अथर्व वेद (प्रथम काण्ड) | Atharva Veda PDF In Hindi
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अथर्व वेद (प्रथम काण्ड) – Atharva Veda Hindi Book PDF Free Download

लेखक / Writer | अज्ञात / Unknown |
पुस्तक की भाषा / Atharva Ved (Pratham Kaand) Book by Language | हिंदी / Hindi |
पुस्तक का साइज़ / Book by Size | 17 MB |
कुल पृष्ठ / Total Pages | 548 |
श्रेणी / Category | धार्मिक / Religious , हिंदू / Hinduism |
अथर्ववेद संहिता अर्थ सहित – Atharva Veda PDF In Hindi
॥ ॐ ॥ ( ऋषि- अथर्वा देवता – वाचस्पतिः । छन्द-अनुष्टुप् वृहती )
ये त्रिषप्ताः परियन्ति विश्वा रूपाणि विभ्रतः । वाचस्पतिवला तेपां तन्वो अद्य दधातु मे ॥१॥
पुनरेहि वाचस्पते देवेन मनसा सह । वसोष्पते नि रमय मय्येवास्तु मयि श्रुतम् ॥२॥
इवाभि वि तनू आन इव ज्यया । वाचस्पति नि यच्छतु मय्येवास्तु मयि श्रुतम् ॥३
उपहूतो वाचस्पतिरुपास्मान् वाचस्पति यताम् । सं श्रुतेम गमेमहि मा श्रुतेन विराधिषि ॥४॥
जड़ चेतन में समस्त रूपों से व्याप्त तीन गुणा सात (इवकीस ) देवता सर्वत्र भ्रमण करते हैं। वाणों के स्वामी ब्रह्माजी उनके असाधारण बल- को भाज मुझे दें (जगत् में सात पदार्थ पृथिवी, जल, तेज, वायु, आकाश, तन्मात्रा मौर अहंकार हैं और तीन गुण सत्व, रज और तम बतलाये गये हैं। इन सप्त तत्वों के तीनों गुणों में व्याप्त होने से ही २१ प्रकार के पदार्थों की उत्पत्ति होती है | )
||१|| हे वाणी के स्वामी देव ब्रह्मा ! प्रकाशित मन के साथ मेरे पास भाइए। हे वसुपति ! इच्छित फल प्रदान कर मुझे मानन्दित करिये। पढ़ े हुए ज्ञान को धारण करने के लिये बुद्धि प्रदान कीजिये
|| २ || जैसे धनुष की प्रत्यच चढ़ाने से दोनों सिरे समान रूप से खिंच जाते हैं वैसे ही, हे वाचस्पति ! वेद धारण करने की बुद्धि धीर मानन्दोपभोग की इच्छित सामिग्री मुझे, एकत्रित करो। पूर्ण रूपेण मुझ में स्थित करो। आपकी दी हुई सुख सामिग्री और बुद्धि मुझमें स्थिर रहे
|| ३ || वाणी के स्वामी ब्रह्माजी का हम बाह्वान करते हैं। देव वाच स्पति हमको बुलायें। हम ज्ञान से कभी दूर न हों। सम्पूर्ण ज्ञान से हम भोतप्रोत हो
॥४॥ २ सूक्त (ऋषिदेवतास्य । छन्द-धनुष्टुप् गायत्री )
विद्या शरस्य पितरं पर्जन्यं भूरिधायसम् । विद्यो ध्वस्य मातरं पृथिवीं भूरिवर्पणम् ॥। १॥
ज्या परि णो नमाश्मानं तन्वं कृधि । दुर्वयोऽरातीरप द्वेषस्या कृधि ॥२॥
वृक्ष यद्गावः परिषस्वजाना अनुस्कुरं शरमर्चन्त्यसुम् । शमस्मद् यावय दिद्युमिन्द्र ||३||
यथायां च पृथिवीं चान्तस्तिष्ठति तेजनम् । एवा रोगं वासवं चान्तस्तिष्ठतु मुञ्ज इत् ॥४॥
सभी जड़ चेतन को धारण पोषण करने वाला पर्जन्य इस वाण का पिता है, यह हम जानते हैं तथा समस्त तत्वों से युक्त पृथ्वी इसकी माता है। यह भी हम अच्छी तरह जानते हैं। इन दोनों से पुत्र “शर” की उत्पत्ति होती है
॥ १ ॥ हे देवपति हमारे शरीरों को पत्थर जैसा सुहद और शक्ति सम्पन्न बनायो । यह प्रत्यन्ता हमारी मोरन मुके (दूसरों की घोर मुके हमारे शत्रुधों के ईषपूर्ण कर्मों को हमसे दूर रखो ! उनका बल नष्ट करो
||२|| जिस प्रकार वट वृक्ष को सपन छाया में गर्मी से पीड़ित गौ शीघ्रता से शरण लेती है, उसी प्रकार शत्रु द्वारा पालन किये जाने वाले उसके वीरों द्वारा हम पर चलाये गए तीव्र बाण को हम से दूर हटामी
||३|| जिस प्रकार पृथ्वी धौर द्युलोक के बीच में तेज की स्थिति होती है उसी प्रकार रोग, साव और घावों को यह शर दबाये रसे
॥४॥ ३ सूक (ऋषिपर्वा देवता- पर्जन्यादयो । छन्द-पक्तिः मनुष्टुप् )
विद्मा शरस्य पितरं पर्जन्यं शतवृष्ण्य म् ।तेना ते तन्वे शंकरं पृथिव्यां ते निषेचनं वहिष्टे अस्तु वालिति |१|
विद्या शरस्य पितरं मित्रं शतवृष्ण्यम् । तेना ते तन्वे शंकरं पृथिव्यां ते निषेचनं वहिष्टे अस्तु वालिति ॥ २ ॥
विद्मा शरस्य पितरं वरुणं शतवृष्ण्यम् । तेना ते तन्वे शंकरं पृथिव्यां ते निषेचनं वहिष्टे अस्तु बालिति ॥३॥
विमा शरस्य पितरं चन्द्र ं शतवृष्ण्यम् । तेना ते तन्वे शंकरं पृथिव्यां ते निषेचनं बहिष्टे अस्तु वालिति ॥ ४॥
विमा शरस्य पितरं सूर्य शतवृष्ण्यम् । तेना ते तन्वे शंकरं विव्या ते निवेवनं वहिष्टे प्रस्तु वालिति । ५
यदान्त्रेषु गवीन्योर्यद्वस्तावधि संश्रितम् । एवा ते मूत्रं मुच्यतां वहिवलिति सर्वकम् ॥६॥
प्र ते भिनदिम मेहनं वर्त्र वेशन्त्याइव । एवा ते मूत्रं मुच्यतां वहिवलिति सर्वकम् ॥७॥
विपितं ते वस्तिवित समुद्रस्योदधेरिव । एवा ते मूत्रं मुच्यतां बहिर्वासित सर्वकम् ||
यथेषुका परापतदवसृष्टाधि धन्वनः । एवा ते मूत्र मुच्यतां बहिर्वालिति सर्वकम् ||
शर (बारा) के पिता को हम भली-भांति जानते हैं। वे सैकड़ों बल युक्त सामर्थ्य वाले मेघ हैं। उस शर से है रोगी ! तेरे मूत्रादि रोगों को नष्ट करता हूँ। शरीर में रुका हुआ तेरा मूत्र बाहर निकले
|१| हम शर केनन् शक्ति सम्पन्न एवं वीर्यवान मित्र (सूर्य) को जानते हैं। है रोग पीड़ित मनुष्य ! इससे मैं तेरे रोग को दूर करता हूँ। पेट में रुका हुआ तेरा मूत्र बाहर निकल जावे
॥ २ ॥ बारा के पिता अमित बल सम्पन्न भए को हम जानते हैं। हे रोग ग्रस्त ! इस वाहा से मैं तेरे रोगों का उपशमन करता हूँ। तेरे शरीर से मूत्र शब्द करता हुआ शीघ्र ही बाहर निकले
॥३॥ हम अनन्त वीर्यवान और धानन्द देने वाले चन्द्रमा को, जो शर का पिता है जानते हैं। ऐसे शर में तेरे रोगों को दूर करता हूँ पृथ्वी पर तेरा सूत्र शब्द करता हुआ बाहर निकले
||४|| अनन्त बस वीर्यवान तेजस्वी सूर्य को हम शर का पिता जानते हैं। हे रोगिन ! ऐसे शर से मैं तेरे शरीर में से रोगों को हटाता हूँ तेरा उदरस्य सूत्र शब्द करता हुआ शीघ्र ही बाहर आये
||५|| जो मूत्र तेरे मूत्राशय और मूत्र नाड़ियों में रुका हुआ है वह शीघ्र ही शब्द करता हुआ बाहर निकल पाये
||६|| जिस प्रकार तालाब के पानी को बाहर निकालने के लिये मार्ग को खोदते हैं, उसी प्रकार है सूत्र रोग से ग्रसित रोगी! मैं तेरे मूत्र निकलने के लिए मार्ग को खोलता हूँ तेरा सारा इकट्ठा हुआ मूत्र शब्द करता हुआ बाहर निकले
||७|| जैसे समुद्र, सागर, तालाब आदि का जल निकालने के लिए मार्ग बना दिया जाता है वैसे ही मैंने तेरे रुके के लिये मूत्राशय के द्वार को खोल दिया है हुमा बाहर निकल जाये || || जैसे धनुष से ही मूत्र को बाहर निकालने तेरा सारा मूत्र शब्द करता छोड़ा हुमा वा शीघ्र हो. अपने लक्ष्य की मोर चला जाता है उसी प्रकार का हुमा तेरा सारा मूत्र शब्द करता हुआ बाहर निकल जाये
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