सिद्ध वनौषधि चिकित्सा | Sidh Vanoshdhi Chikitsa Book PDF in Hindi Free Download

लेखक / Writer | रामगोपाल पटेल / Ramgopal Pate |
पुस्तक का नाम / Name of Book | सिद्ध वनौषधि चिकित्सा / Sidh Vanoshdhi Chikitsa |
पुस्तक की भाषा / Book of Language | हिंदी / Hindi |
पुस्तक का साइज़ / Book Size | 2.04 MB |
कुल पृष्ठ / Total Pages | 118 |
श्रेणी / Category | स्वास्थ्य / Health , आयुर्वेद / Ayurveda |
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सिद्ध वनौषधि चिकित्सा पुस्तक का एक मशीनी अंश
आज दुनिया में चिकित्सां की अनेक पंद्धतियां- चले रही हैं। इंस जमाने में अलोपेथीने वहुत:उन्नति की हैँ और बड़े से वड़े शास्त्रज्ञ गौर नाज ‘की सभी सरकारें इसके-पीछे पूरी शक्ति खर्च, कर रही हैं। जिन देशों में -इस पद्धति का.- विकास हुआ. है उन देझ्षों का, उत्पादन मारत-के मुका-वले काफी अधिक हैं । इस पद्धति का उन देक्षों ने बहुत लाभ उठाया हैं ।
फिर भी हमारे देश में इसकी अधिक प्रगति नहीं हो सकी हैं। कुछ झहरों तक ही वंह सीमित हैं । इसको मुख्य कारण पेद्धति का खर्चीलापन है । हमारे किसांन की आर्थिक स्थिति इतनी कंमजोरं हुँ कि वह अपने खुद के लिये भी इस चिकित्सा का काम नहीं छे सकता।
तब फिर पशुओं का.सवाल हो नहीं उठता. -हमारे किसान के पशुओं को उसी पद्धति से छाम पहुंच सकता है. जिसका :ज्ञान और – खर्चा. उसके दूठे के बाहर व हो ।
हमारी देशी चिकित्सा पद्धति दोनों बातों. में किसान के अनुकूल है.। इसका ज्ञान भी किसान को आसानो से हो सकता है और खर्चा भी बहुत कम लगता हैं सिवाय बहुत-सी चोजें आसपास ही मिल जाती हों । किसी दूसरे देश पर. अेलंबितं मी नेंहीं रहना पड़ता । इस सब दृष्टि से किसान: के हित में एक मात्र देशी चिकित्सा पद्धति ही लाभदायी होगी ऐंसा हमारा झुपाल है ।-
मेलोपेथीकी जो कुछ दवाइयां किसान के वूते में होंगो उनका भी उपयोग करेंगे । किसी भी पद्धति का निषेध नहीं हैं। फिर भी इस देशी पक्षु चिकित्सा को ही अधिक से अधिक प्रोत्साएत देने का संघने तय किया | हमारा विश्वास है कि बाज भी इस देशी चिकित्सा में काफी शक्ति मौजूद है। इस ओर बधिक ध्यान दिया -जाय तो “यह बड़ी छामदायी वन सकती हूँ |
देशी चिकित्सा को प्रोत्साहन देने की दृष्टि से हम यहां दो. तीक साल से प्रयोग कर रहे हैं। इंदौर निवासी पशु वैद्य श्री राम गोपाल कुल मी की सेवाओं हमें. इस काम के “लिये मिली-हैं । इतने दिनों के ::अनृभवः से सव तरहू का इलाज काफी अच्छे तौरं से कर सकते हैं । खास तौर से मुंहखुरी, पैरखुरी, मोरंकीड़ा,’गरूघोंटु, हड्डीका टटना,- किसीं भी तरंह केः जख्म आदि बीमारियोंका इलाज विशेष हुआ हैं ।
एन्श्रेग्स आदि संकामक मानी जानेवाली बीमारियों में ‘सीरंस! और “वायरस” के उपचार पर ही निर्भर रहना हमारी भूल है। एक तो स्वतः ‘यह एक हिंसात्मक प्रक्रिया है। परन्तु “एक के द्वारा अनेक का हित” जंस रीते से साधन होता है, अवश्य | किन्ठ, विशेषज्ञ स्वयं मानते हैं पके सीरस’ आदि का असर अस्थाई और क्षणिक होता और रोग से ‘बचा रखने के लिए; पशुओं को चार बार टीका देते रहना पड़ता है। इस परह स्थायी इलाज तो नहीं हुआ ।
इस पद्धति की प्रक्रिया को सुनकर आप को आश्चय होगा । किसी निरोग पशु के रक्त में रोगी पशु के रक्त को प्रवेश किया जाता है ओर फिर वह रोग उस पश्चु को उत्पन्न होने पर बापस उसका रक्त निकालकर अन्य पशुओं में “रोग प्रतिगेघक शाक्ति? उत्पन्न रहने के लिए अवेश करा दिया जाता है। इस में बहुत बड़ी जोखसम यहद्द है कि कितने ही अन्य रक्त रोग बाहर से आकर प्रवेश करते हैं। “गये थे रोजे छोड़ने
ओर नमाज गले बंघी” वाली वात चरितार्थ होती है। मेरे विनम्र विचार में ऐसी “प्रतिरोधक शाक्ति” का अर्य ऐसा है जेसे बाहर के गुंडों के आतंक से बचने के लिए अपने घर में पहिले से कुछ ओर गुंडे लाकर उनके द्वारा बचाव की उम्मीद करना |
इसके अतिरिक्त जब्र पशु में प्रतिवर्ष वार बार किसी न किसी रोग के लिये ‘सीरम’ वायरस प्रयोग चलता द्वी रहेगा तो उसकी नेसर्गिक “प्रतिरोधक शाक्ति” शनेः शनैः नष्ट होंगी । यही कारण है कि पाश्चात्य देशों में पशु “रींडरपेस्ट” आदि रोगें में ही नहीं चल्कि “मुँह खुरी” में जिसकी अपने देश में पर्ाह तक नहीं की जाती, तुरन्त मर जाते हैं।
सिद्ध वनौषधि चिकित्सा | Sidh Vanoshdhi Chikitsa Book PDF in Hindi Free Download