हिंदी संकेत लिपि PDF : ऋषिलाल अग्रवाल द्वारा मुफ्त हिंदी पीडीऍफ़ पुस्तक | Hindi Sanket Lipi (Rishi Pranali) PDF : by Rishilal Agrawal Free Hindi PDF Book

हिंदी संकेत लिपि PDF | Hindi Sanket Lipi In Hindi PDF Book Free Download
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पुस्तक का नाम / Name of Book | हिंदी संकेत लिपि PDF / Hindi Sanket Lipi PDF |
लेखक / Writer | ऋषिलाल अग्रवाल / Rishilal Agrawal |
पुस्तक की भाषा / Book by Language | हिंदी / Hindi |
पुस्तक का साइज़ / Book by Size | 7.02 MB |
कुल पृष्ठ / Total Pages | 314 |
पीडीऍफ़ श्रेणी / PDF Category | साहित्य / Literature |
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हिंदी संकेत लिपि PDF | Hindi Sanket Lipi PDF in Hindi
हिंदी संकेत लिपि PDF पुस्तक का एक मशीनी अंश
यदि कोई संभव को असम्भव और असम्भव को संभव कर सकता है तो वह परमात्मा ही हैं। बगेर उनकी अलुमह या कृपा के क्रिसी काय का सुचारु-रूप से पूरा होना तो दूर रद्द उसका आरंध भी नहीं हो सकता। इसलिए कोटानिकोट घन्यवाद है उस परमपिता परमात्मा को जिसको हो असीम कृपा से आज मुझे इस “प्रस्तावता” को लिखने का अवसर मिंला है।
एक अच्च्री दिन्दी-शार्ट-हैंड प्रणाली का आविष्कार कर प्रचलित करने का विचार मेरे हृदय में पहले-पहल सन् १६२२ ईं० में उठा था जब कि मैं “लीग ननरीमेंम्बरेंसर” के. दफ्तर में हेड-कलक के पद् पर काम कर रहा था। उस समय अंग्रज़ी शा्ट-दैंड में मेशे अच्छी गति थी ओर निमी तोर पर कॉश्वित में बैठकर कोंसिज् के सदस्यों की स्पीचें भी लिखता था। में यह अक्सर सोचता था कि आखिर जब विदेशी आषा में दी हुईं वक्त ता कुछ नियमों के आधार पर सरलतापू्वक लिखी जा सकती है तो कोई वनह नहीं कि भरप्र-प्रयत्न किये जाने पर हिन्दी तथा डिंदुस्वानी भाषा में भो कोई ऐसी प्रणाली का आविष्कार न हो सके जिपके द्वारा हिन्दुस्तान- को मुख्य २ भाषाओं में दी गई वक्तताओं को लिखा अथवा पढ़ा जा सके | पर उस समय इस विचार को इस वजह से काय-रूप में परिणित न कर सका था कि पहले तो झुमेे समय कम था ओर दूसरे इसको माँग भी न थी ।
उस समय में सरकारी नोकरी में था और ययपि उससे मुझे आसदनी भी अच्छी थी परन्तु फिर भी व्यापार की तरफ अधिक क्ुकाव दोने के कारण में अक्सर यही सोचता था कि ऐसा कौन सा काम किया ज्ञाय जिससे नोऋुरी से पीछा छूटे। इसी समय हसारा दफ्तर इलाहाबाद से उठकर लखनऊ चला गया। लखनऊ मेरी बृद्धा माता जी को ” ज्ञरा भी पसंद न भआाया। उन्हें पुरय सल्षिज्ञा गंगा का तट छोड़कर लखनऊ में रहना बहुत ही कष्टकर प्रतीत हुआ। वह्द अक्सर कहती थीं कि भगवान ने अन्त में कहाँ से कहाँ लाकर पटका । इन सब बातों ने हमारे विचार ‘को और भी बदल दिया ओर हम ८ मद्दीने की छुट्टी लेकर इल्वाह्वाद लौट भआये ।
यह सन् १६२४ की बात है। अब दम सोचने लगे कि क्या करना चाहिए जिससे लखनऊ न ॒त्ोटना पड़े। आखिर मुख्तारशिप और रेविन्यू- एजेन्टी को परीक्षा देने का निश्वय किया और इश्वर की कृपा से उसमें सफल्तता भी मिली परन्तु उस समय असहयोग आन्दोलन जोरों पर था और लोग अदालत का वहिष्कार कर रहे थे, इसलिए उधर भी जाना उचित न सममा। व्यवसाय की तरफ लड़कपन से द्वी कुकाव था, उसने फिर जोर मारा और इसी ससय एक घतिष्ट सम्बन्धी के कहने- सुनने से मैंने एक प्रेस की स्थापना की और दैेश्वर की कृपा से कुछ ही दिलों में यह प्रेस प्रान्त के अच्छे प्रेसों में गिना जाने लगा परन्तु अभाग्य या साग्यवश वहाँ से भी हटना पढ़ा। इसी समय हिंदी-शीघ्र-लिपि की पुकार सुनाई पड़ी, फिर क्या था, एक सरल-सुबोध तथा सचोक्ष पूण प्रणाली के आविष्कार में लग गया और उसके फल स्वरूप यह पुस्तक आपके सामने प्रस्तुत है।
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