मन्वन्तर महाकाव्य | Manvantara Mahakavya PDF In Hindi
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मन्वन्तर महाकाव्य – Manvantara Mahakavya Book Hindi PDF Free Download

लेखक / Writer | रामदयाल पांडे / Ramdayal Pandey |
भाषा / Language | हिन्दी / Hindi |
कुल पृष्ठकुल पृष्ठ | 91 |
Pdf साइज़ | 51.8 MB |
श्रेणी / Category | काव्य / Poetry |
‘जो मनन समर्पित हो करता समता-दायक,वह मनु होता; जिस भाँति समर्पित कृषक सदा समता से बीजों को बोता ।’
दर्शन एवं संस्कृति के कालप्रवाह में परिवर्तन का आना और परिवर्तन के कारण सामाजिक समतल का विषम हो जाना स्वाभाविक है। जलप्रवाह एवं झंझावात के कारण सम भूमि स्वभावतः कुछ-न-कुछ विषम हो जाती है। अतएव युग-चिन्तकों को सामाजिक समतलता के पुनस्संस्थापन हेतु चिन्तन करना ही पड़ता है और अभियंताओं को भूमि की समतलता हेतु पुनः प्रयास करना पड़ता है । यदा-कदा तो इस प्रयास को अभियान का भी रूप देना पड़ता है।
हम देख ही रहे हैं कि वर्तमान काल में क्षेत्र-भेद के कारण समाज तथा राष्ट्र में विषम स्थिति उत्पन्न होती रहती है। इसी भाँति विश्व में भी क्षेत्र-भेदभाव की दुर्नीति के कारण वैषम्य, कलह और टकराव उत्पन्न होते रहते हैं। यदा-कदा यह स्थिति युद्ध की विभीषका झेलने के लिए भी मानव समाज को विवश कर देती है। इसी परिप्रेक्ष्य में ‘मन्वन्तर’ के प्रथम सर्ग को ‘क्षेत्रभेदान्त’ का शीर्षक प्रदान किया गया है। उपर्युक्त उद्धरण के पश्चात् अनुगामिनी पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-
‘चिन्तन वैषम्य – विभेदजनक क्या हो सकता सम्यक् चिन्तन ? को
ई विभेद की व्यथा सहे; कुछ को ही दे जीवन-साधन ?’
अम्बुधि – हिमाद्रि में जो विभेद, वह प्रकृतिदत्त, भौगोलिक है;
मानव आते जग में समता से, भेद न कोई मौलिक है।
मानव भी जो रचते विभेद, वह भी क्या होता है शाश्वत ?
करते सुधार समतानुसार तो जीवनमय होता है पथ ।
जाने कितने मनु आये हैं, मन्वन्तर कितने हुए यहाँ; परिवर्तित हुईं व्यवस्थाएँ, शाश्वत जीवन पा सकीं कहाँ ?
क्या कभी देश में सीमित हों ? चिन्तन सर्वत्र चले व्यापक; सीधे सपाट पथ कभी चले; तो कभी चले पथ पर तिर्यक् ।
चल सका नहीं है देश-भेद; भी चला नहीं,
भाषा – विभेद
समतामय हृदय मनुज के हैं, रहती विभेद में कला नहीं।
होती रहती नव सृष्टि सतत; होते रहते हैं नये प्रलय; पर एक वस्तु होती शाश्वत;
पशुता पर मानवता की जय ।
मानवता हो तो मानव है; पशुता हो तो क्या है मानव ?
एकता और समता से ही, रक्षित रहता मानव-गौरव ।
भवनों में ही आया विभेद; था शिलान्यास में भेद नहीं; समता के फल थे लगे जहाँ, क्रमशः मानव जा सका वहीं ।’
एकत्व एवं समत्व की ओर दिशा-निर्देश हेतु ये पंक्तियाँ उद्धृत करने की विवशता थी, क्योंकि इस उद्धरण के अन्त में ही ‘एकत्व’ और ‘समता’ का प्रयोग हुआ है। विभेद पर इन्हें संस्थापित करने हेतु उद्धरण को यहाँ तक लाना आवश्यक प्रतीत हुआ। वस्तुतः विभेद में ही उसका अन्त निहित रहता है। इसी प्रकार प्रत्येक रूढ़िवाद में उसका अन्त निहित है। भारतीय जीवनदृष्टि मूलतः समता एवं एकता की ही दृष्टि है। भेद एवं वर्गीकरण भी एकता स्थापन के ही विविध आयाम हैं।
मन्वन्तर महाकाव्य / Manvantara Mahakavya PDF
‘मन्वन्तर’ नामकरण किसी रूढ़िवादी नाम को ग्रहण करने का प्रयास नहीं है। यह तो रूढ़िवाद से रचयिता के पृथक् अस्तित्व का ही सूचक है। रचयिता स्वप्न में भी स्वयं को अभिनव मनु कहलाने योग्य नहीं मानता, किन्तु यहाँ यह स्थापना प्रस्तुत की गई है कि चिन्तन- मनन न तो युगविशेष के आगमन की प्रतीक्षा करते हैं और न किसी व्यक्तिविशेष में सीमित रहते हैं। मानव समाज के विविध विभेदों का अन्त न केवल अपेक्षित है प्रत्युत उसे होना ही है। मानव समाज की चिन्तन-मनन-धारा तभी अभिधान की अधिकारिणी है जब उसका प्रवाह सतत चलता ही रहता है। वह कहीं भी और कभी भी अवरुद्ध नहीं होता ।
अतः क्षेत्र-भेदान्त के अतिरिक्त जातिभेदान्त, सम्प्रदाय भेदान्त, वर्गभेदान्त, एकदेशीय शासन का अन्त और विश्वशासन की संचेतना, संस्कृति-रूपान्तर, प्रकृति-रूपान्तर, नवाध्यात्म, नवजीवन-दर्शन, नवसमाज और नवविकास को आना ही है।
काल की शक्ति भी इसे विजित अथवा बाधित नहीं कर सकती। हाँ, एददर्थ समय अवश्य अपेक्षित एवं प्रतीक्षित रहेगा। परन्तु यह प्रगतिधारा तो अनिवार्य है। विज्ञान, राजनीति, अर्थशास्त्र आदि का प्राकृतिक प्रगति प्रवाह इन समस्त विभेदों का अन्त अवश्य करेगा और एकता, समता एवं भेदमुक्तता का त्रिवेणी संगम क्रमशः होकर रहेगा। मानव में भी मानवत्व क्रमशः आता और बढ़ता रहेगा। वस्तुतः मानवत्व से ही मानव मूलतः परिभाषित होता है।
भेद में ही उसका अन्त निहित रहता है। भेद का आना भी स्वाभाविक था और उसका जाना भी स्वाभाविक है। विषमता का अन्त भी स्वाभाविक है। उसके स्थान पर समता का आना भी अस्वाभाविक नहीं। जल जीवन के पर्याय के रूप में मान्य है। उसमें भी विषमतलता आती रहती है परन्तु उसमें त्वरित समतलता स्वतः आ जाती है।
यों समस्त प्रकृति में भी विषमता आती और जाती रहती है। किन्तु प्रकृति की कतिपय विषमताओं का अन्त मानव को स्वयं करना पड़ता है। पर्वत में भूस्खलन से विषमता आती है तो मानव को उस विषमता का अन्त करना पड़ता है; अपने ही हित में करना पड़ता है। मानव की एकता एवं समता शाश्वत है; शाश्वत, जो अन्ततः असमाप्य होता है। चिन्तन-मनन की स्वतंत्रता जन्मजात है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रतिबन्धित होती रहती है.
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मन्वन्तर महाकाव्य – Manvantara Mahakavya Book Hindi PDF Free Download