आहार ही औषध है | Ahar Hi Aushadh Hai PDF in Hindi
आहार ही औषध है | Ahar Hi Aushadh Hai Book PDF in Hindi Free Download

लेखक / Writer | भवानी प्रसाद / Bhawani Prasad |
पुस्तक का नाम / Name of Book | आहार ही औषध है / Ahar Hi Aushadh |
पुस्तक की भाषा / Book of Language | हिंदी / Hindi |
पुस्तक का साइज़ / Book Size | 10.46 MB |
कुल पृष्ठ / Total Pages | 214 |
श्रेणी / Category | स्वास्थ्य / Health , आयुर्वेद / Ayurveda |
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Ahar Hi Aushadh Hai PDF Download
आहार ही औषध है पुस्तक का एक मशीनी अंश
आजकल यह मानी हुईं बात है कि प्रचलित विधान (कानून) का अज्ञान (अनजानपना) अक्षम्य हे-क्षमा नहीं कया जाता है–ओर जो कोई बिधान का भंग करता हे-उसको तोड़ता हे बह अवश्य उसका फल पाता हें-उसका दंड भोगता हैं।
चिकित्सा-शाख्रासिमानी जन, समय कुसमय, सदा अपनी विजय का ढोल पीटते रहते हैं ।
ये मृत्यु (मौत) का सामना करने वाले गवलि योद्धा अपने मोर्चा पर ऐसे जमे हुए हैं कि कोई उनस यह भी पूछने वाला नहीं हे क्रि उनके मुंह में कितने दांत हैं । उन की इस फू’ फां के रहते हुए भी, घटनाचक्र के वास्तबिक प्रत्यक्ष परिणाम (नतीजे) उनके इथा अभिमान (घमंड) को भ्ुठला रहे हैं ओर इस बात के कहने में लेशमात्र (तनिक) भी अतिशयोक्षि (बढ़ावा) नहीं है कि ओपध चिब्त्सिकों के हाथ से उनके रोगियों के प्राण उससे कहीं अधिक संख्या में जाते हैं. जितने कि उनके न रहते हुए वा उन के औषधों के अभाव वा कोई भी ओपषधों के अभाव वा कोई भी औषघ न देने पर जाते ।
ओपषधों की असीम वृद्धि ( बढ़ोतरी ) प्रकृतिमाता ( कुदरत ) की अवज्ञा–उसके विधान का पालन न करने–का कोई कायसाधक प्रतिकार वा उपाय वा वास्तविक चिकित्सा नहीं हे और में आपको पूरा विश्वास दिलाता हूं कि प्रकृति की रचना- उसकी रची हुई
वस्तुओं की- बराबरी कोई भी वस्तु नहीं कर सकती ओर इस अनहोने काय के लिए बृथा प्रयासी ये ओषघ-चिकित्सकाभिमानी जन प्रलयपयन्त भी कभी सफल न हो सकेंगे ।
“भोजनमेव भेषजम” वा आहार ही ओषध है कोई नवीन सिद्धान्त–नई बात-नहीं है,
प्रत्युत मेरी यह प्रस्तुत बात इस प्रथिबी के समान ही प्राचीन (पुरानी) हैं। स्वयंसिद्ध सत्य हम को यह बतलाता है कि जहां कहीं भी वनस्पतिसष्टि स्वभावत: विद्य-मान है वा मनुष्य द्वारा वह स्थिर रखी जा सकती है वहीं मनुष्य भी रह सकता हे-वहीं मनुष्य का भी निवास है ।
प्राकृतिक सम्बन्ध इस संयोग ( साहचय ) को प्रत्यक्ष प्रमाशित करता है । मनुष्य तथा वनस्पति का यह साहचय पुरुष और स्त्री जेसः परस्पर साहचय है ।
सब जानते हैं कि सजातीय पक्ती ही मिल कर आकाश में उड़ सकते हैं। फिर समझ में नहीं आता कि विजातीय वा अप्राकृतिक द्रव्य हमारे आमाशय में किस प्रक्रार समा सकते हैं-आत्मसात् हो सकते हैं ।
भूगोल के सारे प्राणी रोगी होने पर अपने रोगों को चिकित्सा आप कर लेते हैं यह प्राकृतिक नियम सर्वत्र देखने में आता है, किन्तु उनमें सवश्रेष्ठ मनुष्य ही अपने रोग में अन््यों की सहायता का आश्रय लेता है । प्रकृति तो स्वयं अपने प्रयत्न से ही रोग के रूप में आपके देह के दोषों को आपके देह से बाहर निक्राल कर आपको नीरोग वा स्वस्थ रखना चाहती हैं, किन्तु आप उमके काय में हस्तक्षेप करके अनधिकार चेष्टा करके अव्यापारेप व्यापार:” की संस्कृत कहावत को चरिताथ करते हैं ।
कृपया आप प्रकृति के अटल नियम का उल्लंघन न करें तो आप सदा सुखी रहेंगे | प्रकृति की कपा से असाध्य समझे जाने वाले रोगों पर विज्ञय प्राप्त हो चुकी है ओर वह दिन दूर नहीं है, जब कि प्रत्मेक बुद्धिमान मनुष्य प्रकृति की इस अमूल्य देन से लाभ उठाएगा ।
प्राकृतिक आहार द्वारा देह का पोषण ही जीवन ओर मानव समा|ज़की प्रारम्भिक आवश्यकता हैं | इस प्राकृतिक आहार में गड़बड़ करके जो हम आत्मा के निवास स्थान मानव देह में गोग का प्रवेश कराते हैं, यह हमारा अक्षम्य अपराध हे । इस
लिए आंगल भाषा की यह उक्ति यथाथ ही है कि ): पका गेगी जन धूत है–उसका गेग उसके ही अपराध (प्रकृति के नियम के उल्लंघन के रूप में) का कुफल है । हमको अपने प्रति, ओर हमारी व्यक्ति के मानव समाज का अंग होने के कारण मानव समाज के भी प्रति इस उग्र अपराध से बचना चाहिए
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