमें मेल करे. आशा करते हैं आपको हमारे द्वारा मिली जानकारी पसंद आयी होगी यदि फिर भी कोई गलती आपको दिखती है या कोई सुझाव और सवाल आपके मन में होता है, तो आप हमे मेल के जरिये बता सकते हैं. हम पूरी कोशिश करेंगे आपको पूरी जानकारी देने की और आपके सुझावों के अनुसार काम करने की. धन्यवाद !!