धन्वंतरि वनोषधि | Dhanvantri Banoshdhi PDF in Hindi
धन्वंतरि वनोषधि | Dhanvantri Banoshdhi Book PDF in Hindi Free Download

लेखक / Writer | वैद्य देवीशरण गर्ग / Vaidh Devisharan Garag |
पुस्तक का नाम / Name of Book | धन्वंतरि वनोषधि / Dhanvantri Banoshdhi |
पुस्तक की भाषा / Book of Language | हिंदी / Hindi |
पुस्तक का साइज़ / Book Size | 45.16 MB |
कुल पृष्ठ / Total Pages | 548 |
श्रेणी / Category | स्वास्थ्य / Health , आयुर्वेद / Ayurveda |
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Dhanvantri Banoshdhi PDF Download
धन्वंतरि वनोषधि पुस्तक का एक मशीनी अंश
कपू रादि वर्ग एवं अपने चन्दन का यह प्रसिद्ध वृक्ष सदा हरा भरा २०-३० फुट ऊचा
होता हैं। छाल-बाहर से धुमर कृप्णाभ, लम्बे चीरो से थुक्त एव भीतर से रताभ भगुर, पत्र-विपरीत, नीमपत्र जैसे मुलायम, नुकीले १-३ इच लम्बे, निर्गन््ध, पुष्प-गुच्छो मे जामुनी रंग के कुछ पीताभ, निर्गन्ध, फल-मासल, गोल ३ इंच व्यास के, ऋृष्णाभ बेंगनी रंग के होते हैं।
वर्धा से घीतकान तक पुष्प तथा बाद फललगते है । इसके वृक्ष प्राय २० वर्ण के बाद ही पक्व दगा में श्राते हैं। प्राय ४०-६० वर्ष की श्रायु का यह वृक्ष उत्तम प्रकार से परिपक्व हो जाता है। तब ही इस के श्रन्दर के काप्ठ या सार-भाग भे-उत्तम श्रति-सुगन्ध आती है, जव गह कडा एवं तैल युक्त हो जाता है, तव ही काटा जाता है। जबसे यह ज्ञात हुआ है कि इसकी जड में श्रध्चिक तल होता है, तवसे इसे भच्छी तरह खोद कर जड मूल से बाहर निकाल कर अलग-अ्रलग ठुकड़े करते हैं। परिपक्व व अश्रपरिपक्व चदन के काष्ठ, वर्ण, तेलतथा सुगघ मे भी पार्थक्य होता है ।
1. इवेत ओर पीत चदत–भावप्रकाण के कथना- मुसार पीत चंदन को लोक मे कलम्बक तथा सस्क्त में कालीयक, पीताभ, हरिचदन आदि कहते है । ग्रुणधर्म में
यह रक््तचन्दन के समाच ही होता है, तथा विज्येषत व्यग (मुख की फाई) को यह दूर करता है ।
आ्राधुनिको के थोधाचुसार इस पीत चदन का कोई स्वतन्त्र वृक्ष नही पाया गया है । किन्तु भावप्काश तथा पचचन्तरि निवठु में उत्तम इवेत चन्दन ( जिसका वर्णन
प्रस्तुत प्रसंग में किया जा रहा है ) के विपय मे लिखा है कि घिसने इत्यादि पर जो पीत वर्णों का हो वह उत्तम ब्वेत चन्दन है? । तथा श्वेत उत्तम चन्दन भी मलय का मा दया ता नव सकल इन तन मिल) स्वादे तिक्तः कपे पीत॑ं छेदे रक्त तनों सितस्।
पर्वत का कहा गया है–“मलयोत्यम् पीत काप्ठम् चतुर्थ हरिचन्दतम्” ध० नि० । अत’ दोनो का एक ही उत्पत्ति- स्थान तथा घिसने पर पीत वर्णता इन निदर्णनों से ज्ञात्त होता है कि-उत्तम ब्वेत चन्दन के ही वाह्म क्िचित् श्वेत वर्ण के काष्ठ-सार को इवेत चन्दन धौर भीतर के पीकबरणं के काप्ठ सार को पीत चन्दन मात लेने में कोई आपत्ति नहीं है ।
अव रही गुणधर्म व प्रयोग की वात, सो चन्दन के प्रयोग के सस्वन्ध में प्रर्वाचीन शास्त्रोप्त कथन है कि- उकते चन्दन बब्दे तु गृह्मते रक्त चन्दनम् । चूर्ण स्वेहा-
सवा लेहा संध्या घवल चन्दर्तं. ॥ कपषाय लेपयों प्रायो युज्यते रक्त चन्दनम् ॥ श्रर्थात् योग मे सामान्य चन्दन शब्द से रपत चन्दन का ग्रहणा करे । घूर्ण, तैल, घृतादि, आंसवारिष्ट एव लेह में श्वेत चन्दन लेवे । अत पीठ चन्दन ( इवेत चन्दन के भीतर के काप्ठ सार ) का प्रयोग भी रक्त चन्दन के जेसे हो सकता है। गूणधर्म
में भी कोई विशेष भेद नहीं है। आगे रक्त चन्दन (चन्दन लाल ) का प्रकरण देखिये ।
(२) चरक के-दाह-प्रशमन, अगमद-प्रभमन, तृष्णा* निग्रहरणा, वर्ण्ये, कण्ट्रघ्न, एवं तिवत स्कन्च मे, तथा सुश्न् त के सालशारादि, पठोलादि, सारिवादि, प्रिय॑ग्वादि, ।
गुहच्यादि एवं वित्त-सशमन गणों मे चन्दन लिया गया है।
सृश्नत के सालसारादियण मे कुचन्दन व कालीयक का भी उल्लेख है। डल्हरा ने सालसारादियण एवं पटो- लादिगण मे कुचन्दत का अर्थ रक्त चन्दव किया है ।
तथा-कुचन्दत से ध० नि० के अनुसार पतग भी लिया जाता है। यथा स्थान पतग का प्रकरण देखिये |
इस प्रकार चन्दन गव्द से शास्त्रीय प्रयोगों मे भिन््त- भिन्न श्र्थों का अहरा करना विसयत सा जान पड़ता है । चूर्णादि मे चदत से श्वेत चदन तथा कपायादि मे ऱत- चन्दन ग्रहण करता चरकादि ऋषि-राम्मत सही ज्ञात होता ।
अत” जहा, जैसा, जिस रोग के लिये प्रयोग हो तहा वसा ही रोगावस्था एवं देश कालासुसार बुद्धिपूर्वक विचार वर घ्वेत या रत चन्दन ग्रहण करना ही ठोक जंचता है। रक्तपितादि रोगी मे प्रायः रवत चन्दन तथा कही-कही ब्वेत चन्दन का भी प्रयोग किया जा सकता है। शुगस्व के दिये तथा दाह प्रशसन एवं कृमि पश्रादि नाथार्थ वेतत ही लेना चाहिये। यज्ञपि रणसादिको मे प्राय, समी प्रकार के चन्दन समांत ही होते हैँ, उसमे विशेषता केवल भच्व की ही रहती है, तवापि उनमे सर्व प्रथस मलयागिरी चन्दन ही गुणों में सर्वश्रेष्ठ होता है? ।