आयुर्वेदिय औषधिगुण धर्मशास्त्र | Ayurvediya Aushadhigun Dharmashastra PDF in Hindi
आयुर्वेदिय औषधिगुण धर्मशास्त्र | Ayurvediya Aushadhigun Dharmashastra PDF in Hindi Free Download

लेखक / Writer | पं. गंगाधर शास्त्री / Pt. Gangadhar Shastri |
पुस्तक का नाम / Name of Book | आयुर्वेदिय औषधिगुण धर्मशास्त्र / Ayurvediya Aushadhigun Dharmashastra |
पुस्तक की भाषा / Book of Language | हिंदी / Hindi |
पुस्तक का साइज़ / Book Size | 8.96 MB |
कुल पृष्ठ / Total Pages | 162 |
श्रेणी / Category | स्वास्थ्य / Health , आयुर्वेद / Ayurveda |
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Ayurvediya Aushadhigun Dharmashastra PDF
आयुर्वेदिय औषधिगुण धर्मशास्त्र पुस्तक का एक मशीनी अंश
आऑधषधियोंमे जो गुणा शारीर धातुओ का परिपोष करते है आर उनका
बल बढाते है वे गुणा कायम रखना चाहिये और जिन गुणो से शारी-रिक दोषों मे अनिष्ठ चुद्धि हो जाय-वे कुछ संस्कारों से निकालना चाहिये. ओपषधियो के जो कुछ गुणा होगे उनमे कुछ फायदेमंद होगे आर कुछ जुकसान करेंगे.
जिन मुणो से शरीरका रोग बढ जायेगा वे दोष कह-लाये जाते है. क्योंकि उपकारक गशु॒राधमंको शुण और अपकारक गुरा धमको दोष कहना चाहिये. भस्म जब दोषरहित होगे तव सशाखतर सिद्ध माने जायेगे. सच कहे तो हरएक द्रव्यमे जो कुछ कार्येशक्ति रहती वह सब उन द्वव्योंके विशेष गुणा सही होती है. चह काये अच्छा हो या बूरा हो, वह उस हृव्यका विशेष गुणा है.
किंतु जिस परिस्थितिसे या रोगकी अवस्थामे, उसकी जरूरत होगी, उससे फायदा होगा वह गुरा और जिसकी जरूरत न होगी, जिससे सुकसान होगा, उसको हस दोष समझते है. जैले-ताम्र:-इसमे वमन (कै) करानेकी शक्ति है. इस शक्तीकी जहां जरूरत होगी वहां यह वामक श॒ुणा समझा जाएगा. किंतु जहां इस शक्तीकी जरूरत नहीं है बल्कि इससे जुकसान है वहां यह दोष समझके उसे निकाछूना पडेगा.
इसी लिये ताम्रसस्म तय्यार करने के संस्कारों मे वह वामकत्व निकालने के संस्कार है. और जहां तक यह चामकत्व इसमे बना रहा है वहां तक वह शुद्ध और पूर्णे नही मानी जाएगी. निष्कलंक ताम्र भस्म बननी चाहिये. इस तरह जिस अवस्था मे वह भस्म देना है उस अवस्थाका, और दोषदुष्ियादिओंका पूरी विचार करके संस्कार ठहराये जाते है ओर भस्म बनायी जाती है.
जिस तरह के संस्कार करके वह भस्म बनायी जाय उसी तरहके शुण इसमे आ जायेंगे. इसी लिये ओषधी योजना करनेके समय वह भस्म कौन से सेस्कारसे बनायी गयी है इसका ख्याल रखना चाहिये.
जैसे प्रालसस्म, मासूली और अप्िपुटी, मासूली प्रचाल, गुलाबपानी, वींगुंबार आदि शीत वीये दवाइयोंके संस्कारसे बनाईं जाती है. और उसका वहुत खूक्ष्म चूरों बनाते है. इसलिये शरीर समे जब तीश्णात्वादि गुणा बढ जाये तब यह प्रवाल देनी चाहिये.
तीश्णात्व यह पित्तका मुण है. प्रवाल पिचच्न होनेपरभी तीश्णात्वादि लक्षणोमे अभ्िषुटी प्रवाल- भस्मका इतना उपयोग नही होगा. क्योंकि वह अप्वि संस्कार से बनी हुई है, और इसी वजह इसस तीश्णात्वादि छक्षणा बढ’ जाएंगे, कम नही होगे. पित्तके जो दूसरे लक्षण होते है, जैसे सरत्व, दृवत्व और विस्॒त्व, उनमे अशिपुटी प्रवालले अधिक फायदा होगा. बहुत जलन के साथ वमन हो तो उसमे मासुली प्रवारूमस्म से फायदा होगा.
लेकिन उलटीमे बद्वू, खट्टापन और पानी के भाफिक पदाथे आता हो तो इसमे अप्लिपुटी प्रवाल से फायदा होगा. ऐसा अश्नि पुटी मासूली प्रवाल भस्म मे फके है.
भस्म जिन धातु और उपधातुओंकी बनाई जाती है वे सब अपने शारीर के चित्परमाणओं मे पाये जाते है. शरीरके छोटेस छोटे परमाणु- आका भी (चित्परमाणुओ का ) पृथकरणा आजकल किया हुवा है. उनसे भी निरिम्द्रिय द्वव्य पाये जाते है, किंतु बाहर के निरिन्द्िय दव्यके परमाणुआओं का शर्यर के अंदर खींचा जाना डुर्घेट है.
इसीलिये उनके सृध्म-अत्यंत सूक्ष्म-विभाग वनानेकी कोशिश की जाती है. भस्मो पर किये हुवे संस्कारोंसे (भावना और पुट ) उनके परमाणू सूक्ष्म किये जाते है और इनमे “ गुणान्तराधान ” याने अन्य झु॒णोका प्रस्थापन किया जाता है. नये शुरा उनमे पाये जाते है. जैसे-स्थूलत्व की जगह सूध्मत्व, गुख्त्वकी जगह लघु॒त्व, संहतत्वकी जगह विरलत्व इत्यादि- कुछ भी द्रव्य लो उसका मूल याने प्रछुख गुणा वह दछुव्य न छोडेगा. याने दृव्यके मूल स्वभावमे हम कुछ भी फर्क नही कर सकते हैं. जैखे-घ्ृत या तेल.
इन दोनों पर कुछ भी संस्कार करो, वे अपने स्नेहन गरुगा को कभी नहीं छोडेगे. ताम्न, अपना तीध्रात्व कभी नही छोडेगा. किंतु इस प्रधान मुराके साथ जो कुछ अन्य गुणा होगे उनमे संस्कारोल से कम जादा कर सकते है. अश्नकका प्रधान गुणा धातु परिपोषणा क्रम में सहायता करने का है और इसको भस्म भी सव धाठओं का परि पोषणा करती हैं. इस प्रकारसे भस्म मे गुणा बढाये जाते है और दोष निकाले जाते है.