कठोपनिषद | Kathopanishad PDF In Hindi
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कठोपनिषद सानुवाद शंकरभाष्य सहित | Katha Upanishad Book PDF Free Download

Kathopanishad In Hindi PDF
कठोपनिषद् मन्त्रार्थ, शाङ्करभाष्य और भाष्यार्थसहित
यस्मिन् सर्वे यतः सर्वे यः सर्वे सर्वक्तथा । सर्वभावपदातीतं स्वात्मानं तं स्मराम्यहम् ॥ शान्तिपाठ
ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै । तेजस्वि नावधीतमस्तु । मा विद्विषावहै ।
ॐ शान्तिः ! शान्तिः !! शान्तिः !!!
वह परमात्मा हम ( आचार्य और शिष्य) दोनोंकी साथ-साथ रक्षा करें। हम दोनोंका साथ-साथ पालन करें। हम साथ-साथ विद्या- सम्बन्धी सामर्थ्य प्राप्त करें ! हम दोनोंका पढ़ा हुआ तेजखी हो। हम द्वेष न करें। त्रिविध तापकी शान्ति हो ।
ॐ नमो भगवते वैवस्वताय । मृत्यवे ब्रह्मविद्याचार्याय नचि- केतसे च । अथ काठकोपनिपल्लीनां ॐ
ब्रह्मविद्या के आचार्य सूर्य- पुत्र भगवान् यम और नचिकेताको नमस्कार है। अब कठोपनिषद्की बल्लियों को सुखार्थ प्रबोधनार्थम् अल्पग्रन्था सुगमता से समझाने के लिये यह वृत्तिरारभ्यते । |
संक्षिप्त वृत्ति आरम्भ की जाती है। सदेर्धातोर्विशरणगत्यवसा- विशरण ( नाश), गति और अवसादन (शिथिल करना) इन दनार्थस्योपनिपूर्व- तीन अथोंबाली तथा ‘उप’ और उपनिषच्छब्दार्थ-
स्य क्विप्प्रत्यया- ‘नि’ उपसर्गपूर्वक एवं ‘किप्’ निरुक्तिः न्तस्य रूपमुपनिषद् इति । उपनिषच्छब्देन च व्याचिख्यासितग्रन्थप्रतिपाद्य- वेद्यवस्तुविषया विद्योच्यते। केन पुनरर्थयोगेन उपनिषच्छब्देन विद्योच्यत इत्युच्यते । ये मुमुक्षवो दृष्टानुश्रविकवि- पयवितृष्णाः सन्त उपनिषच्छब्द- वाच्यां वक्ष्यमाणलक्षणां विद्याम् उपसद्योपगम्य तनिष्ठतया निश्व- येन शीलयन्ति तेषामविद्यादेः प्रत्ययान्त ‘सद्’ धातुका ‘उपनिषद्’ यह रूप बनता है।
उपनिषद् शब्दसे, जिस ग्रन्थ की हम व्याख्या करना चाहते हैं उसके प्रतिपाय और वेद्य ब्रह्मविषयक विद्या का प्रतिपादन किया जाता है। किस अर्थ का योग होने के कारण उपनिषद् शब्द से विद्या का कपन होता है, सो बतलाते हैं। जो मोक्षकामी पुरुष लौकिक और पारलौकिक विषयों से विरक्त होकर उपनिषद्शब्दकी वाच्य तथा आगे कहे जाने वाले लक्षणों से युक्त विद्या के समीप जाकर अर्थात् उसे प्राप्त कर उसी की निष्ठा से निश्चय- पूर्वक उसका परिशीलन करते हैं
संसारबीजस्य विवरणादिसनाद् | उनके अविधा आदि संसार के विनाशनादित्यनेनार्थयोगेन विद्या उपनिषदित्युच्यते । तथा च वक्ष्यति – “निचाय्य तं मृत्यु- मुखात्प्रमुच्यते” (क० उ० १ ३ । १५ ) इति । पूर्वोक्तविशेषणान्मुमुक्षून्या परं अझ गमयतीति ब्रह्मगमयितृत्वेन योगाद्रह्मविद्योपनिषत् ।
तथा च वक्ष्यति – “ब्रह्मप्राप्तोः विरजोऽभू द्विमृत्युः” (क० उ० २। ३ ।१८) इति । लोकादिर्ब्रह्मज्ञो योऽग्निस्त- द्विषयाया विद्याया द्वितीयेन वरेण प्रार्ध्यमानायाः स्वर्गलोक- फलप्राप्तिहेतुत्वेन गर्भवासजन्म- बीजका विशरण — हिंसन अर्थात् विनाश करनेके कारण इस अर्थ के योग से ही ‘उपनिषद्’ शब्द से वह विद्या कही जाती है।
ऐसा ही आगे श्रुति कहेगी भी कि “उसे साक्षात् जानकर पुरुष मृत्यु के मुख से छूट जाता है ।” अथवा पूर्वोक्त विशेषणोंसे युक्त मुमुक्षुओंको ब्रह्मविद्या परब्रह्म के पास पहुँचा देती है-इस प्रकार ब्रह्म के पास पहुँचाने वाली होने के कारण इस अर्थ के योग से भी ब्रह्म- विद्या ‘उपनिषद्’ है। ऐसा ही “ब्रह्म को प्राप्त हुआ पुरुष विरज (शुद्ध) और विमृत्यु (अमर) हो गया” इस वाक्य से श्रुति आगे कहेगी भी ।
जो अग्नि भूः भुवः आदि और ज्ञाता है उससे सम्बन्ध रखने- छोकोंसे पूर्व सिद्ध, ब्रह्मासे उत्पन्न वाली विद्या, जो कि दूसरे बरसे माँगी गयी है, और स्वर्गलोकरूप फलकी प्राप्तिके कारणरूपसे लोकान्तरों में पुनः पुनः प्राप्त होने- जराद्युपद्रववृन्दस्य लोकान्तरे वाले गर्भवास, जन्म और वृद्धावस्या पौनःपुन्येन प्रवृत्तस्याबसायितृ- आदि उपद्रवसमूहका अवसा |
अर्थात् शैथिल्य करनेवाली है, अतः स्वेन शैथिल्यापादनेन धात्वर्थ- वह अग्निविद्या भी ‘सद्’ धातुके योगादत्रिविद्याप्युपनिपदित्यु- अर्थके योगसे ‘उपनिषद्’ कही जाती है। “खर्गलोकको प्राप्त होने- वाले पुरुष अमरत्व प्राप्त करते हैं” ऐसा आगे कहेंगे भी। च्यते । तथा च वक्ष्यति -“स्वर्ग लोका अमृतत्वं भजन्ते” ( क० उ० १ । १ । १३ ) इत्यादि ।
ननु चोपनिषच्छब्देनाध्ये- तारो ग्रन्थमप्यभिलपन्ति । उप- निपद्मधीमहे ऽध्यापयाम इति च। एवं नैष दोषोऽविद्यादिसंसार- हेतुविशरणादेः सदिधात्वर्थस्य ग्रन्थमात्रेऽसम्भवाद्विद्यायां च सम्भवात् । ग्रन्थस्यापि तादर्थ्येन तच्छब्दत्वोपपत्तेः, आयुर्वै घृतम् इत्यादिवत् । तस्माद्विद्यायां मुख्यया शङ्का –
किन्तु अध्ययन करने- वाले तो ‘उपनिषद्’ शब्दसे ग्रन्थ- का भी उल्लेख करते हैं, जैसे— ‘हम उपनिषद् पढ़ते हैं अथवा पढ़ाते हैं’ इत्यादि । समाधान – ऐसा कहना भी दोषयुक्त नहीं है । संसार के हेतु- भूत अविद्या आदिके विशरण आदि, जो कि सद् धातुके अर्थ हैं, ग्रन्थमात्रमें तो सम्भव नहीं हैं किन्तु विद्यामें सम्भव हो सकते हैं। ग्रन्थ भी विद्याके ही लिये है; इसलिये वह भी उस शब्द से कहा जा सकता है; जैसे [आयुवृद्धिमें उपयोगी होनेके कारण] ‘घृत आयु ही है’
ऐसा कहा जाता है । वृत्त्योपनिषच्छब्दो इसलिये ‘उपनिषद्’ शब्द विद्यामें मुख्य वृत्तिसे प्रयुक्त होता है तथा ग्रन्थ में गोणी वृत्तिसे । वर्तते ग्रन्थे तु भक्त्येति । एवमुपनिपन्निर्वचनेनैव विशि- ष्टोऽधिकारी विद्यायामुक्तः । विष यथ विशिष्ट उक्तो विद्यायाः परं इस प्रकार ‘उपनिषद्’ शब्द का निर्वचन करने से ही विद्या का विशिष्ट अधिकारी बतला दिया गया ।
लेखक / Writer | गीता प्रेस / Gita Press |
भाषा / Language | हिन्दी / Hindi |
कुल पृष्ठ / Total Pages | 50 |
PDF साइज़ | 253 MB |
श्रेणी / Category | धार्मिक / Religious |
Source / Credit | archive.org |
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